कंबाला भैंसों की एक साहसिक दौड़ प्रतियोगिता है जो तटीय कर्नाटक जिलों में लोकप्रिय है। 'कंबाला' को हिंदी में 'भैंसों की दौड़ या भैंसेगाड़ी की दौड़' कह सकते हैं। इसमें कीचड़ भरे मैदान में भैंस दौड़ती हैं। कंबाला ग्रामीणों के लिए एक शानदार खेल और मनोरंजन कार्यक्रम है और पर्यटकों और फोटोग्राफरों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। यह दौड़ कीचड़ से भरे दो समानांतर ट्रैक पर होने वाली रोमांचक दौड़ होती है। इस कार्यक्रम के दौरान राज्य की राजधानी में 'संपूर्ण तटीय कर्नाटक संस्कृति’ की झलक देखने को मिलती है। यह दौड़ कर्नाटक की 700 वर्षों से अधिक पुरानी सांस्कृतिक धरोहर है। कंबाला कार्यक्रम धान की कटाई के बाद शुरू होते हैं, जो आमतौर पर अक्टूबर के महीने में होता है। नवंबर से मार्च के बीच तुलुनाडु (कर्नाटक के दक्षिणी जिलों में जो तुलु भाषी क्षेत्र हैं) के विभिन्न हिस्सों में कंबाला कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। तटीय कर्नाटक के 45 से अधिक विभिन्न गाँव हर साल कंबाला दौड़ मनाते हैं। कुछ लोकप्रिय स्थलों में फ़्रेम मैंगलोर, मूडुबिदिरे, पुत्तूर, कक्केपाडावु, कुलुरु, सुरथकल, उप्पिनंगडी, दोस्त आदि प्रमुख हैं। इस आयोजन में प्रतिवर्ष 2 से 3 लाख आगंतुक आते हैं।
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कंबाला महोत्सव में भैंसों की दौड़ (छवि स्रोत-भारतीय पर्यटन मंत्रालय)
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इस क्षेत्र में भैंसों के मालिक और किसान अपनी भैंसों का बहुत ख्याल रखते हैं और उनमें से सबसे अच्छी भैंसों को कंबाला में दौड़ के लिए अच्छी तरह से खिला-पिलाकर सेवा करते हैं; उन्हें सजाने के लिए उनके शरीर और सींगों पर तेल लगाते हैं। उनके पालन-पोषण का विशेष ख्याल रखते हैं। भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि कंबाला भैंसों को नुकसान न पहुँचाया जाए, उन्हें किसी प्रकार से प्रताड़ित न किया जाए या उनके साथ बुरा व्यवहार न किया जाए।
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साभार - नवभारत टाइम्स |
कंबाला दौड़ में भैंसों को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति को धावक (जॉकी) कहते हैं। धावक वह व्यक्ति होता है जो भैंसों के साथ दौड़ता है। इन भैंसों को दौड़ के समय नियंत्रित करना कोई आसान कार्य नहीं है, इसे केवल एथलेटिक युवा ही भैंस जैसे विशाल जानवर को संभालने का जज़्बा रखते हैं। धावकों भैंसों को दौड़ाते समय लकड़ी के तख्ते पर खड़े होते हैं जिसे 'हलेज' के नाम से जाना जाता है, यह दोनों भैंसों को एक साथ बाँधें रखने वाले सेटअप से जुड़ा होता है जिसे 'नेगिलू' कहा जाता है। नेगिलू के लिए हलेज आधार होता है। दोनों एक दूसरे से जुड़े होते हैं। कंबाला धावक भैंसों को चाबुक या रस्सियों से नियंत्रित करता है। दौड़ के दौरान धावक जितना संभव हो सके भैंसों को दौड़ाकर कीचड़ युक्त पानी उड़ाता चलता है, जिससे दर्शकों को दौड़ देखने में मनोरंजन और आनंद की अनुभूति होती है।
कंबाला स्थल सैकड़ों भैंसों और उनकी देखभाल करने वाली टीमों का घर होता है, ठीक उसी तरह जैसे गाड़ियों की दौड़ में रेसिंग कार और उनके चालक दल होते हैं। भैंसों की दो टीमें अपने धावक के साथ दो समानांतर रेस गलियारों में फिनिश लाइन की ओर दौड़ती हैं। यह दौड़ पूरे दिन चलती है और विजेता अगले राउंड के लिए सागल होते रहते हैं। सबसे पहले फिनिश लाइन पर पहुंचने के अलावा, ऊपर दिए गए लक्ष्य तक पानी उड़ाने के लिए भी पुरस्कार दिए जाते हैं जिसे 'कोलू' के नाम से जाना जाता है। कंबाला भैंस दौड़ प्रतियोगिता के दौरान भैंसों को आमतौर पर जोड़े में ही दौड़ाया जाता है, जिन्हें हल और रस्सियों से एक साथ बाँधा जाता है। कंबाला दौड़ की लंबाई लगभग 150 मीटर की होती है। जिसे अच्छी भैंसें 12 सेकंड से भी कम समय में यह दौड़ पूरी कर पाती हैं।
यदि आप भी कंबाला का कार्यक्रम देखने के शौकीन हैं तो स्थानीय मीडिया और कुछ निजी वेबसाइटों पर से इसकी जानकारी पढ़ सकते हैं। अगर आपको सर्दियों और गर्मियों के महीनों में कर्नाटक के तटीय शहरों जैसे मंगलुरु, उडुपी, मूडाबिदिरे में जाने का अवसर मिले, तो आप अपने स्थानीय मेज़बान अथवा होटल के कर्मचारी से निकटतम या अगले कंबाला कार्यक्रम के बारे में अवश्य पूछें इससे आपको अपने नजदीकी कंबाला दौड़ तक पहुँचने में मदद मिलेगी, जहाँ आप दौड़ का आनंद ले सकेंगे। अधिकतर कंबाला कार्यक्रम मुफ़्त होते हैं और कई घंटों अथवा रात भर चलते हैं।