गुरुवार, 14 नवंबर 2024

जगन्नाथ शंकर सेठ: भारतीय रेल के अग्रदूत व जनक

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जगन्नाथ शंकर सेठ का नाम भारतीय इतिहास में एक ऐसे युगप्रवर्तक के रूप में दर्ज है जिन्होंने समाज सुधार और उद्योग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव किए। उनका जन्म 10 फरवरी 1803 को महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार में हुआ था, जहाँ बचपन से ही उन्होंने व्यापारिक कौशल और समाज सेवा के आदर्श सीखे। लेकिन उनका जीवन साधारण व्यापारिक गतिविधियों में सीमित नहीं रहा; उन्होंने अपने प्रयासों से समाज की जड़ता और अन्याय के विरुद्ध व्यापक जागरूकता फैलाई।

सेठ का जीवन संघर्ष और सेवा का अद्भुत संगम था। जातिगत भेदभाव, बाल विवाह, और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ उन्होंने निडर होकर आवाज उठाई। उनके साहस और निष्ठा ने उन्हें समाज में "समाज का दीपक" बना दिया, जो हर अंधकार को मिटाने के लिए प्रज्वलित रहा। व्यापार में आर्थिक सफलता प्राप्त करने के बाद भी उनका मुख्य ध्येय समाज की उन्नति ही रहा। सेठ की इसी सेवा भावना और दूरदृष्टि ने उन्हें अपने समय के समाज सुधारकों और बुद्धिजीवियों के बीच एक विशिष्ट स्थान दिलाया।

भारतीय रेल सेवा का स्वप्न भी उनके इसी दृष्टिकोण का हिस्सा था। ब्रिटिश शासनकाल में, रेल सेवा एक अनसुना और अव्यवहारिक विचार था, लेकिन सेठ ने इसे भारत में लाने की ठानी। 1843 में उन्होंने गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया को भारत में रेल नेटवर्क शुरू करने का प्रस्ताव दिया। शुरुआती अस्वीकार और उपेक्षा के बावजूद, सेठ ने धैर्य और तर्क के साथ सरकार को इसके लाभ समझाए। "लोहा काटे लोहे को" के दृढ़ संकल्प के साथ उन्होंने हर बाधा का सामना किया, और अंततः उनकी अडिग इच्छाशक्ति ब्रिटिश अधिकारियों को इसे स्वीकृति देने के लिए प्रेरित करने में सफल हुई। उनका विश्वास था कि रेल सेवा भारत के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़कर न केवल आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगी, बल्कि राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ करेगी।

रेल के क्षेत्र में उनके योगदान के अलावा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में भी सेठ का योगदान अभूतपूर्व था। 1822 में उन्होंने "बॉम्बे नेटिव एजुकेशन सोसाइटी" की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने आगे चलकर मुंबई विश्वविद्यालय का रूप लिया। सेठ का मानना था कि शिक्षा ही उन्नति का असली मार्ग है। उन्होंने अपनी संपत्ति का उपयोग करते हुए शिक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाने का प्रयास किया। उनका योगदान नारी सशक्तिकरण के प्रति भी उल्लेखनीय था, और उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी आवाज उठाई।

जगन्नाथ शंकर सेठ का जीवन उन सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है जो समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करने का संकल्प रखते हैं। उनकी दूरदृष्टि, समर्पण और समाज सेवा के प्रति उनका अटूट विश्वास आज भी हमारे लिए मिसाल है। उन्होंने अपनी सफलता को केवल व्यक्तिगत नहीं रहने दिया, बल्कि उसे समाज की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिया। वह सच्चे अर्थों में "मन के मीत और कर्म के धनी" थे। भारतीय रेल की आधारशिला और सामाजिक सुधारों में उनका योगदान युगों तक स्मरणीय रहेगा।

बुधवार, 13 नवंबर 2024

उठती संस्कृति, गिरते मूल्य..!

शहरी आकर्षण में पलायन
        वर्तमान समय में शहरी संस्कृति बड़ी तेजी से विकसित हो रही है। बेहतर जीवन की लालसा में ग्रामीण शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण का प्रभाव हमारे समाज, संस्कृति, और संस्कारों पर भी परिलक्षित हो रहा है। विशेषकर, परिवारिक संरचना तेज़ी से बदल रही है। समाज में पहले जहाँ संयुक्त परिवारों की भूमिका महती थी, वहीं आज एकल परिवारों का वर्चस्व बढ़ा है। इस परिवेश में, सभी की स्थिति में बदलाव देखने को मिल रहा है। नतीजन, शहरों में भी लोग आज कहीं अधिक एकाकीपन, उपेक्षा और मानसिक तनाव के शिकार हैं।

शहरी संस्कृति में उभरते नव संस्कार -  
        संस्कार, किसी भी समाज की नींव होते हैं, जिनसे सामाजिक संतुलन और मानवता कायम रहती है। परंतु शहरी जीवन की आपाधापी और आधुनिकता की दौड़ में, पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों का ह्रास हो रहा है। बच्चों को संस्कारों और परंपराओं की शिक्षा देने के लिए जिस समय और ध्यान की आवश्यकता होती है, वो अक्सर व्यस्तता के कारण नहीं मिल पाता। माता-पिता कामकाजी होते हैं और बच्चों की परवरिश में अक्सर आधुनिक सुविधाओं और शिक्षा के प्रति अधिक ध्यान देते हैं, जबकि मूल्य और संस्कार अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। डिजिटल दुनिया में बच्चों की व्यस्तता ने भी पारिवारिक समय और संस्कारों की शिक्षा को पीछे छोड़ दिया है।

        संयुक्त परिवारों में, बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी जैसे बुजुर्गों से संस्कारों का सजीव उदाहरण मिलता था। लेकिन एकल परिवारों में यह पहलू सीमित हो गया है। संयुक्त परिवारों की कमी से बच्चों का उनके बुजुर्गों के साथ संपर्क कम हो गया है, जो कि संस्कारों के अभाव का एक प्रमुख कारण है। शहरीकरण के साथ ही एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है। लोग अपने करियर और निजी जीवन में अधिक स्वतंत्रता चाहते हैं। आज का युवा वर्ग स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है और घर के कामों में बुजुर्गों की मदद की जगह खुद सब कुछ संभालना पसंद करता है। ऐसे में, वे खुद को अपने बुजुर्ग माता-पिता से अलग रहने में ही सुखद और सुविधाजनक महसूस करते हैं। एकल परिवार में बच्चों का पालन-पोषण तो होता है, परंतु वे दादा-दादी से मिले अनुभवों और समझदारी से वंचित रह जाते हैं।

        वहीं, एकल परिवारों में बच्चों की परवरिश करने वाले माता-पिता पर अत्यधिक दबाव भी होता है। अकेलेपन में बुजुर्गों का सहारा न होने के कारण, माता-पिता को बच्चों की देखभाल, करियर और घर की जिम्मेदारियों को अकेले संभालना पड़ता है। इन सबके बीच, वे स्वयं अपने बच्चों को पर्याप्त समय और संस्कार देने में असमर्थ हो जाते हैं। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का विशेष स्थान होता था। वे बच्चों के लिए सलाहकार और परिवार के लिए अनुभव का खज़ाना होते थे। परंतु एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने उनके जीवन में अलगाव और उपेक्षा की भावना भर दी है। अकेलेपन के कारण वे कई मानसिक और शारीरिक परेशानियों का सामना करने लगे हैं। समाज में वृद्धाश्रमों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, जो एक संकेत है कि कई परिवार अपने बुजुर्गों की देखभाल करने में असमर्थ हैं या तैयार नहीं हैं।

        बुजुर्गों का स्वास्थ्य, विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य, आज बड़ी चुनौती बन गया है। अकेलापन, उपेक्षा, और दूसरों पर निर्भरता की भावना उन्हें अवसाद और अन्य मानसिक समस्याओं की ओर ले जाती है। इसके साथ ही, बुजुर्गों के पास अधिक समय होता है, परंतु उनके साथ बिताने के लिए युवा पीढ़ी के पास समय की कमी होती है। यह असंतुलन बुजुर्गों को परिवार में अलग-थलग महसूस कराता है।

        शहरी जीवन की आपाधापी और व्यक्तिगत स्वार्थों को संतुलित कर के बुजुर्गों को फिर से सम्मान और सुरक्षा देने का प्रयास किया जा सकता है। सबसे पहले, यह ज़रूरी है कि परिवारों में बच्चों को संस्कारों और बुजुर्गों के प्रति आदर की भावना सिखाई जाए। माता-पिता को भी बच्चों के साथ बुजुर्गों का समय साझा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि बच्चे दादा-दादी या नाना-नानी से जीवन के अनुभवों और संस्कारों का लाभ उठा सकें।

        सरकार और सामाजिक संस्थाओं को भी बुजुर्गों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करने चाहिए। वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ाने की बजाय, बुजुर्गों के लिए "Day care canters" जैसी योजनाएँ लागू की जा सकती हैं, जहाँ वे अपने जैसे लोगों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी समय बिता सकें और अपने साथियों के साथ कुछ वक्त बिताकर अकेलापन दूर कर सकें।

        अंततः, समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे और अपने बुजुर्गों के प्रति समर्पण की भावना रखे, तभी हम एक संतुलित और संस्कारी समाज की कल्पना कर सकते हैं। एक ऐसा समाज जहाँ बुजुर्ग अपने अनुभवों से समाज को संवार सकें, बच्चों को संस्कार मिल सकें और सभी मिलकर एक पारिवारिक संतुलन बना सकें।

        आग्रह है कि, इस लेख को पढ़ने के बाद यदि आपको कुछ पसंद / नापसंद आया तो हमें अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें, इससे हमें अपने आपमें सुधार आ अवसर मिलता है। धन्यवाद।                        
        

विजय स्तंभ: चित्तौड़गढ़ की शान

पिछले सप्ताह मैंने राजस्थान की ऐतिहासिक धरोहरों में से एक, चित्तौड़गढ़ का विजय स्तंभ देखने का निश्चय किया। इस यात्रा की योजना बनाते समय मेरे मन में एक अनोखा उत्साह था, मानो मैं भारतीय इतिहास की जड़ों से जुड़ने जा रहा हूँ। मैंने हमेशा से चित्तौड़गढ़ की कई रोचक कहानियाँ सुनी थीं, लेकिन इस बार मैं खुद इस ऐतिहासिक स्थल पर जाकर उसकी भव्यता का अनुभव करना चाहता था।
जैसे ही मैंने चित्तौड़गढ़ किले में प्रवेश किया, मेरे मन में एक विशेष प्रकार की गर्व की भावना जाग उठी। यह किला भारत के गौरवशाली अतीत का प्रतीक है, और इसके विशाल द्वार से प्रवेश करते ही इतिहास जीवंत हो उठा। यहाँ के हर पत्थर, हर दीवार में शौर्य और बलिदान की कहानियाँ छिपी हुई हैं। लेकिन मेरा मन विजय स्तंभ को देखने के लिए व्यग्र था, जिसे महाराणा कुम्भा ने 1440 ईस्वी में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।
जब मैंने पहली बार विजय स्तंभ को देखा, तो मैं उसकी ऊँचाई और स्थापत्य सौंदर्य से स्तब्ध रह गया। यह 37 मीटर ऊँचा स्तंभ दूर से ही अपनी भव्यता और उत्कृष्टता से मन मोह लेता है। 9 मंजिला इस स्तंभ की जटिल नक्काशियां और सुंदर मूर्तियां भारतीय शिल्पकारों की अद्वितीय कला का प्रतीक हैं। जैसे-जैसे मैं इसके पास पहुंचा, मेरे भीतर एक अजीब सी अनुभूति हो रही थी, मानो मैं इतिहास के किसी स्वर्णिम अध्याय का हिस्सा बन गया हूँ।
विजय स्तंभ के अंदर प्रवेश करते ही मैंने उसके भीतर की सीढ़ियों की ओर देखा। मैं जैसे-जैसे ऊपर की ओर चढ़ता गया, हर मंजिल पर देवी-देवताओं की मूर्तियों और पौराणिक कथाओं के दृश्य उकेरे हुए थे। इन नक्काशियों को देखते ही मन में यह सवाल उठने लगा कि कैसे हमारे पूर्वजों ने बिना किसी आधुनिक तकनीक के इतनी बारीकी और सटीकता से इस कृति का निर्माण किया होगा। हर मंजिल पर ठहरकर मैंने इन कलाकृतियों को निहारने का प्रयास किया, और हर बार उनमें कुछ नया, कुछ अनोखा दिखा।
जब मैं विजय स्तंभ की सबसे ऊपरी मंजिल पर पहुँचा, तो वहाँ से पूरे चित्तौड़गढ़ किले का विहंगम दृश्य देखने को मिला। हवा में हल्की ठंडक थी, और दूर-दूर तक फैला किला मेरे सामने था। उस पल, मुझे महसूस हुआ कि मैं सिर्फ एक पर्यटक नहीं हूँ, बल्कि इस किले के इतिहास का साक्षी भी हूँ। यह दृश्य मेरे मन में गहराई से बस गया, और मैं गर्व महसूस कर रहा था कि हमारे पूर्वजों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिए किस तरह से संघर्ष किया था।
यह यात्रा मेरे लिए सिर्फ एक पर्यटक स्थल की खोज नहीं थी, बल्कि यह मेरे इतिहास से जुड़ने का एक मौका था। मैंने विजय स्तंभ की भव्यता में भारतीय कला, संस्कृति और वीरता का अनूठा मिश्रण देखा। वहाँ खड़े होकर मुझे महसूस हुआ कि यह स्तंभ केवल पत्थरों से बनी संरचना नहीं है, बल्कि यह हमारे गौरवशाली अतीत का एक जीवंत प्रमाण है।
विजय स्तंभ से उतरते समय मेरे मन में संतोष था, और मैं सोच रहा था कि इस तरह की धरोहरें हमें न केवल अपने अतीत को समझने का अवसर देती हैं, बल्कि हमें भविष्य के लिए प्रेरित भी करती हैं।

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