गर्मियों की छुट्टियाँ थीं। सूरज ढल चुका था और आंगन में ठंडी हवा बह रही थी। दादी अपनी आराम कुर्सी पर बैठी थीं, और उनके चारों ओर बच्चे गोल घेरा बनाए बैठे थे। चाँदनी रात में तारे टिमटिमा रहे थे, और दूर कहीं से मेंढकों की टर्र-टर्र सुनाई दे रही थी।
दादी ने मुस्कुराते हुए कहा, "बच्चों, आज मैं तुम्हें एक अनोखी मिठाई की कहानी सुनाऊंगी। यह सिर्फ मिठाई नहीं, बल्कि हमारी परंपरा और प्यार का स्वाद है। इसे कहते हैं - झजरिया! झजरिया हमारे राजस्थान और मध्य प्रदेश की एक पारंपरिक मिठाई है, जो खासतौर पर तीज जैसे त्योहारों पर बनाई जाती है। तीज का त्योहार बारिश के मौसम के आगमन का प्रतीक है, और ऐसे समय में झजरिया बनाना हमारी परंपरा का हिस्सा है। यह मिठाई न केवल स्वादिष्ट है, बल्कि हमारे कृषि विरासत का भी प्रतीक है, क्योंकि इसमें ताज़ा मकई का इस्तेमाल किया जाता है, जो हमारे खेतों की उपज है।"
बच्चों की आँखों में जिज्ञासा चमक उठी। "दादी, यह झजरिया क्या होता है?" छोटे राहुल ने पूछा।
दादी ने हँसते हुए कहा, "बहुत साल पहले, जब मैं छोटी थी, हमारे खेतों में मकई के भुट्टे खूब होते थे। बारिश की पहली फुहार के साथ खेतों में हरियाली छा जाती थी। तब तुम्हारी परनानी ताज़े भुट्टों से झजरिया बनाया करती थीं। वे भुट्टों को कद्दूकस करके देसी घी में धीरे-धीरे भूनतीं। घी में भुट्टे के कण धीरे-धीरे सुनहरे होते जाते थे, और उनकी महक पूरे घर में फैल जाती थी। फिर दूध डालकर उसे गाढ़ा होने तक पकाया जाता था, और अंत में गुड़ या शक्कर मिलाकर इलायची और मेवों से सजाया जाता था।"
"फिर इसे बनाया कैसे जाता था, दादी?" सबसे बड़ी पोती, नीला ने उत्सुकता से पूछा।
दादी ने ठहरकर कहा, "अच्छा, तो ध्यान से सुनो... सबसे पहले ताज़े भुट्टों को कद्दूकस किया जाता था। फिर एक कढ़ाई में देसी घी गरम कर उसमें कद्दूकस किया हुआ भुट्टा डाला जाता था और मध्यम आँच पर भूना जाता था। जब भुट्टा हल्का सुनहरा हो जाता, तो उसमें दूध डालकर धीमी आँच पर पकाया जाता था। जब दूध गाढ़ा हो जाता, तो उसमें गुड़ या शक्कर मिलाई जाती थी। ऊपर से इलायची पाउडर और कटे हुए मेवे डालकर इसे और स्वादिष्ट बनाया जाता था। जब झझरिया हलवे जैसा गाढ़ा हो जाता, तब इसे गरमा-गरम परोसा जाता था।"
बच्चों के मुँह में पानी आ गया। "वाह दादी! इसका स्वाद तो बहुत मज़ेदार होगा! लेकिन इसे कब बनाया जाता था?" मीनू ने पूछा।
दादी बोलीं, "हम इसे खास मौकों पर बनाते थे। बारिश के मौसम में, तीज-त्योहारों पर, और जब घर में कोई अच्छा काम होता था, तब झजरिया बनाया जाता था। यह बहुत सेहतमंद भी होता था, इसलिए बड़े-बुजुर्ग भी इसे बहुत पसंद करते थे।"
बच्चों ने चहकते हुए कहा, "दादी, अब हमें झजरिया कहाँ मिलेगा? हम भी खाना चाहते हैं!"
दादी ने हँसते हुए कहा, "अब तो यह मिठाई बहुत कम देखने को मिलती है। लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ पारंपरिक भोजनालयों में इसे बनाया जाता है। गाँव के मेलों में भी इसे बेचा जाता है। मगर क्यों न हम इसे खुद बनाएं? इससे हम न केवल इस मिठाई का स्वाद चखेंगे, बल्कि हमारी परंपरा को भी जिंदा रखेंगे।"
बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहा। "हाँ! चलो झजरिया बनाते हैं!" वे सब खुशी से चिल्लाए।
दादी मुस्कुराईं और बोलीं, "बच्चों, झजरिया सिर्फ एक मिठाई नहीं, यह हमारे परिवार की परंपरा, हमारे प्यार और सादगी की मिठास है। यह हमें सिखाती है कि हर छोटी चीज़ में भी आनंद छुपा होता है। अब जब तुम बड़े हो जाओगे, तो इसे अपने बच्चों को भी सिखाना।"
बच्चों ने खुशी-खुशी सिर हिलाया। "ज़रूर, दादी! अब हम भी झजरिया बनाएंगे और अपने दोस्तों को भी खिलाएंगे!"
चाँदनी रात में दादी की मीठी कहानी और झजरिया की मिठास ने बच्चों के दिलों में एक खास जगह बना ली। उन्होंने समझा कि झजरिया सिर्फ एक मिठाई नहीं, बल्कि उनकी परंपरा, प्यार और सादगी की मिठास है। यह उन्हें सिखाती है कि हर छोटी चीज़ में भी आनंद छुपा होता है, और यह आनंद पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।
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