मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

कला और संस्कृति

    
        कला और मानव जीवन का एक अटूट संबंध रहा है, कला का हमारे जीवन के हर पहलू पर गहराई तक प्रभाव पड़ता है। मानव को जब भी अवकाश मिला उसने अपनी भावनाओं को विभिन्न कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। यही कारण है कि कलाओं को हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्वीकार किया जाता है। इनके अध्ययन से पता चलता है कि 'कलाएँ मानव की पहचान ही नहीं बल्कि वे हमारे विचारों, भावनाओं, और अनुभवों को साझा करने की क्षमता रखती हैं।' कला का उद्गम मानव उत्पत्ति और विकास के साथ जुड़ा है। ये हमें हमारे पूर्वजों की सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और धार्मिक समृद्धि और साहस का संदेश सुनाती है। आधुनिक काल में, कलाएँ न केवल विचारशीलता को प्रोत्साहित करती है, बल्कि वह सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय को भी प्रेरित करती है। 

यह लेख 'कला और मानव जीवन' के बारे में है, जिसका उद्देश्य है इस महत्वपूर्ण और गहराई से जुड़े संबंध को समझाना। इस लेख में, हम देखेंगे कि कला कैसे मानव जीवन की समृद्धि, समाजिक संबंध, और सामूहिक अभिवृद्धि की दिशा में नेतृत्व करती है। हम इसे उदाहरणों के साथ समझेंगे और इसके उपयोग से कैसे हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है, इसका भी विश्लेषण किया जाएगा। इससे हमें कला के महत्व को समझने में मदद मिलेगी और इसके असीम गुणों का महत्व को समाझा जा सकेगा जो हमारे जीवन को समृद्ध और अर्थपूर्ण बनाते हैं।

"कला" एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ है - 'सृजनात्मक अभिव्यक्ति'। इसमें मानव के सोचने, अनुभव करने, और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के विभिन्न माध्यम हो सकते हैं। कला का उद्देश्य आमतौर पर जीवन के अनुभवों, विचारों, और भावनाओं को साझा करना होता है।

कला के उद्गम का संबंध मानव की प्राचीन सभ्यता से है, आदिम सभ्यताओं की संस्कृति और समाज में चित्रकला, मूर्तिकला, गायन, नृत्य, और अन्य कलाओं का महत्वपूर्ण योगदान था। इन कलाओं की विकास यात्रा का प्रारंभ  आदि मानव समुदायों की सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक आवश्यकताओं से हुआ। इन कलाओं के माध्यम से लोग अपनी भावनाओं को, धार्मिक और ऐतिहासिक कथाओं को, और सामाजिक संदेशों को साझा करते थे।  अपनी विकास यात्रा में कलाएं कई रूपों में प्रकट हुई। आधुनिक कला भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत होती है, जैसे कि चित्रकला, मूर्तिकला, छायाचित्र, चलचित्र, संगीत, नृत्य और नाटक आदि। आज कला न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक संदेश का वाहक भी है। इसका विकास धीरे-धीरे लगातार हुआ है और इसमें विभिन्न क्षेत्रों का प्रभाव है। इस विकास यात्रा को हम तीन मुख्य भागों में बाँट सकते हैं।  

सिंधु सभ्यता कालीन मूर्तिकला 
  • प्राचीन काल: यह उद्गम काल था। प्राचीन मानव समुदायों में, कला धार्मिक और सामाजिक आयोजनों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। मानव की आदिम जीवन शैली में उसकी संस्कृति और धर्म के साथ-साथ कलाओं का उद्गम हुआ था। प्राचीन काल के कलाकार अपनी पहचान जताने के लिए विभिन्न रूपों में विभिन्न आकृतियों, ध्वनियों, नृत्य, संगीत, भित्तिचित्र अथवा मूर्तियों आदि का उपयोग करते थे। इस प्रकार विभिन्न समुदायों और समाज में अपनी-अपनी कलाओं का विकास किया। 
ताजमहल - मध्ययुगीन कला का नमूना 
  • मध्य काल: कलाओं के विकास की दृष्टि से मध्ययुग काल को संचरण काल कहा जा सकता है।  इसमें भारतीय और पश्चिमी कलाओं का मिश्रित विकास हुआ। राजाश्रय में कला और कलाकारों को विकास के अच्छे अवसर मिले। यह काल दृश्य और दृक्-श्रव्य कलाओं के विकास का स्वर्णिमकाल रहा। इस काल में चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, पाक-कला, साहित्य, संगीत, नृत्य और रंगमंच के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ। 
फिल्मांकन - आधुनिक कला का नमूना 
  • आधुनिक काल: आधुनिक काल में भी कला के क्षेत्र में निरंतर विकास होता रहा है। उन्नत तकनीक, प्रचार-प्रसार के नए माध्यमों का प्रयोग और नित नवीन सामाजिक परिवर्तनों ने कला विकास के क्ष्रेत्र को नई दिशा प्रदान की। आधुनिक कला अब बहु-आयामी हो गई है, जिसमें पुरातन कलाओं के साथ छायांकन और फिल्मांकन (चलचित्र) जैसी नवीन तकनीकी कलाएं भी शामिल हुई हैं। कला का विकास न केवल समाज की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को प्रतिबिम्बित करता है, बल्कि यह मानवता के उत्थान-पतन, धारणा और अवधारणाओं के साथ संबंधित है।

कला के प्रकार 

दृश्य कला और श्रव्य कला दोनों ही कलाओं के विभाग होते हैं, लेकिन उनमें अंतर होता है। यहां इस अंतर को समझाया गया है:-

  1. दृश्य कला (Visual Arts): दृश्य कला उन कलाओं को कहते हैं जो देखने में सुख देती हैं। इसमें  चित्रकारी, रेखांकन, मूर्ति बनाना, छायाचित्र खींचना, फिल्म-बनाना आदि शामिल होते हैं। इसमें कलाकार रंग, रूप, आकार, और संरचना के माध्यम से अपने विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। इनमें सांस्कृतिक, सामाजिक, या नैतिक संदेश भी छुपे होते हैं जो दर्शकों को समझाने का काम करते हैं।
  2. श्रव्य (प्रदर्शन) कला (Performing Arts): श्रव्य कला वह कलाएं हैं जो सुनने और देखने में आनंद देती हैं, जैसे - संगीत कला, नृत्यकला, नाट्य-कला, काव्य-कला आदि। इसमें कलाकार अपने शरीर, आवाज, और अभिनय के माध्यम से कहानी को सामने लाते हैं और दर्शकों को एक अनुभव प्रदान करते हैं। इसमें समय, स्थान, और दृश्य का प्रयोग किया जाता है जो जीवंत या रिकॉर्डेड रूप में हो सकता है।

सार्वजनिक रूप से, दृश्य कला और श्रव्य कला दोनों का महत्व बहुत है। ये कलाएँ मानव समाज में संवेदनशीलता, समाजिक समर्थन, और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देती हैं। दृश्य कला रंग, रूप, और स्वरूप की भावना को अभिव्यक्त करती है। यह चित्रकला, नक्शा, आदि के माध्यम से किया जा सकता है। बच्चों को वाणिज्यिक कला के माध्यम से उनकी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता मिलती है, जिससे उनका सोचने का तरीका विकसित होता है।

  • संगीत कला (Musical Arts):

संगीत कला के अंतर्गत किसी गीत या कविता आदि को गाना ही गायन कहलाया जाता है। इसके लिए किसी गायक गायिका की आवश्यकता पड़ती है, जो गीत के शब्दों को अपने मुख के माध्यम से उच्चारित कर गायन करता है। गायन भाषा की सीमा से बंधा होता है। गायन में किसी गीत कविता को गाया जाता है, जो कि किसी भी भाषा में हो सकती है। जबकि वादन वाद्य यंत्रों की सहायता से प्रस्तुत किया जाता है। वादन के लिए व्यक्ति को संबंधित वाद्य यंत्र बजाने में निपुण होना चाहिए। एक साथ कई वाद्ययंत्रों को बजाना ही वादन कहलाता है। वादन भाषा की सीमा से नहीं बना होता। वाद्य यंत्रों द्वारा उत्पन्न ध्वनि-ताल को किसी भी भाषा का व्यक्ति समझ सकता है।

  • रंगमंच कला (Performing Arts):

रंगमंच कला एक जानकारी की अभिव्यक्ति है जो नृत्य, नाटक, और नाट्य के माध्यम से होती है। इसके माध्यम से, बच्चे अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं, साथ ही उनका आत्मविश्वास और संवेदनशीलता भी बढ़ता है।

  • साहित्यिक कला (Literary Arts):

साहित्यिक कला में शब्दों का उपयोग किया जाता है जैसे कि कविता, कहानी, निबंध, आदि। इसके माध्यम से, बच्चे विचारों को अभिव्यक्त करते हैं और भाषा कौशल को सुधारते हैं।

  • रचनात्मक कला (Creative Arts):

रचनात्मक कला विभिन्न कलाओं को मिलाकर एक नया काम बनाने में मदद करती है। इसमें अभिव्यक्ति की अनंत रूप और रचनात्मकता का महत्व है। यह विभिन्न प्रकार की कलात्मक गतिविधियों का वर्णन करता है जो बच्चों को विभिन्न माध्यमों में अपनी कल्पना, रचनात्मकता और विचारों को व्यक्त करने की अनुमति देता है।

अन्य अध्ययन सामग्री : - 

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

कंबाला महोत्सव : कृषक सांस्कृतिक उत्सव का संगम

कंबाला भैंसों की एक साहसिक दौड़ प्रतियोगिता है जो तटीय कर्नाटक जिलों में लोकप्रिय है। 'कंबाला' को हिंदी में 'भैंसों की दौड़ या भैंसेगाड़ी की दौड़' कह सकते हैं। इसमें कीचड़ भरे मैदान में भैंस दौड़ती हैं। कंबाला ग्रामीणों के लिए एक शानदार खेल और मनोरंजन कार्यक्रम है और पर्यटकों और फोटोग्राफरों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। यह दौड़ कीचड़ से भरे दो समानांतर ट्रैक पर होने वाली रोमांचक दौड़ होती है। इस कार्यक्रम के दौरान राज्य की राजधानी में 'संपूर्ण तटीय कर्नाटक संस्कृति’ की झलक देखने को मिलती है। यह दौड़ कर्नाटक की 700 वर्षों से अधिक पुरानी सांस्कृतिक धरोहर है। कंबाला कार्यक्रम धान की कटाई के बाद शुरू होते हैं, जो आमतौर पर अक्टूबर के महीने में होता है। नवंबर से मार्च के बीच तुलुनाडु (कर्नाटक के दक्षिणी जिलों में जो तुलु भाषी क्षेत्र हैं) के विभिन्न हिस्सों में कंबाला कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। तटीय कर्नाटक के 45 से अधिक विभिन्न गाँव हर साल कंबाला दौड़ मनाते हैं। कुछ लोकप्रिय स्थलों में फ़्रेम मैंगलोर, मूडुबिदिरे, पुत्तूर, कक्केपाडावु, कुलुरु, सुरथकल, उप्पिनंगडी, दोस्त आदि प्रमुख हैं। इस आयोजन में प्रतिवर्ष 2 से 3 लाख आगंतुक आते हैं।

कंबाला महोत्सव में भैंसों की दौड़ (छवि स्रोत-भारतीय पर्यटन मंत्रालय) 

इस क्षेत्र में भैंसों के मालिक और किसान अपनी भैंसों का बहुत ख्याल रखते हैं और उनमें से सबसे अच्छी भैंसों को कंबाला में दौड़ के लिए अच्छी तरह से खिला-पिलाकर सेवा करते हैं; उन्हें सजाने के लिए उनके शरीर और सींगों पर तेल लगाते हैं। उनके पालन-पोषण का विशेष ख्याल रखते हैं। भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि कंबाला भैंसों को नुकसान न पहुँचाया जाए, उन्हें किसी प्रकार से प्रताड़ित न किया जाए या उनके साथ बुरा व्यवहार न किया जाए। 

साभार - नवभारत टाइम्स
कंबाला दौड़ में भैंसों को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति को धावक (जॉकी) कहते हैं। धावक वह व्यक्ति होता है जो भैंसों के साथ दौड़ता है। इन भैंसों को दौड़ के समय नियंत्रित करना कोई आसान कार्य नहीं है, इसे केवल एथलेटिक युवा ही भैंस जैसे विशाल जानवर को संभालने का जज़्बा रखते हैं। धावकों भैंसों को दौड़ाते समय लकड़ी के तख्ते पर खड़े होते हैं जिसे 'हलेज' के नाम से जाना जाता है, यह दोनों भैंसों को एक साथ बाँधें रखने वाले सेटअप से जुड़ा होता है जिसे 'नेगिलू' कहा जाता है। नेगिलू के लिए हलेज आधार होता है। दोनों एक दूसरे से जुड़े होते हैं।  कंबाला धावक भैंसों को चाबुक या रस्सियों से नियंत्रित करता है। दौड़ के दौरान धावक जितना संभव हो सके भैंसों को दौड़ाकर कीचड़ युक्त पानी उड़ाता चलता है, जिससे दर्शकों को दौड़ देखने में मनोरंजन और आनंद की अनुभूति होती है। 

कंबाला स्थल सैकड़ों भैंसों और उनकी देखभाल करने वाली टीमों का घर होता है, ठीक उसी तरह जैसे गाड़ियों की दौड़ में रेसिंग कार और उनके चालक दल होते हैं। भैंसों की दो टीमें अपने धावक के साथ दो समानांतर रेस गलियारों में फिनिश लाइन की ओर दौड़ती हैं। यह दौड़ पूरे दिन चलती है और विजेता अगले राउंड के लिए सागल होते रहते हैं। सबसे पहले फिनिश लाइन पर पहुंचने के अलावा, ऊपर दिए गए लक्ष्य तक पानी उड़ाने के लिए भी पुरस्कार दिए जाते हैं जिसे 'कोलू' के नाम से जाना जाता है। कंबाला भैंस दौड़ प्रतियोगिता के दौरान भैंसों को आमतौर पर जोड़े में ही दौड़ाया जाता है, जिन्हें हल और रस्सियों से एक साथ बाँधा जाता है। कंबाला दौड़ की लंबाई लगभग 150 मीटर की होती है। जिसे अच्छी भैंसें 12 सेकंड से भी कम समय में यह दौड़ पूरी कर पाती हैं। 

यदि आप भी कंबाला का कार्यक्रम देखने के शौकीन हैं तो स्थानीय मीडिया और कुछ निजी वेबसाइटों पर से इसकी जानकारी पढ़ सकते हैं। अगर आपको सर्दियों और गर्मियों के महीनों में कर्नाटक के तटीय शहरों जैसे मंगलुरु, उडुपी, मूडाबिदिरे में जाने का अवसर मिले, तो आप अपने स्थानीय मेज़बान अथवा होटल के कर्मचारी से निकटतम या अगले कंबाला कार्यक्रम के बारे में अवश्य पूछें इससे आपको अपने नजदीकी कंबाला दौड़ तक पहुँचने में मदद मिलेगी, जहाँ आप दौड़ का आनंद ले सकेंगे। अधिकतर कंबाला कार्यक्रम मुफ़्त होते हैं और कई घंटों अथवा रात भर चलते हैं। 

पारिजात (हरसिंगार) : एक औषधीय पौधा

पारिजात का फूल 
        विश्व के नामी फूलों की भारतीय धरोहर में, हरसिंगार का विशेष स्थान है। यह एक अद्वितीय फूल है जो अपनी सुंदरता, आरोग्यदायी गुणों और रहस्यमयता के लिए प्रसिद्ध है। हरसिंगार को विभिन्न नामों से जाना जाता है - पारिजात, प्राजक्ता, शेफाली, शिउली, पार्दक, पगडमल्लै, मज्जपु, पविझमल्लि, गुलजाफरी, नाइट जेस्मिन और सिंघार इत्यादि। शास्त्रों में इसे 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है, इसीलिए इस पौधे का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है।यह एक सुंदर और मनमोहक सुगंध वाले फूल के साथ-साथ कई आयुर्वेदिक औषधीय गुणों से भरपूर है।

हरसिंगार के फूल सफ़ेद रंग के होते हैं और इनमें नारंगी रंग का तना होता है। इन फूलों में पांच से सात पंखुड़ियां होती हैं। यह फूल रात के समय खिलने के लिए प्रसिद्ध है, जिसके कारण इसे 'निशागंधा' भी कहा जाता है। हरसिंगार के पौधों का उनकी पत्तियों के साथ विशेष संबंध है, जो रात्रि के समय फूलों के साथ खुलती हैं और सूर्योदय के साथ ही मुरझाने लगती है। इस प्रक्रिया के कारण इसे लोग अधिक पसंद करते हैं। चलिए, हम इसके रहस्यों से उजागर करने के लिए इस फूल को जानने निकलते हैं और उसके विस्तार से अध्ययन करते हैं।

इसका वानस्पतिक नाम 'निक्टेन्थिस आर्बोर्ट्रिस्टिस' है। है, और यह भारत के उत्तरी भागों, जैसे कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, एवं पूर्वी भारत में पाया जाता है। इसके अलावा, बांग्लादेश, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस आदि देशों में भी हरसिंगार की खेती की जाती है। जनश्रुति के अनुसार इसकी उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई थी। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक हरसिंगार का पौधा भी है। यह पौधा देवताओं को मिला था। जिसे इंद्र ने अपनी वाटिका में लगाया था। मान्यता के अनुसार नरकासुर के वध के पश्चात इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण को हरसिंगार के पुष्प भेंट किये थे, जिसे उन्होंने देवी रुक्मिणी को भेंट किया था।

समुद्र मंथन

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पौधे की चाह में सत्यभामा ने हठ किया, जिसके फल स्वरूप भगवान श्री कृष्ण जब हरसिंगार का पेड़ इंद्र देव से युद्ध में जीत कर स्वर्ग से धरती पर लेकर आ रहे थे तब देवराज इंद्र ने क्रोध में आकर पेड़ को श्राप दे दिया। माना जाता है कि इसी श्राप की वजह से हरसिंगार के फूल सिर्फ रात में ही खिलते हैं और इस पर फल भी कभी नही आते। हरसिंगार के पौधे में फूल आने का समय बारिश के बाद अगस्त माह से सर्दियों में दिसंबर माह तक होता है। केवल हरसिंगार ही एक ऐसा पौधा है जिसके पुष्प जमीन पर गिरे हुए होने के बाद ही भगवान को स्वीकार होते है। हरसिंगार के पुष्प गोधूलि बेला के बाद खिलते हैं जो प्रातः स्वयं ही पौधे से झड़ जाते हैं।

हरसिंगारअपने फूलों की मनमोहक खुशबू और आकर्षक रंग के कारण लोकप्रिय है। पूजा में उपयोग के साथ कई शारीरिक व्याधियों को दूर करने में उपयोगी है। इसके पत्ते, फूल और छाल का सभी का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसकी छाल बहुत कठोर होती है जो परतदार और भूरे रंग की दिखती है। इसका वृक्ष 10 से 15 फीट ऊँचा होता है। लेकिन इसे 12 से 14 इंच के गमले में भी आसानी से लगाया जा सकता है। हरसिंगार का पौधा छोटे या बड़े दोनों रूपों में विकसित हो सकता है। वसंत ऋतु हरसिंगार के पौधे को लगाने का सबसे बेहतर समय है। पौधे को घर, मंदिर या पार्क में लगाया जा सकता हैं। छत या बालकनी में जहाँ पर्याप्त धूप पौधे को मिल सके वहाँ इसे गमले में भी लगा सकते है। हरसिंगार के पौधे को सर्दियों के मौसम में लगाने से बचे।

पारिजात का पौधा 
     हरसिंगार का पौधा नर्सरी से लाकर या बीज से या कलम विधि से तैयार करके लगा सकते है। गमले में पौधा लगाने के लिए पौधे के आकार के अनुसार गमले का चुनाव करें। साथ ही यह भी सुनिश्चित करे की गमले से अतिरिक्त पानी निकलने की उचित व्यवस्था भी हो। गमले में पौधा लगाने के लिए 25% गॉर्डन की सूखी मिट्टी, 25% बलुई मिट्टी, 25% जैविक खाद, 15% छोटे आकार वाले ईट-मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और 10% सरसों व नीम की खली को मिला कर मुलायम और भुरभुरी मिट्टी तैयार करके पौधा लगाना चाहिए। इसकी पौध के लिए चिकनी और कठोर मिट्टी का उपयोग न करें इससे पौधे मर जाते हैं। इसके बीज अंकुरित करने के लिए सीडलिंग ट्रे में 50-50% की मात्रा में मिट्टी और खाद अच्छी तरह से मिलाकर ट्रे भर दें। बीज को 2 सेमी गहराई बनाकर रखें। हल्की नमी बनाएं रखें। आंशिक धूप-छाया में रखें।

उगाने के बाद हरसिंगार के पौधे को दिन की  5 से 6 घंटे की धूप में रखें। समय-समय पर गोबर की खाद, मिट्टी की गुड़ाई करके, गमले में डाले, उसे ऊपर मिट्टी से ढक दें। मिट्टी सुखने से पहले गुड़ाई करें फिर पानी अवश्य दें। पौधे को घना करने के लिए समय समय पर 15 से 20 दिनों के अंतर में बसंत से जुलाई तक हल्की छंटाई करते रहिए। गर्मियो के दिन में 2 से 3 बार गमले में पानी डालें। सर्दियों में इस पौधे को नियमित रूप से पानी देने से बचें। पौधे को धूप में रखें और ठंडी हवा से बचाये।

पारिजात की पत्तियाँ
हरसिंगार का पौधा जलन-रोधी, सूजन-रोधी, एंटीऑक्सीडेंट तथा जीवाणु-रोधी गुणों से भरपूर होता है। इसके पत्तियों का रस कड़वा होता है और टॉनिक के रूप में काम करता है। इनका उपयोग बुखार, सर्दी-खांसी, कृमि-संक्रमण, अस्थमा आदि के इलाज के लिए किया जाता है। पत्तियो का काढ़ा पीने से कब्ज, कृमि-संक्रमण, गठिया के दर्द से आराम मिलता है। आप इसके फूल का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। हरसिंगार के पत्ते का पानी सूजन-दर्द, घावों, पेट के कीड़ों से राहत दिलाता है। इसका प्रयोग समस्या से राहत मिलने तक लगातार करते रहना चाहिए

मंगलवार के दिन हरसिंगार के पौधे को हनुमान जी के मंदिर के पास, किसी नदी के पास या सामाजिक स्थल पर लगाने से स्वर्ण दान के समान पुण्य प्राप्त होता है। हरसिंगार के पौधे को किसी शुभ मुहूर्त पर अपने घर के उत्तर दिशा या पूर्व दिशा में लगाएं, नियमित रूप से उसकी देखभाल करें। ऐसा करने से घर के सभी वास्तु दोष दूर होते है। देवी लक्ष्मी और श्री हरि को इसके फूल अति प्रिय है। जहाँ भी यह पौधा लगा होता है वहां माँ लक्ष्मी का वास माना जाता है।



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