शहरी आकर्षण में पलायन |
शहरी संस्कृति में उभरते नव संस्कार -
संस्कार, किसी भी समाज की नींव होते हैं, जिनसे सामाजिक संतुलन और मानवता कायम रहती है। परंतु शहरी जीवन की आपाधापी और आधुनिकता की दौड़ में, पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों का ह्रास हो रहा है। बच्चों को संस्कारों और परंपराओं की शिक्षा देने के लिए जिस समय और ध्यान की आवश्यकता होती है, वो अक्सर व्यस्तता के कारण नहीं मिल पाता। माता-पिता कामकाजी होते हैं और बच्चों की परवरिश में अक्सर आधुनिक सुविधाओं और शिक्षा के प्रति अधिक ध्यान देते हैं, जबकि मूल्य और संस्कार अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। डिजिटल दुनिया में बच्चों की व्यस्तता ने भी पारिवारिक समय और संस्कारों की शिक्षा को पीछे छोड़ दिया है।
संयुक्त परिवारों में, बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी जैसे बुजुर्गों से संस्कारों का सजीव उदाहरण मिलता था। लेकिन एकल परिवारों में यह पहलू सीमित हो गया है। संयुक्त परिवारों की कमी से बच्चों का उनके बुजुर्गों के साथ संपर्क कम हो गया है, जो कि संस्कारों के अभाव का एक प्रमुख कारण है। शहरीकरण के साथ ही एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है। लोग अपने करियर और निजी जीवन में अधिक स्वतंत्रता चाहते हैं। आज का युवा वर्ग स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है और घर के कामों में बुजुर्गों की मदद की जगह खुद सब कुछ संभालना पसंद करता है। ऐसे में, वे खुद को अपने बुजुर्ग माता-पिता से अलग रहने में ही सुखद और सुविधाजनक महसूस करते हैं। एकल परिवार में बच्चों का पालन-पोषण तो होता है, परंतु वे दादा-दादी से मिले अनुभवों और समझदारी से वंचित रह जाते हैं।
वहीं, एकल परिवारों में बच्चों की परवरिश करने वाले माता-पिता पर अत्यधिक दबाव भी होता है। अकेलेपन में बुजुर्गों का सहारा न होने के कारण, माता-पिता को बच्चों की देखभाल, करियर और घर की जिम्मेदारियों को अकेले संभालना पड़ता है। इन सबके बीच, वे स्वयं अपने बच्चों को पर्याप्त समय और संस्कार देने में असमर्थ हो जाते हैं। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का विशेष स्थान होता था। वे बच्चों के लिए सलाहकार और परिवार के लिए अनुभव का खज़ाना होते थे। परंतु एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने उनके जीवन में अलगाव और उपेक्षा की भावना भर दी है। अकेलेपन के कारण वे कई मानसिक और शारीरिक परेशानियों का सामना करने लगे हैं। समाज में वृद्धाश्रमों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, जो एक संकेत है कि कई परिवार अपने बुजुर्गों की देखभाल करने में असमर्थ हैं या तैयार नहीं हैं।
बुजुर्गों का स्वास्थ्य, विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य, आज बड़ी चुनौती बन गया है। अकेलापन, उपेक्षा, और दूसरों पर निर्भरता की भावना उन्हें अवसाद और अन्य मानसिक समस्याओं की ओर ले जाती है। इसके साथ ही, बुजुर्गों के पास अधिक समय होता है, परंतु उनके साथ बिताने के लिए युवा पीढ़ी के पास समय की कमी होती है। यह असंतुलन बुजुर्गों को परिवार में अलग-थलग महसूस कराता है।
शहरी जीवन की आपाधापी और व्यक्तिगत स्वार्थों को संतुलित कर के बुजुर्गों को फिर से सम्मान और सुरक्षा देने का प्रयास किया जा सकता है। सबसे पहले, यह ज़रूरी है कि परिवारों में बच्चों को संस्कारों और बुजुर्गों के प्रति आदर की भावना सिखाई जाए। माता-पिता को भी बच्चों के साथ बुजुर्गों का समय साझा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि बच्चे दादा-दादी या नाना-नानी से जीवन के अनुभवों और संस्कारों का लाभ उठा सकें।
सरकार और सामाजिक संस्थाओं को भी बुजुर्गों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करने चाहिए। वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ाने की बजाय, बुजुर्गों के लिए "Day care canters" जैसी योजनाएँ लागू की जा सकती हैं, जहाँ वे अपने जैसे लोगों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी समय बिता सकें और अपने साथियों के साथ कुछ वक्त बिताकर अकेलापन दूर कर सकें।
अंततः, समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे और अपने बुजुर्गों के प्रति समर्पण की भावना रखे, तभी हम एक संतुलित और संस्कारी समाज की कल्पना कर सकते हैं। एक ऐसा समाज जहाँ बुजुर्ग अपने अनुभवों से समाज को संवार सकें, बच्चों को संस्कार मिल सकें और सभी मिलकर एक पारिवारिक संतुलन बना सकें।
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