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गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

टाटा सोम्बा घर : अद्वितीय सांस्कृतिक और पर्यावरणीय धरोहर 🌱

पर्यावरण अनुकूल घर: टाटा सोम्बा घर
टाटा सोम्बा घर (इनका भारत की टाटा कंपनी से कोई लेना-देना नहीं हैं।) पश्चिम अफ्रीका के टोगो और बेनिन में स्थित सोम्बा जनजाति की पारंपरिक वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। दरअसल यहाँ किले को "टाटा" कहते हैं; और "सोम्बा" उस जनजाति का नाम है जो इन अद्भुत संरचनाओं का निर्माण करते हैं। इस प्रकार 'टाटा सोम्बा' का अर्थ हुआ - "सोम्बा जनजाति का किलेनुमा घर"। इन घरों को उनकी किले जैसी विशेष संरचना के कारण ही 'टाटा सोम्बा घर' कहा जाता है। ये न केवल वास्तुकला की दृष्टि से अद्वितीय हैं, बल्कि इनका सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय महत्व भी है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने उत्तरी टोगो और बेनिन में इन्हें विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है, जो इनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता को रेखांकित करता है।

घरों की आतंरिक संरचना 

टाटा सोम्बा घरों की संरचना विशेष रूप से सुरक्षा, पर्यावरणीय अनुकूलता और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। इन घरों में तीन प्रमुख तल होते हैं। भूतल का उपयोग पशुओं को रखने के लिए किया जाता है, मध्य तल अनाज और खाद्य-सामग्री के भंडारण के लिए समर्पित होता है, और ऊपरी तल परिवार के रहने का स्थान होता है। इनका आकार आमतौर पर बेलनाकार या आयताकार होता है, और छोटे दरवाजे-खिड़कियाँ सुरक्षा के साथ-साथ तापमान को नियंत्रित करने में सहायक होती हैं।

इन घरों की समतल छत का बहुआयामी उपयोग होता है। यह छत अनाज सुखाने, रात में सोने, और सामाजिक आयोजनों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। यह न केवल घर के उपयोगिता को बढ़ाता है, बल्कि समुदाय के जीवन में भी अहम भूमिका निभाता है।

टाटा सोम्बा घरों का निर्माण प्राकृतिक और स्थानीय संसाधनों से किया जाता है। मिट्टी, लकड़ी, गाय का गोबर, घास और प्राकृतिक रंगों का उपयोग इनकी निर्माण सामग्री में शामिल है। मोटी दीवारें गर्मियों में ठंडक और सर्दियों में गर्माहट प्रदान करती हैं। इन दीवारों को विशेष मिट्टी और गाय के गोबर के मिश्रण से जल-प्रतिरोधी बनाया जाता है, जिससे ये दीवारें लंबे समय तक टिकाऊ रहती हैं। स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री और पारंपरिक निर्माण तकनीक इन घरों को पर्यावरण के अनुकूल बनाते हैं। इनकी निर्माण प्रक्रिया से न केवल कार्बन उत्सर्जन कम होता है, बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन को भी बनाए रखती है।

टाटा सोम्बा घर केवल आवासीय स्थान नहीं हैं, बल्कि यह सोम्बा जनजाति की सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहर के प्रतीक भी हैं। इन घरों की दीवारों पर प्राकृतिक रंगों से बने सांस्कृतिक प्रतीक और चित्र उकेरे जाते हैं, जो जनजातीय जीवन, प्रकृति और धार्मिक विश्वासों को दर्शाते हैं। घर के भीतर और आसपास के विशेष स्थान धार्मिक अनुष्ठानों के लिए आरक्षित होते हैं। इन घरों का निर्माण स्वयं एक सामुदायिक अनुष्ठान होता है जिसमें पूरे समुदाय की भागीदारी होती है। यह न केवल वास्तुकला का हिस्सा है, बल्कि समुदायिक एकता और सहयोग का भी प्रतीक है।

टाटा सोम्बा घरों का निर्माण पर्यावरणीय संतुलन को ध्यान में रखकर किया गया है। मोटी दीवारें और फ्लैट छत प्राकृतिक इन्सुलेशन प्रदान करती हैं, जिससे कृत्रिम साधनों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन घरों के आसपास वर्षा जल संचयन की तकनीकों का उपयोग किया जाता है, जो जल संरक्षण में सहायक है। स्थानीय संसाधनों और पारंपरिक तकनीकों का उपयोग पर्यावरणीय प्रभाव को न्यूनतम करता है। इन घरों का डिजाइन और निर्माण आधुनिक स्थायी वास्तुकला के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

आज के समय में टाटा सोम्बा घरों की प्रासंगिकता कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पर्यटन और सांस्कृतिक संरक्षण के प्रयास इन घरों को संरक्षित करने में सहायक हैं। इनके वास्तुशिल्प सिद्धांतों को शहरी आवास में शामिल करने की कोशिशें की जा रही हैं। कार्यशालाओं और प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से पारंपरिक निर्माण तकनीकों को संरक्षित और प्रचारित किया जा रहा है। इन प्रयासों से न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है, बल्कि पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर को भी संरक्षित किया जा सकता है।

टाटा सोम्बा घरों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। शहरीकरण और आधुनिक निर्माण विधियों के कारण इनकी उपेक्षा हो रही है। नई पीढ़ी पारंपरिक निर्माण की महत्ता को कम आंकती है। इसके अलावा, प्राकृतिक आपदाएं और पर्यावरणीय बदलाव इन घरों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं। संरक्षण के लिए स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। यूनेस्को और अन्य संस्थानों द्वारा जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। स्थानीय कारीगरों और समुदाय की भागीदारी से इन घरों को संरक्षित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

टाटा सोम्बा घर और भारतीय मिट्टी के घरों में कई समानताएं और भिन्नताएं हैं। दोनों में प्राकृतिक सामग्री का उपयोग होता है और दोनों का सांस्कृतिक महत्व है। हालांकि, टाटा सोम्बा घर बहुमंजिला किले जैसे होते हैं, जबकि भारतीय मिट्टी के घर अक्सर एक मंजिला होते हैं। टाटा सोम्बा घर अपनी अनूठी वास्तुकला, सांस्कृतिक महत्व और पर्यावरणीय प्रासंगिकता के कारण विश्व स्तर पर अद्वितीय हैं। जैसा कि इंजिनियर देवेंद्र पुरी गोस्वामी बताते हैं कि, "प्राकृतिक संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान का सही उपयोग ही टिकाऊ भविष्य का आधार है।" ये घर हमें सामुदायिक एकता, स्थायी विकास और पर्यावरण संरक्षण के महत्वपूर्ण सबक सिखाते हैं। टाटा सोम्बा घर केवल अतीत की धरोहर नहीं हैं, बल्कि यह भविष्य के लिए एक मार्गदर्शन भी हैं। इनसे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि आधुनिकता के साथ-साथ अपनी जड़ों को संजोकर रखना कितना आवश्यक है।

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सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

पारिजात (हरसिंगार) : एक औषधीय पौधा

पारिजात का फूल 
        विश्व के नामी फूलों की भारतीय धरोहर में, हरसिंगार का विशेष स्थान है। यह एक अद्वितीय फूल है जो अपनी सुंदरता, आरोग्यदायी गुणों और रहस्यमयता के लिए प्रसिद्ध है। हरसिंगार को विभिन्न नामों से जाना जाता है - पारिजात, प्राजक्ता, शेफाली, शिउली, पार्दक, पगडमल्लै, मज्जपु, पविझमल्लि, गुलजाफरी, नाइट जेस्मिन और सिंघार इत्यादि। शास्त्रों में इसे 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है, इसीलिए इस पौधे का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है।यह एक सुंदर और मनमोहक सुगंध वाले फूल के साथ-साथ कई आयुर्वेदिक औषधीय गुणों से भरपूर है।

हरसिंगार के फूल सफ़ेद रंग के होते हैं और इनमें नारंगी रंग का तना होता है। इन फूलों में पांच से सात पंखुड़ियां होती हैं। यह फूल रात के समय खिलने के लिए प्रसिद्ध है, जिसके कारण इसे 'निशागंधा' भी कहा जाता है। हरसिंगार के पौधों का उनकी पत्तियों के साथ विशेष संबंध है, जो रात्रि के समय फूलों के साथ खुलती हैं और सूर्योदय के साथ ही मुरझाने लगती है। इस प्रक्रिया के कारण इसे लोग अधिक पसंद करते हैं। चलिए, हम इसके रहस्यों से उजागर करने के लिए इस फूल को जानने निकलते हैं और उसके विस्तार से अध्ययन करते हैं।

इसका वानस्पतिक नाम 'निक्टेन्थिस आर्बोर्ट्रिस्टिस' है। है, और यह भारत के उत्तरी भागों, जैसे कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, एवं पूर्वी भारत में पाया जाता है। इसके अलावा, बांग्लादेश, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस आदि देशों में भी हरसिंगार की खेती की जाती है। जनश्रुति के अनुसार इसकी उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई थी। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक हरसिंगार का पौधा भी है। यह पौधा देवताओं को मिला था। जिसे इंद्र ने अपनी वाटिका में लगाया था। मान्यता के अनुसार नरकासुर के वध के पश्चात इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण को हरसिंगार के पुष्प भेंट किये थे, जिसे उन्होंने देवी रुक्मिणी को भेंट किया था।

समुद्र मंथन

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पौधे की चाह में सत्यभामा ने हठ किया, जिसके फल स्वरूप भगवान श्री कृष्ण जब हरसिंगार का पेड़ इंद्र देव से युद्ध में जीत कर स्वर्ग से धरती पर लेकर आ रहे थे तब देवराज इंद्र ने क्रोध में आकर पेड़ को श्राप दे दिया। माना जाता है कि इसी श्राप की वजह से हरसिंगार के फूल सिर्फ रात में ही खिलते हैं और इस पर फल भी कभी नही आते। हरसिंगार के पौधे में फूल आने का समय बारिश के बाद अगस्त माह से सर्दियों में दिसंबर माह तक होता है। केवल हरसिंगार ही एक ऐसा पौधा है जिसके पुष्प जमीन पर गिरे हुए होने के बाद ही भगवान को स्वीकार होते है। हरसिंगार के पुष्प गोधूलि बेला के बाद खिलते हैं जो प्रातः स्वयं ही पौधे से झड़ जाते हैं।

हरसिंगारअपने फूलों की मनमोहक खुशबू और आकर्षक रंग के कारण लोकप्रिय है। पूजा में उपयोग के साथ कई शारीरिक व्याधियों को दूर करने में उपयोगी है। इसके पत्ते, फूल और छाल का सभी का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसकी छाल बहुत कठोर होती है जो परतदार और भूरे रंग की दिखती है। इसका वृक्ष 10 से 15 फीट ऊँचा होता है। लेकिन इसे 12 से 14 इंच के गमले में भी आसानी से लगाया जा सकता है। हरसिंगार का पौधा छोटे या बड़े दोनों रूपों में विकसित हो सकता है। वसंत ऋतु हरसिंगार के पौधे को लगाने का सबसे बेहतर समय है। पौधे को घर, मंदिर या पार्क में लगाया जा सकता हैं। छत या बालकनी में जहाँ पर्याप्त धूप पौधे को मिल सके वहाँ इसे गमले में भी लगा सकते है। हरसिंगार के पौधे को सर्दियों के मौसम में लगाने से बचे।

पारिजात का पौधा 
     हरसिंगार का पौधा नर्सरी से लाकर या बीज से या कलम विधि से तैयार करके लगा सकते है। गमले में पौधा लगाने के लिए पौधे के आकार के अनुसार गमले का चुनाव करें। साथ ही यह भी सुनिश्चित करे की गमले से अतिरिक्त पानी निकलने की उचित व्यवस्था भी हो। गमले में पौधा लगाने के लिए 25% गॉर्डन की सूखी मिट्टी, 25% बलुई मिट्टी, 25% जैविक खाद, 15% छोटे आकार वाले ईट-मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और 10% सरसों व नीम की खली को मिला कर मुलायम और भुरभुरी मिट्टी तैयार करके पौधा लगाना चाहिए। इसकी पौध के लिए चिकनी और कठोर मिट्टी का उपयोग न करें इससे पौधे मर जाते हैं। इसके बीज अंकुरित करने के लिए सीडलिंग ट्रे में 50-50% की मात्रा में मिट्टी और खाद अच्छी तरह से मिलाकर ट्रे भर दें। बीज को 2 सेमी गहराई बनाकर रखें। हल्की नमी बनाएं रखें। आंशिक धूप-छाया में रखें।

उगाने के बाद हरसिंगार के पौधे को दिन की  5 से 6 घंटे की धूप में रखें। समय-समय पर गोबर की खाद, मिट्टी की गुड़ाई करके, गमले में डाले, उसे ऊपर मिट्टी से ढक दें। मिट्टी सुखने से पहले गुड़ाई करें फिर पानी अवश्य दें। पौधे को घना करने के लिए समय समय पर 15 से 20 दिनों के अंतर में बसंत से जुलाई तक हल्की छंटाई करते रहिए। गर्मियो के दिन में 2 से 3 बार गमले में पानी डालें। सर्दियों में इस पौधे को नियमित रूप से पानी देने से बचें। पौधे को धूप में रखें और ठंडी हवा से बचाये।

पारिजात की पत्तियाँ
हरसिंगार का पौधा जलन-रोधी, सूजन-रोधी, एंटीऑक्सीडेंट तथा जीवाणु-रोधी गुणों से भरपूर होता है। इसके पत्तियों का रस कड़वा होता है और टॉनिक के रूप में काम करता है। इनका उपयोग बुखार, सर्दी-खांसी, कृमि-संक्रमण, अस्थमा आदि के इलाज के लिए किया जाता है। पत्तियो का काढ़ा पीने से कब्ज, कृमि-संक्रमण, गठिया के दर्द से आराम मिलता है। आप इसके फूल का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। हरसिंगार के पत्ते का पानी सूजन-दर्द, घावों, पेट के कीड़ों से राहत दिलाता है। इसका प्रयोग समस्या से राहत मिलने तक लगातार करते रहना चाहिए

मंगलवार के दिन हरसिंगार के पौधे को हनुमान जी के मंदिर के पास, किसी नदी के पास या सामाजिक स्थल पर लगाने से स्वर्ण दान के समान पुण्य प्राप्त होता है। हरसिंगार के पौधे को किसी शुभ मुहूर्त पर अपने घर के उत्तर दिशा या पूर्व दिशा में लगाएं, नियमित रूप से उसकी देखभाल करें। ऐसा करने से घर के सभी वास्तु दोष दूर होते है। देवी लक्ष्मी और श्री हरि को इसके फूल अति प्रिय है। जहाँ भी यह पौधा लगा होता है वहां माँ लक्ष्मी का वास माना जाता है।



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