सोमवार, 18 नवंबर 2024

युवाओं की उड़ान, स्टार्टअप के नाम...! (साक्षात्कार)

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भारत का स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र आज दुनिया भर में अपनी पहचान बना रहा है। यह सफर आसान नहीं था, लेकिन युवाओं की कड़ी मेहनत, सशक्त विचारों और दृढ़ संकल्प ने इसे संभव बनाया। रेडबस जैसी सफल कहानियां इस बात का प्रमाण हैं कि यदि किसी के पास समस्या का समाधान करने का जज़्बा और तकनीक का सही इस्तेमाल हो, तो कोई भी विचार दुनिया के सामने अपनी पहचान बना सकता है।

फणींद्र सामा
2006 में, तीन युवा इंजीनियर, फणींद्र सामा, सुधाकर पसुपुनुरी और चरण पद्माराजू ने रेडबस की शुरुआत की। इनकी शुरुआत महज ₹5 लाख की पूंजी से हुई। रेडबस का विचार उस समय आया जब फणींद्र सामा को त्योहार के समय अपने गृहनगर की यात्रा के लिए बस टिकट बुक करने में कठिनाई हुई। इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए, उन्होंने तकनीक और नवाचार का सहारा लिया और एक ऐसा मंच तैयार किया जिसने भारत में बस टिकट बुकिंग के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया।

रेडबस ने अपनी यात्रा में कई मील के पत्थर छुए। इसकी सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण 2013 में देखने को मिला, जब इसे 828 करोड़ रुपये में एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी द्वारा अधिग्रहित किया गया। इस सफलता ने न केवल भारतीय स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया, बल्कि यह भी दिखाया कि अगर सही दृष्टिकोण और मेहनत हो, तो कोई भी विचार वैश्विक स्तर पर पहचान बना सकता है।

फणींद्र सामा के नेतृत्व ने रेडबस को एक नई पहचान दी। सामा ने न केवल रेडबस को सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंचाया, बल्कि समाज सेवा में भी अपना योगदान दिया। उन्होंने तेलंगाना राज्य के मुख्य नवाचार अधिकारी के रूप में भी कार्य किया, जहां उन्होंने शासन में नवाचार और प्रौद्योगिकी के बेहतर उपयोग को बढ़ावा दिया। उनकी यह यात्रा इस बात का उदाहरण है कि एक सफल उद्यमी समाज की भलाई के लिए भी योगदान कर सकता है।

रेडबस की सफलता की कहानी युवाओं के लिए कई प्रेरणाएं छोड़ती है। यह हमें यह सिखाती है कि यदि हमारे पास एक बेहतरीन विचार है, तो उसे आगे बढ़ाने के लिए हिम्मत दिखाना जरूरी है। हर बड़ा स्टार्टअप एक साधारण समस्या के समाधान से शुरू होता है। इसके लिए जरूरी है कि आप समस्या को पहचानें, सही टीम का चयन करें और अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहें।

भारत के पास आज विश्वस्तरीय तकनीक, प्रतिभाशाली युवा, और समर्थन करने वाले निवेशक हैं। युवाओं के लिए यह समय अपने सपनों को साकार करने और दुनिया को अपनी पहचान दिखाने का है। 'रेडबस' जैसी कहानियां हमें यही सिखाती हैं कि अगर आपके पास एक विचार है और उसे साकार करने का जज़्बा है, तो आप न केवल अपनी, बल्कि देश की भी दिशा और दशा बदल सकते हैं।


साक्षात्कार लेखन
अभ्यास प्रश्न -  मान लीजिये की हाल ही में आपकी मुलाक़ात प्रसिद्ध उद्यमी श्री फणींद्र सामा जी से हुई थी  उपरोक्त पढ़े गए आलेख के आधार पर उनसे हुई आपकी बातचीत को साक्षात्कार के स्वरूप लिखिए 
FAQs

मशहूर उद्योगपति फणींद्र सामा से साक्षात्कार

प्रश्न 1: सर, कृपया अपने बारे में संक्षेप में बताएं।
उत्तर - मैं फणींद्र सामा, "रेडबस" का सह-संस्थापक हूं। मैंने अपनी शिक्षा आईआईटी मद्रास से पूरी की और यात्रा उद्योग में बदलाव लाने के उद्देश्य से "रेडबस" की शुरुआत की।
प्रश्न 2: आपकी शुरुआती यात्रा कैसी रही?
उत्तर - इस विचार की शुरुआत तब हुई जब एक बार बस का टिकट न मिलने के कारण मुझे परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसके बाद मैंने महसूस किया कि बस सेवा को संगठित और डिजिटल बनाना जरूरी है। शुरुआती दिनों में सीमित फंड और अनुभव के कारण चुनौतियां थीं, लेकिन हम अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहे।
प्रश्न 3: आपने अपनी कंपनी को आगे बढ़ाने के लिए कौन-से कदम उठाए?
उत्तर - हमने तकनीक का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार किया जो यात्रियों और बस ऑपरेटरों को जोड़ सके। हमने ग्राहकों को सरलता, पारदर्शिता और सुविधा देने पर ध्यान केंद्रित किया। साथ ही, निवेशकों से समर्थन लेकर कारोबार को विस्तार दिया।
प्रश्न 4: इस सफर में सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?
उत्तर - शुरुआती दौर में लोगों को डिजिटल बुकिंग के फायदे समझाना और उन्हें इसे अपनाने के लिए प्रेरित करना सबसे बड़ी चुनौती थी। लेकिन बेहतर सेवा और तकनीकी नवाचार से हमने यह बाधा पार की।
प्रश्न 5: नव उद्यमियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
उत्तर - समस्याओं को पहचानें और उनका समाधान ढूंढें। असफलताओं को सीखने का अवसर मानें। धैर्य, नवाचार और निरंतर मेहनत से ही सफलता संभव है।

यह साक्षात्कार युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा और उद्यमिता के नए दृष्टिकोण दिए।

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

जगन्नाथ शंकर सेठ: भारतीय रेल के अग्रदूत व जनक

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जगन्नाथ शंकर सेठ का नाम भारतीय इतिहास में एक ऐसे युगप्रवर्तक के रूप में दर्ज है जिन्होंने समाज सुधार और उद्योग के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव किए। उनका जन्म 10 फरवरी 1803 को महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार में हुआ था, जहाँ बचपन से ही उन्होंने व्यापारिक कौशल और समाज सेवा के आदर्श सीखे। लेकिन उनका जीवन साधारण व्यापारिक गतिविधियों में सीमित नहीं रहा; उन्होंने अपने प्रयासों से समाज की जड़ता और अन्याय के विरुद्ध व्यापक जागरूकता फैलाई।

सेठ का जीवन संघर्ष और सेवा का अद्भुत संगम था। जातिगत भेदभाव, बाल विवाह, और सती प्रथा जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ उन्होंने निडर होकर आवाज उठाई। उनके साहस और निष्ठा ने उन्हें समाज में "समाज का दीपक" बना दिया, जो हर अंधकार को मिटाने के लिए प्रज्वलित रहा। व्यापार में आर्थिक सफलता प्राप्त करने के बाद भी उनका मुख्य ध्येय समाज की उन्नति ही रहा। सेठ की इसी सेवा भावना और दूरदृष्टि ने उन्हें अपने समय के समाज सुधारकों और बुद्धिजीवियों के बीच एक विशिष्ट स्थान दिलाया।

भारतीय रेल सेवा का स्वप्न भी उनके इसी दृष्टिकोण का हिस्सा था। ब्रिटिश शासनकाल में, रेल सेवा एक अनसुना और अव्यवहारिक विचार था, लेकिन सेठ ने इसे भारत में लाने की ठानी। 1843 में उन्होंने गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया को भारत में रेल नेटवर्क शुरू करने का प्रस्ताव दिया। शुरुआती अस्वीकार और उपेक्षा के बावजूद, सेठ ने धैर्य और तर्क के साथ सरकार को इसके लाभ समझाए। "लोहा काटे लोहे को" के दृढ़ संकल्प के साथ उन्होंने हर बाधा का सामना किया, और अंततः उनकी अडिग इच्छाशक्ति ब्रिटिश अधिकारियों को इसे स्वीकृति देने के लिए प्रेरित करने में सफल हुई। उनका विश्वास था कि रेल सेवा भारत के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़कर न केवल आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेगी, बल्कि राष्ट्रीय एकता को भी सुदृढ़ करेगी।

रेल के क्षेत्र में उनके योगदान के अलावा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में भी सेठ का योगदान अभूतपूर्व था। 1822 में उन्होंने "बॉम्बे नेटिव एजुकेशन सोसाइटी" की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने आगे चलकर मुंबई विश्वविद्यालय का रूप लिया। सेठ का मानना था कि शिक्षा ही उन्नति का असली मार्ग है। उन्होंने अपनी संपत्ति का उपयोग करते हुए शिक्षा को सभी के लिए सुलभ बनाने का प्रयास किया। उनका योगदान नारी सशक्तिकरण के प्रति भी उल्लेखनीय था, और उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी आवाज उठाई।

जगन्नाथ शंकर सेठ का जीवन उन सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है जो समाज और राष्ट्र के लिए कुछ करने का संकल्प रखते हैं। उनकी दूरदृष्टि, समर्पण और समाज सेवा के प्रति उनका अटूट विश्वास आज भी हमारे लिए मिसाल है। उन्होंने अपनी सफलता को केवल व्यक्तिगत नहीं रहने दिया, बल्कि उसे समाज की बेहतरी के लिए समर्पित कर दिया। वह सच्चे अर्थों में "मन के मीत और कर्म के धनी" थे। भारतीय रेल की आधारशिला और सामाजिक सुधारों में उनका योगदान युगों तक स्मरणीय रहेगा।

बुधवार, 13 नवंबर 2024

उठती संस्कृति, गिरते मूल्य..!

शहरी आकर्षण में पलायन
        वर्तमान समय में शहरी संस्कृति बड़ी तेजी से विकसित हो रही है। बेहतर जीवन की लालसा में ग्रामीण शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण का प्रभाव हमारे समाज, संस्कृति, और संस्कारों पर भी परिलक्षित हो रहा है। विशेषकर, परिवारिक संरचना तेज़ी से बदल रही है। समाज में पहले जहाँ संयुक्त परिवारों की भूमिका महती थी, वहीं आज एकल परिवारों का वर्चस्व बढ़ा है। इस परिवेश में, सभी की स्थिति में बदलाव देखने को मिल रहा है। नतीजन, शहरों में भी लोग आज कहीं अधिक एकाकीपन, उपेक्षा और मानसिक तनाव के शिकार हैं।

शहरी संस्कृति में उभरते नव संस्कार -  
        संस्कार, किसी भी समाज की नींव होते हैं, जिनसे सामाजिक संतुलन और मानवता कायम रहती है। परंतु शहरी जीवन की आपाधापी और आधुनिकता की दौड़ में, पारिवारिक मूल्यों और संस्कारों का ह्रास हो रहा है। बच्चों को संस्कारों और परंपराओं की शिक्षा देने के लिए जिस समय और ध्यान की आवश्यकता होती है, वो अक्सर व्यस्तता के कारण नहीं मिल पाता। माता-पिता कामकाजी होते हैं और बच्चों की परवरिश में अक्सर आधुनिक सुविधाओं और शिक्षा के प्रति अधिक ध्यान देते हैं, जबकि मूल्य और संस्कार अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। डिजिटल दुनिया में बच्चों की व्यस्तता ने भी पारिवारिक समय और संस्कारों की शिक्षा को पीछे छोड़ दिया है।

        संयुक्त परिवारों में, बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी जैसे बुजुर्गों से संस्कारों का सजीव उदाहरण मिलता था। लेकिन एकल परिवारों में यह पहलू सीमित हो गया है। संयुक्त परिवारों की कमी से बच्चों का उनके बुजुर्गों के साथ संपर्क कम हो गया है, जो कि संस्कारों के अभाव का एक प्रमुख कारण है। शहरीकरण के साथ ही एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है। लोग अपने करियर और निजी जीवन में अधिक स्वतंत्रता चाहते हैं। आज का युवा वर्ग स्वतंत्रता को प्राथमिकता देता है और घर के कामों में बुजुर्गों की मदद की जगह खुद सब कुछ संभालना पसंद करता है। ऐसे में, वे खुद को अपने बुजुर्ग माता-पिता से अलग रहने में ही सुखद और सुविधाजनक महसूस करते हैं। एकल परिवार में बच्चों का पालन-पोषण तो होता है, परंतु वे दादा-दादी से मिले अनुभवों और समझदारी से वंचित रह जाते हैं।

        वहीं, एकल परिवारों में बच्चों की परवरिश करने वाले माता-पिता पर अत्यधिक दबाव भी होता है। अकेलेपन में बुजुर्गों का सहारा न होने के कारण, माता-पिता को बच्चों की देखभाल, करियर और घर की जिम्मेदारियों को अकेले संभालना पड़ता है। इन सबके बीच, वे स्वयं अपने बच्चों को पर्याप्त समय और संस्कार देने में असमर्थ हो जाते हैं। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का विशेष स्थान होता था। वे बच्चों के लिए सलाहकार और परिवार के लिए अनुभव का खज़ाना होते थे। परंतु एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने उनके जीवन में अलगाव और उपेक्षा की भावना भर दी है। अकेलेपन के कारण वे कई मानसिक और शारीरिक परेशानियों का सामना करने लगे हैं। समाज में वृद्धाश्रमों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है, जो एक संकेत है कि कई परिवार अपने बुजुर्गों की देखभाल करने में असमर्थ हैं या तैयार नहीं हैं।

        बुजुर्गों का स्वास्थ्य, विशेष रूप से मानसिक स्वास्थ्य, आज बड़ी चुनौती बन गया है। अकेलापन, उपेक्षा, और दूसरों पर निर्भरता की भावना उन्हें अवसाद और अन्य मानसिक समस्याओं की ओर ले जाती है। इसके साथ ही, बुजुर्गों के पास अधिक समय होता है, परंतु उनके साथ बिताने के लिए युवा पीढ़ी के पास समय की कमी होती है। यह असंतुलन बुजुर्गों को परिवार में अलग-थलग महसूस कराता है।

        शहरी जीवन की आपाधापी और व्यक्तिगत स्वार्थों को संतुलित कर के बुजुर्गों को फिर से सम्मान और सुरक्षा देने का प्रयास किया जा सकता है। सबसे पहले, यह ज़रूरी है कि परिवारों में बच्चों को संस्कारों और बुजुर्गों के प्रति आदर की भावना सिखाई जाए। माता-पिता को भी बच्चों के साथ बुजुर्गों का समय साझा करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि बच्चे दादा-दादी या नाना-नानी से जीवन के अनुभवों और संस्कारों का लाभ उठा सकें।

        सरकार और सामाजिक संस्थाओं को भी बुजुर्गों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयास करने चाहिए। वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ाने की बजाय, बुजुर्गों के लिए "Day care canters" जैसी योजनाएँ लागू की जा सकती हैं, जहाँ वे अपने जैसे लोगों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी समय बिता सकें और अपने साथियों के साथ कुछ वक्त बिताकर अकेलापन दूर कर सकें।

        अंततः, समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे और अपने बुजुर्गों के प्रति समर्पण की भावना रखे, तभी हम एक संतुलित और संस्कारी समाज की कल्पना कर सकते हैं। एक ऐसा समाज जहाँ बुजुर्ग अपने अनुभवों से समाज को संवार सकें, बच्चों को संस्कार मिल सकें और सभी मिलकर एक पारिवारिक संतुलन बना सकें।

        आग्रह है कि, इस लेख को पढ़ने के बाद यदि आपको कुछ पसंद / नापसंद आया तो हमें अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें, इससे हमें अपने आपमें सुधार आ अवसर मिलता है। धन्यवाद।                        
        

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