मंगलवार, 5 नवंबर 2024

स्तंभ लेखन (Column Writing)

स्तंभ लेखन
समाचार पत्रों में स्तंभ लेखन 
स्तंभ लेखन पत्रकारिता का ऐसा रूप है, जिसमें लेखक किसी विशेष मुद्दे पर अपने विचारों को गहराई से प्रस्तुत करता है। अखबार, पत्रिकाओं या ऑनलाइन मंचों पर नियमित प्रकाशित होने वाले ये लेख समाज, राजनीति, शिक्षा, मनोरंजन, पर्यावरण आदि हर विषय पर हो सकते हैं।  नियमित रूप से, विशिष्ट विषय पर लिखना। यह साप्ताहिक या पाक्षिक होता है; मतलब उसकी बारंबारिता (frequency) पहले ही तय की होती है। स्तंभ लेखन के लिए विषय की कोई सीमा नहीं होती - पाठकों को जो विषय रुचिपूर्ण लगते है, उन्हीं विषयों पर स्तंभ लेखन आमंत्रित किया जाता है। 
स्तंभ लेखन लिखने वाले को 'स्तंभाकार' (Columnist) कहते हैं।

महत्व 
स्तंभ लेखन का मुख्य उद्देश्य लोगों को मुद्दों के प्रति जागरूक बनाना और उनके विचारों को दिशा देना है। इसमें किसी विषय पर गहरी समझ के साथ लेखक अपनी राय रखते हैं, जो पाठकों को उस विषय पर सोचने, बहस करने और एक जनमत तैयार करने में मदद करती है। ये लेख लोगों को नई जानकारियाँ देने के साथ-साथ उन्हें प्रेरणा भी देते हैं।

उपयोगिता 
  1. ज्ञान और जानकारी का स्रोत - स्तंभ लेख लोगों को कई विषयों पर जागरूक करते हैं और उनका ज्ञान बढ़ाते हैं।
  2. प्रेरणा और समाधान - जीवनशैली या व्यक्तिगत विकास पर लिखे स्तंभ लोगों को प्रेरणा और समस्याओं के हल का रास्ता दिखाते हैं।
  3. समाज में बदलाव - स्तंभ लेखन के जरिए लेखक समाज में व्याप्त समस्याओं पर रोशनी डालते हैं, जिससे लोग बदलाव के लिए जागरूक होते हैं।

स्तंभ लेखन न केवल जानकारी का माध्यम है, बल्कि यह पाठकों के साथ संवाद, प्रेरणा, और समाज में सकारात्मक बदलाव का भी जरिया है।
Content Box Example

स्तंभ लेखन का प्रारूप (फॉर्मेट)

1. शीर्षक - लेख का शीर्षक प्रभावशाली और आकर्षक होना चाहिए, ताकि पाठक की रुचि बनी रहे। शीर्षक विषय के मुख्य विचार को संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहिए।

2. परिचय - लेख के आरंभ में विषय का संक्षिप्त परिचय देना चाहिए। परिचय में पाठक को यह समझाना होता है कि लेख किस विषय पर है और लेख का मुख्य उद्देश्य क्या है।

3. मुख्य विषय - इस भाग में आप अपने विचारों, तर्कों, उदाहरणों और तथ्यों का उल्लेख करते हैं। इसे पैराग्राफ में विभाजित किया जा सकता है, जिसमें प्रत्येक पैराग्राफ एक अलग बिंदु या विचार प्रस्तुत करता है। जानकारी सरल और व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत करनी चाहिए।

4. विवरणात्मक दृष्टिकोण - यदि संभव हो, तो व्यक्तिगत अनुभव, शोध या विश्लेषण का उपयोग करें। इससे लेख अधिक रोचक और विश्वसनीय बनता है।

5. समाप्ति - लेख का समापन संक्षिप्त और प्रभावी ढंग से करें। इसमें विषय का निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें आप अपनी राय, सुझाव या संभावित समाधान दे सकते हैं।

6. लेखक का परिचय - लेख के अंत में लेखक का संक्षिप्त परिचय होता है। इसमें लेखक का नाम, पेशा, और संबंधित क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता का उल्लेख किया जा सकता है।

उदाहरण -

जलवायु परिवर्तन और हमारा भविष्य

        पिछले कुछ सालों में हम सभी ने महसूस किया है कि मौसम अजीब तरह से बदल रहा है। बरसात कभी इतनी ज्यादा हो जाती है कि बाढ़ आ जाती है, और कभी इतनी कम कि सूखा पड़ जाता है। सर्दी पहले की तरह सर्द नहीं लगती, और गर्मी तो अब हर साल नई सीमाएं छू रही है। ये सब संकेत हैं कि जलवायु में बड़ा बदलाव हो रहा है, जिसे हम "जलवायु परिवर्तन" कहते हैं। इस बदलाव का असर हमारे जीवन और पृथ्वी के भविष्य पर पड़ रहा है, और इसे अनदेखा करना अब संभव नहीं रह गया है।

        जलवायु परिवर्तन के पीछे कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण हमारी अपनी गतिविधियाँ हैं। कारों, फैक्ट्रियों, और बिजली उत्पादन के लिए हम जिस कोयले, तेल, और गैस का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे सभी वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें छोड़ते हैं। ये गैसें एक तरह से धरती को ढक लेती हैं और सूरज से आने वाली गर्मी को बाहर नहीं जाने देतीं। नतीजा यह होता है कि धरती का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता जाता है, जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। इसके अलावा, हमने जंगलों की कटाई कर दी है, जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते थे। पेड़ों की कमी ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है।

        इस जलवायु परिवर्तन का असर अब साफ नजर आ रहा है। तटीय क्षेत्रों में समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, जिससे वहाँ रहने वाले लोगों को बाढ़ का खतरा है। हमारे देश में भी किसानों को अनियमित बारिश और बढ़ते तापमान की वजह से काफी नुकसान हो रहा है। इसका असर हमारे भोजन की सुरक्षा पर भी पड़ता है, क्योंकि फसलें सही तरीके से नहीं उग पातीं। इसके अलावा, सूखा, बाढ़ और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाएँ अब और भी तीव्र हो गई हैं, जो लोगों की जान-माल को भारी नुकसान पहुंचा रही हैं।

        इस समस्या का समाधान आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। सबसे पहले, हमें ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर ध्यान देना होगा जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, और बायोफ्यूल। इनसे कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता, जिससे प्रदूषण भी कम होगा और वातावरण पर दबाव भी घटेगा। हमें पेड़ लगाने को भी एक जन अभियान बनाना होगा ताकि वातावरण में संतुलन बना रहे। साथ ही, हमें अपनी दिनचर्या में छोटे बदलाव करने होंगे, जैसे बिजली की बचत, कार की जगह साइकिल या सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, और प्लास्टिक का कम इस्तेमाल।

        अंततः, यह बात समझनी होगी कि जलवायु परिवर्तन की जिम्मेदारी हम सभी की है। अगर हम इसे गंभीरता से नहीं लेंगे और आज से कदम नहीं उठाएंगे, तो भविष्य में यह हमारी पीढ़ियों के लिए और भी खतरनाक साबित हो सकता है। एक स्थायी, सुरक्षित और स्वस्थ भविष्य के लिए हमें अभी से पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
- अरविंद बारी, शिक्षक, हिंदी सेवी और पर्यावरण संरक्षण में रुचि रखते हैं।

सोमवार, 4 नवंबर 2024

सामाजिक अलगाव के चहरे पर मुखौटा विकास का ...!

डायरी मोहन की : गाँव में बिताया अनमोल दिन

दिनांक: 4 नवंबर. 2024

समय: रात्रि, 10 बजे 

प्रिय डायरी,

        आज का दिन मेरे जीवन का सबसे अनोखा दिन था। सुबह-सुबह मैं अपने दादा जी के साथ उनके गाँव पहुँचा। शहर के शोरगुल और व्यस्तता से दूर, यह गाँव एक अलग ही दुनिया थी—सादगी से भरी, लेकिन अपनेपन से लबालब। 

गाँव का कुआं 
        गाँव पहुँचते ही दादा जी मुझे गाँव के मंदिर के पास ले गए, जहाँ हर शाम गाँव के लोग इकट्ठा होते हैं। लोग यहाँ बैठकर अपने दिनभर की बातें करते हैं, कोई पुराने किस्से सुनाता है, तो कोई जीवन के अनुभव बाँटता है। कुछ बच्चे मैदान में खेल रहे थे, उनकी हँसी-खुशी में एक अपनापन झलक रहा था। एक बुजुर्ग चाचा, जिन्हें सभी "रामू काका" कहकर बुलाते थे, अपने बचपन की कहानियाँ सुना रहे थे। उन्होंने बताया कि पहले कैसे सब लोग एक-दूसरे के घर बिना किसी औपचारिकता के आ-जा सकते थे। मुझे सुनकर अजीब लगा; हमारे शहर में तो लोग किसी के घर आने से पहले दस बार सोचते हैं।

        अभी बातें चल ही रही थीं कि मैंने देखा कि गाँव के एक घर में कोई चूल्हा नहीं जला था। शाम हो चली थी, लेकिन उस घर से कोई धुआँ नहीं उठ रहा था। मैंने दादा जी से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, गाँव में जब किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता, तो बाकी लोग अपने आप समझ जाते हैं कि वहाँ कुछ समस्या है। मदद के लिए किसी को कहने की ज़रूरत नहीं होती।" और सचमुच, दो महिलाएँ जल्दी ही उस घर के लिए खाना लेकर पहुँच गईं। मैंने उनके चेहरे पर चिंता या सहानुभूति का भाव नहीं देखा, बल्कि एक आत्मीयता थी, जैसे यह उनका अपना ही परिवार हो।

        उसके बाद दादा जी मुझे कुएँ पर ले गए, जहाँ लोग पानी भरने के लिए जमा थे। वहाँ पर हर किसी में एक अपनापन था। किसी को ज़्यादा पानी की ज़रूरत थी, तो कोई खुशी-खुशी अपनी बारी देने को तैयार था। शहर में तो हर कोई बस अपनी जल्दी में रहता है, यहाँ का यह सब कुछ बहुत अलग और सुकून भरा था।

        रात को जब सब लोग वापस अपने घरों में लौटे, तब मुझे एहसास हुआ कि मैंने आज केवल एक दिन में ही कितना कुछ सीख लिया है। यहाँ न तो सोशल मीडिया था, न मोबाइल की घंटियाँ बज रही थीं, लेकिन फिर भी सब एक-दूसरे से कितने जुड़े हुए थे। यह गाँव मुझे सिखा गया कि असली खुशी सुविधाओं में नहीं, बल्कि रिश्तों में है, और असली प्रगति वही है जो हमें हमारे मूल मानवीय मूल्यों से जोड़े रखे।

        आज का यह अनुभव मेरे दिल में हमेशा के लिए बस गया है।

सामाजिक अलगाव के चहरे पर मुखौटा विकास का ...!

प्राचीन भारतीय ग्राम्य जीवन 
प्राचीन भारतीय समाज में भाईचारा और सौहार्द्र एक गहरे ताने-बाने की तरह जीवन का हिस्सा थे। उस समय भले ही आधुनिक संचार साधनों की कमी थी, परंतु एक अदृश्य डोर थी जो हर व्यक्ति को जोड़कर रखती थी। यह डोर थी - प्रेम, करुणा, और सहानुभूति की। लोग न केवल अपने परिचितों, बल्कि अपरिचितों के प्रति भी निःस्वार्थ भाव से मदद का हाथ बढ़ाते थे। अतिथियों का स्वागत सजीवता और उत्साह से किया जाता था, जो भारतीय संस्कृति की अतिथि-सत्कार परंपरा की आधारशिला है। हमारे संस्कार हमें सिखाते थे कि अतिथि देवता के समान है – “अतिथि देवो भव”। इस परंपरा में हर आगंतुक का स्वागत पलक पावड़े बिछाकर होता था, और हर व्यक्ति एक परिवार के सदस्य जैसा महसूस करता था।

उस दौर में लोगों के जीवन में बड़ों और संतों के प्रति गहरा आदरभाव था। बुजुर्गों के अनुभवों और उनके आशीर्वादों को जीवन का आधार माना जाता था। बच्चे, जो इस समाज के भविष्य थे, उनके प्रति दया, करुणा, और क्षमा का भाव रखा जाता था। उन्हें संस्कार देने और सही मार्ग पर चलाने के लिए पूरा समाज तत्पर रहता था। महिलाएँ भी इस समाज का आधार थीं। उनमें शील, लज्जा, और आत्मसम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी होती थी। ये गुण ही उन्हें समाज में विशेष स्थान दिलाते थे। इन मूल्यों के कारण ही समाज में एक तरह की आत्मीयता और सुरक्षा का वातावरण बनता था।

आज हमारे पास प्रगति के अनेक साधन हैं। तकनीकी विकास और आर्थिक समृद्धि के चलते, हमारे जीवन में कई सुविधाएं आई हैं। हम वैश्विक गाँव में तो बस गए हैं, लेकिन इसका असर हमारे मूल्यों और संस्कारों पर भी पड़ा है। एक समय था जब लोग एक ही नदी या कुएं का पानी पीते थे, और एक ही चूल्हे से रोटी बनती थी। एक पड़ोसी के घर में चूल्हे का धुआं न उठे, तो दूसरा तुरंत मदद के लिए पहुँचता था। यह वह समय था जब लोगों में "साझेदारी" का भाव इतना मजबूत था कि एक की परेशानी को सभी महसूस करते थे।

आज के समय में, हमारी दुनिया तकनीक और संचार के माध्यमों से जुड़ तो गई है, लेकिन क्या हमने इस यात्रा में अपने मानवीय संबंधों को खो नहीं दिया है? हमारे पास अनगिनत संचार माध्यम हैं; फोन, सोशल मीडिया, इंटरनेट ने दुनिया को हमारी मुट्ठी में ला दिया है। लेकिन यही संचार माध्यम एक तरह से हमें एक-दूसरे से दूर भी कर रहे हैं। हम अपने घर के सदस्यों के दर्द और भावनाओं को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं। "वसुधैव कुटुम्बकम्" का आदर्श हमने जरूर अपनाया है, लेकिन केवल तकनीकी रूप से। भावनात्मक रूप से हम एक-दूसरे से कहीं दूर हो गए हैं।

क्या यही असली प्रगति है? अगर इस विकास का अर्थ केवल भौतिक समृद्धि है, तो शायद हमने जीवन की सच्ची खुशियों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। असली प्रगति वही होती है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखे, जो हमारे मानवीय मूल्यों को संजोए रखे। तकनीकी विकास के साथ-साथ हमें अपने मानवीय रिश्तों और समाज में आपसी सौहार्द्र को भी जीवित रखना होगा। तभी हम एक सच्चे मायनों में प्रगति की ओर बढ़ सकते हैं।

शनिवार, 2 नवंबर 2024

पाती गंगा माँ की ...!

मेरे प्यारे बच्चों, 

मैं गंगा हूँ, जिसे भारतवासी 'माँ' कहकर पुकारते हैं। हिमालय की शांत गोद से निकलकर, मैं इस धरती पर जीवन का संचार करती आई हूँ। सदियों से मैं इस देश की आत्मा और संकृति का आधार रही हूँ। मैं अपने अमृततुल्य जल से देश की धरती को सींचती आई हूँ। यहाँ के खेतों में लहलहाती फसलें और फसलों पर झूमती बालियाँ मेरे जल का गुणगान करती थीं। मेरे आँचल पर बसे गाँव, कस्बों और शहरों की रौनक मुझसे रही है। एक समय था जब लोग मेरे जल को अमृत समझते थे। भारतवासियों का कोई व्रत, त्यौहार, पर्व-संस्कार आदि 'गंगाजल' के बिना अधूरा रहा करता था। पर आजकल स्थिति बदल गए हैं। मेरे जल को गंदा किया जा रहा है। मेरे तटों पर कूड़ा फैलाया जा रहा है। कई उद्योगों का मलीन पानी भी मुझमें बहाया जा रहा है। मेरे जल में रहने वाले जीव-जंतु भी खत्म हो रहे हैं।

पवित्र गंगा नदी 

मैं देखी हूँ कि लोग कैसे मेरे तटों पर आकर मुझमें स्नान करते हैं और फिर उसी पानी को गंदा करते हैं। मैं देखती हूँ कि कैसे लोग मेरे जल में कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं और यहां तक कि शौच भी करते हैं। मैं देखती हूँ कि कैसे लोग मेरे जल में मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं। मुझे बहुत दुख होता है जब मैं देखती हूँ कि लोग मेरे महत्त्व को भूल रहे हैं। वे मुझे सिर्फ मुझे एक नदी नहीं, बल्कि एक जिवंत देवी मानते थे। लेकिन आजकल वे मुझे सिर्फ एक गंदे नाले के रूप में समझने लगे हैं।

आपको पता है मुझमें बढ़ते हुए इस प्रदूषण के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है आपका घरेलू कचरा। घरों से निकलने वाला कचरा सीधे गंगा में बहा दिया जाता है। उद्योगों का गंदा पानी भी गंगा को प्रदूषित करता है। कृषि रसायन जैसे कीटनाशक और उर्वरक भी गंगा के पानी को दूषित करते हैं। धार्मिक-अनुष्ठानों के दौरान मूर्तियाँ और अन्य सामग्री गंगा में विसर्जित की जाती है जो भी एक बड़ा कारण है। बढ़ता प्रदूषण यहाँ के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इससे मनुष्यों के अलावा पशु-पक्षियों और जलीय जीवों का जीवन संकट में है, मत्स्य पालन का काम प्रभावित हो रहा है और मेरे पानी पीने से कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं। इसके अलावा, जल-प्रदूषण आसपास के लोगों के आजीविका के साधन पर्यटन को भी प्रभावित कर रहा है।

अपनी गंगा को बचाने के लिए कई आवश्यक कदम उठाने होंगे। सबसे पहले आपको लोगों को गंगा प्रदूषण के खतरों के बारे में जागरूक करना होगा। कचरे को अलग-अलग करके उसका निस्तारण करना होगा। उद्योगों को अपने अपशिष्ट का वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण करना होगा। खेतों में कम से कम रसायनों का इस्तेमाल करना होगा। धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का इस्तेमाल करना होगा। सरकार को भी गंगा को बचाने के लिए सख्त कानून बनाना होगा।

मैं आपसे विनती करती हूँ कि आप मुझे बचाने में मेरी मदद करें। आप अपने घर से निकलने वाला कचरा कूड़ेदान में डालें। आप मेरे जल को प्रदूषित करने से बचें। आप मेरे तटों को साफ रखें। आप दूसरों को भी मेरे संरक्षण के लिए जागरूक करें। यदि आपने ऐसा किया तो मैं फिर से उतनी ही स्वच्छ और निर्मल हो जाऊंगी जैसी पहले थी। मैं फिर से लोगों को जीवनदान दूंगी। मैं फिर से धरती की शोभा बढ़ाऊंगी।

आप सभी से मेरी यही विनती है कि आप मुझे बचाएं। मैं आपकी माँ हूँ, आपकी बहन हूँ, आपकी दोस्त हूँ। आप मुझे बचाकर अपना कर्तव्य निभाएं।

आपकी अपनी नदी 

-  गंगा 

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