भारत में शादियों और उत्सवों का मौसम शुरू होते ही प्लास्टिक डिस्पोजेबल बर्तनों का बड़े पैमाने पर उपयोग देखा जाता है। यह आधुनिक जीवनशैली का एक हिस्सा बन चुका है, लेकिन इसके कारण हमारे पर्यावरण, स्वास्थ्य और संस्कृति पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में, परंपरागत देशी पत्तल और मिट्टी के कुल्हड़ों का उपयोग पुनः आरंभ करना न केवल एक सरल समाधान है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और संस्कृति के पुनरुत्थान का भी प्रतीक है।
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कमल, केला और पलास के पत्तल पर भोजन |
भारत में पत्तलों का उपयोग सदियों से होता आ रहा है। प्राचीन समय में भोजनों को पत्तलों पर परोसने की परंपरा न केवल पर्यावरण के अनुकूल थी, बल्कि इसका स्वास्थ्यवर्धक महत्व भी था। पत्तलों को बनाने में विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की पत्तियों का उपयोग किया जाता था। इनका उपयोग पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद लाभकारी है।
उदाहरण के लिए:
- वटवृक्ष और पलाश की पत्तियाँ: पलाश की पत्तियों पर भोजन करना स्वर्ण के बर्तनों में भोजन करने जैसा पुण्य और स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है।
- केले की पत्तियाँ: केले के पत्तलों पर भोजन करने से चांदी के बर्तनों के उपयोग का अनुभव मिलता है।
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कुल्हड़ वाली चाय |
पर्यावरण संरक्षण में योगदान:
- कचरे का प्रबंधन: प्लास्टिक के बर्तनों की सफाई में उपयोग होने वाले रसायन और पानी नदियों और अन्य जल स्रोतों को प्रदूषित करते हैं। इसके विपरीत, पत्तल और कुल्हड़ मिट्टी में आसानी से नष्ट होकर खाद का निर्माण करते हैं।
- पानी की बचत: इनका उपयोग करने के बाद धोने की आवश्यकता नहीं होती, जिससे पानी की बड़ी मात्रा बचाई जा सकती है।
- वृक्षारोपण का प्रोत्साहन: पत्तल बनाने के लिए अधिक से अधिक वृक्षों की पत्तियों की आवश्यकता होगी, जिससे वृक्षारोपण को बढ़ावा मिलेगा और ऑक्सीजन उत्पादन में वृद्धि होगी।
प्रकृति, पर्यावरण, संस्कृति और परंपरा का संरक्षण: पत्तल और कुल्हड़ का उपयोग हमारी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है। यह केवल भोजन परोसने का साधन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है।
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