शनिवार, 11 जनवरी 2025

सामूहिक भोज, भट्ठी पूजन की अनूठी परंपरा और आज

सामूहिक भोज की भट्ठी
        सामूहिक भोज भारतीय ग्रामीण संस्कृति का एक अनोखा और महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो सामुदायिक भावना और सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है। यह आयोजन आमतौर पर त्योहारों, धार्मिक अनुष्ठानों, विवाह समारोहों, या किसी विशेष अवसर पर किया जाता है। ग्रामीण परिवेश में यह आयोजन एक बड़े खुले स्थान पर होता है, जहाँ लोग पंक्तिबद्ध होकर भोजन करते हैं। भोज के लिए भोजन सामूहिक रूप से तैयार किया जाता है, जिसमें सभी ग्रामीण योगदान देते हैं, चाहे वह सामग्री, श्रम, या सेवा के रूप में हो। भोज में परोसे जाने वाले पारंपरिक व्यंजनों में पूड़ी, खीर, दाल, और अचार शामिल होते हैं। यह आयोजन न केवल लोगों को एकजुट करता है, बल्कि समाज में समानता, सहयोग, और सद्भाव की भावना को भी मजबूत करता है। सामूहिक भोज ग्रामीण जीवन की सरलता और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है।

        दीपावली से पहले, पर्व के व्यंजनों को मिल-जुलकर बनाने की अनूठी परम्परा का ज़िक्र इस आलेख में है, जहाँ पूरा मोहल्ला मिलकर व्यंजन बनाता था। हँसी-ठिठोली, गीतों की गूंज और व्यंजनों की महक, पर्व का माहौल तो ऐसा ही होना चाहिए। दशहरे का समापन होते ही घरों में दीपावली की तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं। बच्चों के कपड़े, जूते और घरेलू ज़रूरत की चीज़ें जो छूट गई होती थीं, वो लाई जाती थीं। न‌ए कपड़े देखकर तो हम फूले नहीं समाते थे क्योंकि दीपावली या जन्मदिन में ही न‌ए कपड़े ख़रीदने का चलन था। हालांकि, उस ज़माने में कपड़ों की इतनी अहमियत नहीं थी। बन ग‌ए तो ठीक वर्ना माँ शादी-ब्याह में मिले कपड़ों की थैली में से कपड़े निकालकर फ्राॅक या साड़ी का लहंगा-ब्लाउज़ सिल देतीं और हम ख़ुश हो जाते। मज़ा तो तब आता जब हमारे घर में भट्ठी पूजन होता।

        व्यंजन तो वही सदाबहार तय थे। बेसन का चूरमा, मोहनथाल, नमकीन सेव, मैदे की मठरी और गुड़ के मीठे-मीठे पारे। मेरे चाचा, मामा और फूफाजी सब आज़ादी के बाद नौकरी करने बीकानेर से जयपुर आ ग‌ए थे और सबको पास-पास छोटे-बड़े सरकारी मकान मिल ग‌ए थे। हाँ, तो बात थी ‘भट्ठी पूजन’ की, सो हर साल हमारे आंगन में ही होता था। चाची, मामी और बुआ अपना-अपना सामान (घी, तेल, बेसन, मैदा आदि) लेकर आ जाती थीं। उसके पहले ही माँ आँगन धोतीं, भट्ठी लगातीं, लकड़ी और कंडे से सजाकर घी की बत्ती रखती। प्रक्रिया समझें, तो आंगन में बड़ी ईंटों से चूल्हे बनाकर चिकनी मिट्टी से उन्हें पोतकर शुद्धता से लकड़ियां रखी जाती थीं। एक बड़ी-सी दरी बिछाई जाती और एक भट्ठी के पास बैठने वाले विशेषज्ञ के लिए ऊँचा पट्टा रखा जाता। सभी महिलाएँ सुबह का काम निपटाकर स्नान करके गोटे लगी केसरिया साड़ी पहनकर, बड़ी-सी बिंदिया और मांग में सिंदूर लगाकर आतीं तो वातावरण में एक नई ऊर्जा भर जाती। माँ सबका स्वागत कुमकुम की बिंदी और अक्षत लगाकर करती। आंगन ठहाकों से गूंज उठता था।

सब व्यवस्थित होने के बाद भट्ठी में स्वस्तिक बनाते, कलावा बाँधकर माँ चार आने का सिक्का रखतीं और सब महिलाएं अग्नि प्रज्वलित करते हुए गणेश जी के गीत गातीं -  

‘हमारे घर आवत हैं गणपति।  
जब दूंद दुंदाड़ो बाबो गणपति नाचै,
और नाचै रिद्धि-सिद्धि,  
हमारे घर आवत हैं गणपति।’

        हम बच्चे तालियाँ बजाकर संगत करते। अब बड़ी-सी कड़ाही चूल्हे पर रखी जाती और उसकी भी पूजा की जाती और सबसे पहले देसी घी डाला जाता और सबके द्वारा लाया गया बेसन डालकर धीमी-धीमी आँच पर सिंकाई होती तो ख़ुशबू सूँघकर चाचा, मामा भी आ जाते। गीत देवी जी, हनुमान जी सबके गाए जाते। फिर आदमियों की राय ली जाती कि बेसन की सिंकाई हुई या नहीं। दो महिलाओं द्वारा गर्म कड़ाही को कपड़े से पकड़कर नीचे रखा जाता। चाशनी बनती, मेवे डलते और सारी सामग्री तीन बड़ी परातों में बराबर-बराबर डाल दी जाती। चाँदी का वर्क लगाकर घंटे भर बाद मामी उसकी बराबर चक्कियाँ काटकर साफ़ कपड़े से ढककर अंदर रख आतीं।

दूसरे दिन भी यही सिलसिला चलता और सबके नमकीन भुजिये एक साथ छह किलो बेसन के बनाए जाते। तीन महिलाएँ कड़ाही पर रखी टिकटी (सेव बनाने का लोहे की जाली वाला सांचा) रखकर हाथ से सेव बनातीं। ऐसे ही आस-पास के घरों से पंद्रह दिन पहले से ही मोहल्ला व्यंजनों की महक से भरा रहता। मिल-जुलकर सारे काम होते। कोई कमी रह भी जाती तो आस-पड़ोस में कटोरी लेकर मांगने में भी संकोच नहीं होता था क्योंकि वहां लोग नहीं रिश्ते रहते थे।

घर में माँ, बाऊजी, बाबा, दादी और वहाँ  के लगभग हज़ार घरों में चाचा जी, ताऊजी, मासी, चाची, भैया, भाभी और भी कई रिश्ते रहते थे जो परिवार के ना होकर भी ख़ास लगते थे। साठ साल बाद आज भी उनमें से कुछ लोग अचानक मिलते हैं तो हम उनके बेटी-दामाद ही होते हैं और शगुन भी मिलता है। जब भी बड़े त्योहार आते हैं यादें स्वत: ही ताज़ा होने लगती हैं।

मूल लेखिका - सुशीला शर्मा

सहभोज और आधुनिक युग 

सहभोज और भट्ठी परंपरा Tooltip Example

निम्नलिखित शब्दों के अर्थ जानने के लिए उन पर कर्सर ले जाएँ:

सह-भोजन Communal meal , सामूहिक भोज Collective feast , सामुदायिक भावना Community spirit , पंक्तिबद्ध Arranged in rows , परंपरा Tradition , सांस्कृतिक समृद्धि Cultural richness , ठिठोली Playful teasing , गूंज Resonance , स्वागत Welcome , शुद्धता Purity , प्रज्वलित Ignited , संगत Accompaniment , सिंकाई Roasting , चाशनी Sugar syrup , मेवे Dry fruits , चक्कियाँ Sweets cut into pieces , भुजिये Savory snacks , सांचा Mold / stencil , महक Aroma , संकोच Hesitation , आस-पड़ोस Neighborhood , शगुन Auspicious gift , स्वत: Automatically , ताज़ा Fresh , मूल लेखिका Original author

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

हिंदी: एकता और सांस्कृतिक गौरव का वैश्विक स्वर (निबंध)

हिंदी भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, एकता और सांस्कृतिक गौरव का जीवंत प्रतीक है। इसकी जड़ें न केवल भारत के हृदय में गहराई तक समाई हैं, बल्कि वैश्विक मंच पर भी अपनी पहचान बना चुकी हैं। हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है और यह 70 करोड़ से अधिक लोगों की मातृभाषा है। इसे संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में स्थान दिलाने का अभियान इसका वैश्विक महत्व दर्शाता है।

हिंदी: एकता का आधार

हिंदी ने विविधताओं में एकता के सिद्धांत को साकार किया है। यह देश के कोने-कोने में संवाद और समन्वय का माध्यम बनी है। महात्मा गांधी ने कहा था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" यह कथन हिंदी के महत्व को उजागर करता है। भारत जैसे बहुभाषीय देश में हिंदी ने एक साझा भाषा के रूप में अलग-अलग क्षेत्रों, संस्कृतियों और भाषाओं के बीच सेतु का कार्य किया है। आज जब वैश्वीकरण के दौर में अनेक भाषाएँ विलुप्त हो रही हैं, हिंदी ने अपनी सशक्त उपस्थिति से न केवल भारतीय संस्कृति को संरक्षित किया है, बल्कि इसे वैश्विक पटल पर भी स्थापित किया है। हिंदी फिल्मों, साहित्य, योग और आयुर्वेद ने इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर लोकप्रिय बनाया है।

सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक

हिंदी भाषा भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक मूल्यों की संवाहक है। इसमें हमारी परंपराओं, रीति-रिवाजों, और जीवन के हर पहलू का समावेश है। तुलसीदास, सूरदास, प्रेमचंद, और महादेवी वर्मा जैसे रचनाकारों ने हिंदी साहित्य को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। इनके साहित्य में भारतीय जीवन दर्शन, मूल्य और सांस्कृतिक चेतना का प्रतिबिंब मिलता है। आधुनिक संदर्भ में भी, हिंदी न केवल साहित्य के क्षेत्र में, बल्कि डिजिटल युग में भी अपनी पहचान बना रही है। गूगल, फेसबुक, और अन्य डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स पर हिंदी सामग्री की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। हिंदी ब्लॉग्स, वेबसाइट्स, और यूट्यूब चैनल्स ने इसे एक नई पहचान दी है।

वैश्विक मंच पर हिंदी

आज प्रवासी भारतीयों के माध्यम से हिंदी भाषा विश्व के लगभग हर कोने में पहुँची है। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में हिंदी को सरकारी या शैक्षणिक भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह उन प्रवासी भारतीयों के लिए सांस्कृतिक पहचान का स्रोत है, जो अपने मूल देश से दूर हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार कहा था, "हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, यह भारतीयता की आत्मा है।" हिंदी दिवस के अवसर पर संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में हिंदी में दिए गए उनके भाषण ने इस भाषा की वैश्विक महत्ता को और भी बल दिया।

संभावनाएँ और चुनौतियाँ  

हालांकि, हिंदी के सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव और हिंदी भाषियों में अपनी भाषा के प्रति जागरूकता की कमी चिंता का विषय है। इसके बावजूद, हिंदी ने समय के साथ खुद को आधुनिक तकनीक और जरूरतों के अनुरूप ढाल लिया है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए यह आवश्यक है कि इसे रोजगार से जोड़ा जाए और नई पीढ़ी को इसके महत्व से अवगत कराया जाए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी शिक्षण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना और साहित्य, कला व सिनेमा के माध्यम से इसे और लोकप्रिय बनाना समय की मांग है।

निष्कर्ष

हिंदी केवल भाषा नहीं, बल्कि एक ऐसी धरोहर है, जो हमारी पहचान, गौरव और संस्कृति को संजोए हुए है। यह वैश्विक एकता और सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस के अवसर पर, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम हिंदी को न केवल सम्मान दें, बल्कि इसे और अधिक प्रभावी और समृद्ध बनाने के प्रयास करें।

“भाषा वही जीवित रहती है, जो स्वयं को बदलते समय के साथ जोड़ ले। हिंदी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि यह केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीयता का प्रतीक है।”
— हरिवंश राय बच्चन

अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिंदी के बढ़ते प्रभाव के साथ, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी आने वाले समय में वैश्विक संवाद की महत्वपूर्ण भाषा बनेगी।
इसे हमारे podcast पर सुनिए - 

गुरुवार, 2 जनवरी 2025

महाकुंभ: गंगा तट पर संस्कृति संगम

१४४ वर्ष बाद आया महाकुंभ -२०२५
        'महाकुंभ' भारत में होने वाला एक ऐसा आयोजन है जो मानव सभ्यता के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक पक्षों का अनूठा संगम प्रस्तुत करता है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का सार है, जो सदियों से अपनी परंपराओं और ज्ञान को जीवित रखते हुए आधुनिक युग में भी अपनी महत्ता बनाए हुए है।
        
        महाकुंभ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन माना जाता है। यह हर बारहवें वर्ष प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक में बारी-बारी से आयोजित होता है। इसका मूल वेदों और पुराणों में मिलता है। स्कंद पुराण, पद्म पुराण, और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख है। यह मेला समुद्र मंथन की उस घटना से प्रेरित है, जब अमृत कलश के लिए देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष हुआ था। यह कहा जाता है कि अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरीं, जो आज के महाकुंभ स्थलों के रूप में पूजित हैं।

        महाकुंभ केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, यह एक सांस्कृतिक संगम भी है, जहाँ विभिन्न समुदाय, विचारधाराएं, और कला रूप एकत्रित होते हैं। गंगा, जो भारतीय संस्कृति की जीवनधारा मानी जाती है, महाकुंभ का केंद्र है। इसके तट पर आयोजित अनुष्ठान, संगम स्नान, और धार्मिक प्रवचन भारतीय समाज के आध्यात्मिक मूल्यों को सशक्त करते हैं। महाकुंभ में स्नान का उद्देश्य आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति माना गया है। गंगा तट पर संत-महात्माओं और भक्तों का जमावड़ा केवल आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रसार नहीं करता, बल्कि यह मानव चेतना को उच्चतर स्तर तक पहुँचाने का माध्यम भी है। ऋषि-मुनियों द्वारा दिए गए प्रवचन, ध्यान और योग शिविर, तथा वैदिक मंत्रोच्चारण से समूचा वातावरण दिव्यता से भर जाता है।

        महाकुंभ भारतीय समाज की सांस्कृतिक विविधता का प्रतीक है। यहाँ देश के कोने-कोने से आए लोग अपनी परंपराओं, वेशभूषा, और लोक कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। कठपुतली नृत्य, लोकगीत, और पारंपरिक नृत्य जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम इस आयोजन को और भी आकर्षक बनाते हैं। मेले में लगने वाली प्रदर्शनियां भारतीय हस्तशिल्प, संगीत, और साहित्य को अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करती हैं। महाकुंभ केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि शैक्षिक महत्व का भी आयोजन है। यहाँ धार्मिक और सांस्कृतिक संगोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं, जिनमें विद्वान भारतीय परंपराओं, धर्म और दर्शन पर अपने विचार साझा करते हैं। यह आयोजन न केवल प्राचीन ग्रंथों के महत्व को रेखांकित करता है, बल्कि समकालीन सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित करता है।

        महाकुंभ के दौरान गंगा की स्वच्छता और संरक्षण को भी प्राथमिकता दी जाती है। यह आयोजन पर्यावरणीय जागरूकता फैलाने का माध्यम बन गया है। संगम पर इकट्ठा होने वाले लाखों लोग 'स्वच्छ भारत' और 'गंगा स्वच्छता अभियान' जैसे अभियानों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। महाकुंभ का प्रभाव केवल भारत तक सीमित नहीं है। यह आयोजन विदेशी पर्यटकों और शोधकर्ताओं के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। वे इस महोत्सव को भारतीय संस्कृति और जीवन शैली को समझने का एक सुनहरा अवसर मानते हैं। इसके महत्व के कारण ही यूनेस्को ने वर्ष 2017 में  इसे "मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर" के रूप में मान्यता दी है। 

        आज के डिजिटल युग में महाकुंभ ने अपनी प्रस्तुति को और व्यापक बनाया है। जिवंत प्रसारण, आभाषीय यात्रा, और सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से यह आयोजन विश्व के हर कोने तक पहुँचता है। गूगल मैप, युट्यूब आदि आधुनिक तकनीको के उपयोग ने इसे अधिक सुलभ और आकर्षक बना दिया है। महाकुंभ न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व का आयोजन है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा, और विविधता का जीवंत प्रतीक है। यह गंगा तट पर एक ऐसा संगम प्रस्तुत करता है, जहाँ भौतिक और आध्यात्मिक संसार एक-दूसरे से जुड़ते हैं। प्राचीन ज्ञान, सांस्कृतिक विविधता, और सामाजिक समरसता का यह महोत्सव भारतीय सभ्यता की महानता को उजागर करता है। महाकुंभ केवल एक मेला नहीं, बल्कि मानवता के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, जो जीवन की शाश्वतता और पवित्रता को रेखांकित करता है।

        इस प्रकार महाकुंभ भारतीय संस्कृति की उस धरोहर को जीवित रखता है, जो 'वसुधैव कुटुंबकम्' के सिद्धांत पर आधारित है और समस्त मानव जाति के कल्याण का संदेश देती है।

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