सोमवार, 4 नवंबर 2024

सामाजिक अलगाव के चहरे पर मुखौटा विकास का ...!

डायरी मोहन की : गाँव में बिताया अनमोल दिन

दिनांक: 4 नवंबर. 2024

समय: रात्रि, 10 बजे 

प्रिय डायरी,

        आज का दिन मेरे जीवन का सबसे अनोखा दिन था। सुबह-सुबह मैं अपने दादा जी के साथ उनके गाँव पहुँचा। शहर के शोरगुल और व्यस्तता से दूर, यह गाँव एक अलग ही दुनिया थी—सादगी से भरी, लेकिन अपनेपन से लबालब। 

गाँव का कुआं 
        गाँव पहुँचते ही दादा जी मुझे गाँव के मंदिर के पास ले गए, जहाँ हर शाम गाँव के लोग इकट्ठा होते हैं। लोग यहाँ बैठकर अपने दिनभर की बातें करते हैं, कोई पुराने किस्से सुनाता है, तो कोई जीवन के अनुभव बाँटता है। कुछ बच्चे मैदान में खेल रहे थे, उनकी हँसी-खुशी में एक अपनापन झलक रहा था। एक बुजुर्ग चाचा, जिन्हें सभी "रामू काका" कहकर बुलाते थे, अपने बचपन की कहानियाँ सुना रहे थे। उन्होंने बताया कि पहले कैसे सब लोग एक-दूसरे के घर बिना किसी औपचारिकता के आ-जा सकते थे। मुझे सुनकर अजीब लगा; हमारे शहर में तो लोग किसी के घर आने से पहले दस बार सोचते हैं।

        अभी बातें चल ही रही थीं कि मैंने देखा कि गाँव के एक घर में कोई चूल्हा नहीं जला था। शाम हो चली थी, लेकिन उस घर से कोई धुआँ नहीं उठ रहा था। मैंने दादा जी से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, गाँव में जब किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता, तो बाकी लोग अपने आप समझ जाते हैं कि वहाँ कुछ समस्या है। मदद के लिए किसी को कहने की ज़रूरत नहीं होती।" और सचमुच, दो महिलाएँ जल्दी ही उस घर के लिए खाना लेकर पहुँच गईं। मैंने उनके चेहरे पर चिंता या सहानुभूति का भाव नहीं देखा, बल्कि एक आत्मीयता थी, जैसे यह उनका अपना ही परिवार हो।

        उसके बाद दादा जी मुझे कुएँ पर ले गए, जहाँ लोग पानी भरने के लिए जमा थे। वहाँ पर हर किसी में एक अपनापन था। किसी को ज़्यादा पानी की ज़रूरत थी, तो कोई खुशी-खुशी अपनी बारी देने को तैयार था। शहर में तो हर कोई बस अपनी जल्दी में रहता है, यहाँ का यह सब कुछ बहुत अलग और सुकून भरा था।

        रात को जब सब लोग वापस अपने घरों में लौटे, तब मुझे एहसास हुआ कि मैंने आज केवल एक दिन में ही कितना कुछ सीख लिया है। यहाँ न तो सोशल मीडिया था, न मोबाइल की घंटियाँ बज रही थीं, लेकिन फिर भी सब एक-दूसरे से कितने जुड़े हुए थे। यह गाँव मुझे सिखा गया कि असली खुशी सुविधाओं में नहीं, बल्कि रिश्तों में है, और असली प्रगति वही है जो हमें हमारे मूल मानवीय मूल्यों से जोड़े रखे।

        आज का यह अनुभव मेरे दिल में हमेशा के लिए बस गया है।

सामाजिक अलगाव के चहरे पर मुखौटा विकास का ...!

प्राचीन भारतीय ग्राम्य जीवन 
प्राचीन भारतीय समाज में भाईचारा और सौहार्द्र एक गहरे ताने-बाने की तरह जीवन का हिस्सा थे। उस समय भले ही आधुनिक संचार साधनों की कमी थी, परंतु एक अदृश्य डोर थी जो हर व्यक्ति को जोड़कर रखती थी। यह डोर थी - प्रेम, करुणा, और सहानुभूति की। लोग न केवल अपने परिचितों, बल्कि अपरिचितों के प्रति भी निःस्वार्थ भाव से मदद का हाथ बढ़ाते थे। अतिथियों का स्वागत सजीवता और उत्साह से किया जाता था, जो भारतीय संस्कृति की अतिथि-सत्कार परंपरा की आधारशिला है। हमारे संस्कार हमें सिखाते थे कि अतिथि देवता के समान है – “अतिथि देवो भव”। इस परंपरा में हर आगंतुक का स्वागत पलक पावड़े बिछाकर होता था, और हर व्यक्ति एक परिवार के सदस्य जैसा महसूस करता था।

उस दौर में लोगों के जीवन में बड़ों और संतों के प्रति गहरा आदरभाव था। बुजुर्गों के अनुभवों और उनके आशीर्वादों को जीवन का आधार माना जाता था। बच्चे, जो इस समाज के भविष्य थे, उनके प्रति दया, करुणा, और क्षमा का भाव रखा जाता था। उन्हें संस्कार देने और सही मार्ग पर चलाने के लिए पूरा समाज तत्पर रहता था। महिलाएँ भी इस समाज का आधार थीं। उनमें शील, लज्जा, और आत्मसम्मान की भावना कूट-कूट कर भरी होती थी। ये गुण ही उन्हें समाज में विशेष स्थान दिलाते थे। इन मूल्यों के कारण ही समाज में एक तरह की आत्मीयता और सुरक्षा का वातावरण बनता था।

आज हमारे पास प्रगति के अनेक साधन हैं। तकनीकी विकास और आर्थिक समृद्धि के चलते, हमारे जीवन में कई सुविधाएं आई हैं। हम वैश्विक गाँव में तो बस गए हैं, लेकिन इसका असर हमारे मूल्यों और संस्कारों पर भी पड़ा है। एक समय था जब लोग एक ही नदी या कुएं का पानी पीते थे, और एक ही चूल्हे से रोटी बनती थी। एक पड़ोसी के घर में चूल्हे का धुआं न उठे, तो दूसरा तुरंत मदद के लिए पहुँचता था। यह वह समय था जब लोगों में "साझेदारी" का भाव इतना मजबूत था कि एक की परेशानी को सभी महसूस करते थे।

आज के समय में, हमारी दुनिया तकनीक और संचार के माध्यमों से जुड़ तो गई है, लेकिन क्या हमने इस यात्रा में अपने मानवीय संबंधों को खो नहीं दिया है? हमारे पास अनगिनत संचार माध्यम हैं; फोन, सोशल मीडिया, इंटरनेट ने दुनिया को हमारी मुट्ठी में ला दिया है। लेकिन यही संचार माध्यम एक तरह से हमें एक-दूसरे से दूर भी कर रहे हैं। हम अपने घर के सदस्यों के दर्द और भावनाओं को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं। "वसुधैव कुटुम्बकम्" का आदर्श हमने जरूर अपनाया है, लेकिन केवल तकनीकी रूप से। भावनात्मक रूप से हम एक-दूसरे से कहीं दूर हो गए हैं।

क्या यही असली प्रगति है? अगर इस विकास का अर्थ केवल भौतिक समृद्धि है, तो शायद हमने जीवन की सच्ची खुशियों को कहीं पीछे छोड़ दिया है। असली प्रगति वही होती है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखे, जो हमारे मानवीय मूल्यों को संजोए रखे। तकनीकी विकास के साथ-साथ हमें अपने मानवीय रिश्तों और समाज में आपसी सौहार्द्र को भी जीवित रखना होगा। तभी हम एक सच्चे मायनों में प्रगति की ओर बढ़ सकते हैं।

शनिवार, 2 नवंबर 2024

पाती गंगा माँ की ...!

मेरे प्यारे बच्चों, 

मैं गंगा हूँ, जिसे भारतवासी 'माँ' कहकर पुकारते हैं। हिमालय की शांत गोद से निकलकर, मैं इस धरती पर जीवन का संचार करती आई हूँ। सदियों से मैं इस देश की आत्मा और संकृति का आधार रही हूँ। मैं अपने अमृततुल्य जल से देश की धरती को सींचती आई हूँ। यहाँ के खेतों में लहलहाती फसलें और फसलों पर झूमती बालियाँ मेरे जल का गुणगान करती थीं। मेरे आँचल पर बसे गाँव, कस्बों और शहरों की रौनक मुझसे रही है। एक समय था जब लोग मेरे जल को अमृत समझते थे। भारतवासियों का कोई व्रत, त्यौहार, पर्व-संस्कार आदि 'गंगाजल' के बिना अधूरा रहा करता था। पर आजकल स्थिति बदल गए हैं। मेरे जल को गंदा किया जा रहा है। मेरे तटों पर कूड़ा फैलाया जा रहा है। कई उद्योगों का मलीन पानी भी मुझमें बहाया जा रहा है। मेरे जल में रहने वाले जीव-जंतु भी खत्म हो रहे हैं।

पवित्र गंगा नदी 

मैं देखी हूँ कि लोग कैसे मेरे तटों पर आकर मुझमें स्नान करते हैं और फिर उसी पानी को गंदा करते हैं। मैं देखती हूँ कि कैसे लोग मेरे जल में कपड़े धोते हैं, बर्तन साफ करते हैं और यहां तक कि शौच भी करते हैं। मैं देखती हूँ कि कैसे लोग मेरे जल में मूर्तियाँ विसर्जित करते हैं। मुझे बहुत दुख होता है जब मैं देखती हूँ कि लोग मेरे महत्त्व को भूल रहे हैं। वे मुझे सिर्फ मुझे एक नदी नहीं, बल्कि एक जिवंत देवी मानते थे। लेकिन आजकल वे मुझे सिर्फ एक गंदे नाले के रूप में समझने लगे हैं।

आपको पता है मुझमें बढ़ते हुए इस प्रदूषण के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है आपका घरेलू कचरा। घरों से निकलने वाला कचरा सीधे गंगा में बहा दिया जाता है। उद्योगों का गंदा पानी भी गंगा को प्रदूषित करता है। कृषि रसायन जैसे कीटनाशक और उर्वरक भी गंगा के पानी को दूषित करते हैं। धार्मिक-अनुष्ठानों के दौरान मूर्तियाँ और अन्य सामग्री गंगा में विसर्जित की जाती है जो भी एक बड़ा कारण है। बढ़ता प्रदूषण यहाँ के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इससे मनुष्यों के अलावा पशु-पक्षियों और जलीय जीवों का जीवन संकट में है, मत्स्य पालन का काम प्रभावित हो रहा है और मेरे पानी पीने से कई तरह की बीमारियां हो सकती हैं। इसके अलावा, जल-प्रदूषण आसपास के लोगों के आजीविका के साधन पर्यटन को भी प्रभावित कर रहा है।

अपनी गंगा को बचाने के लिए कई आवश्यक कदम उठाने होंगे। सबसे पहले आपको लोगों को गंगा प्रदूषण के खतरों के बारे में जागरूक करना होगा। कचरे को अलग-अलग करके उसका निस्तारण करना होगा। उद्योगों को अपने अपशिष्ट का वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण करना होगा। खेतों में कम से कम रसायनों का इस्तेमाल करना होगा। धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का इस्तेमाल करना होगा। सरकार को भी गंगा को बचाने के लिए सख्त कानून बनाना होगा।

मैं आपसे विनती करती हूँ कि आप मुझे बचाने में मेरी मदद करें। आप अपने घर से निकलने वाला कचरा कूड़ेदान में डालें। आप मेरे जल को प्रदूषित करने से बचें। आप मेरे तटों को साफ रखें। आप दूसरों को भी मेरे संरक्षण के लिए जागरूक करें। यदि आपने ऐसा किया तो मैं फिर से उतनी ही स्वच्छ और निर्मल हो जाऊंगी जैसी पहले थी। मैं फिर से लोगों को जीवनदान दूंगी। मैं फिर से धरती की शोभा बढ़ाऊंगी।

आप सभी से मेरी यही विनती है कि आप मुझे बचाएं। मैं आपकी माँ हूँ, आपकी बहन हूँ, आपकी दोस्त हूँ। आप मुझे बचाकर अपना कर्तव्य निभाएं।

आपकी अपनी नदी 

-  गंगा 

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

मेरी दीपावली, सबकी दीपावली, शुभ🪔दीपावली...!

- इंडीकोच डॉट कॉम टीम की तरफ से ... शुभ🪔दीपावली 
दीपावली भारत का सबसे उज्ज्वल और बहुप्रतीक्षित त्योहार है, जो न केवल धर्म और आस्था से जुड़ा हुआ है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक सद्भाव का भी प्रतीक है। यह त्योहार अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, और बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश देता है। भगवान श्रीराम जब 14 वर्षों का वनवास पूरा कर रावण का वध करके अयोध्या लौटे, तो अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनके स्वागत में नगर को सजाया था। यह परंपरा आज भी दीपावली के रूप में जीवंत है, जब हम अपने घरों को रोशनी से सजाते हैं और इसे बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाते हैं।  

दीपावली महज एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि इसके माध्यम से हमें मानवता, प्रेम, और करुणा का संदेश भी मिलता है। यह पर्व नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। दीपों की इस महिमा से केवल घरों में उजाला नहीं होता, बल्कि यह आत्मा के अंधकार को दूर करने और समाज में एकता, प्रेम और सद्भाव की भावना जगाने का भी संदेश देता है। बच्चों और युवाओं को इस त्योहार से जुड़े ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तथ्यों को समझने की जरूरत है, ताकि वे इस पर्व के असली महत्व को जान सकें और अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकें।

दीपावली की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि यह किसी जाति, धर्म या संप्रदाय की सीमा में बंधी नहीं है। यह पर्व सभी के लिए है, हर व्यक्ति के लिए, हर समाज के लिए। चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम, सिख या ईसाई, दीपावली का संदेश सार्वभौमिक है – अच्छाई की जीत, प्यार और भाईचारे का विस्तार। इस त्योहार को मिल-जुलकर मनाना हमारी सामूहिक एकता का प्रतीक है। दीपावली हमें सिखाती है कि समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलना चाहिए। इसी भावना के साथ जब हम इस पर्व को मनाते हैं, तब यह सच में "सबकी दीपावली" बनती है।

आज के आधुनिक युग में, जहां पर्यावरण संरक्षण एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है, दीपावली के दौरान पटाखों का अत्यधिक उपयोग चिंता का कारण है। पटाखों से उत्पन्न होने वाला ध्वनि और वायु प्रदूषण न केवल मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि इससे जानवरों, पक्षियों और प्रकृति को भी भारी नुकसान होता है। नई पीढ़ी को इस बात की समझ होनी चाहिए कि त्योहार तभी सार्थक होते हैं जब वे मानवता और प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी से मनाए जाएं। हमें अपने पारंपरिक त्योहारों को आधुनिक और पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मनाने की आदत डालनी चाहिए।

दीपावली के इस अवसर पर, दीयों का उपयोग करके बिजली की खपत को कम किया जा सकता है। घर को सजाने के लिए प्राकृतिक सामग्रियों और बायोडिग्रेडेबल वस्तुओं का उपयोग करना एक सुंदर पहल हो सकती है। इसके अलावा, प्राकृतिक रंगों से रंगोली बनाकर हम पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा सकते हैं। पटाखों से परहेज करना और इसकी जगह सामूहिक उत्सव मनाना न केवल वातावरण को स्वच्छ बनाएगा, बल्कि समाज के गरीब वर्गों पर आर्थिक बोझ को भी कम करेगा।

नई पीढ़ी को हरित दीपावली के विचार को अपनाना चाहिए। दीयों और मोमबत्तियों का उपयोग करना, रासायनिक रंगों की जगह प्राकृतिक रंगों से रंगोली बनाना, और पटाखों से दूरी बनाकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सामाजिक सेवा की ओर ध्यान देना, ये सब छोटी-छोटी पहलें हैं जो बड़े बदलावों की शुरुआत कर सकती हैं। पर्यावरण के प्रति जागरूक होना आज की पीढ़ी की जिम्मेदारी है, और दीपावली इसके लिए एक प्रेरणादायक अवसर हो सकता है।

दीपावली के इस पावन पर्व पर, गरीबों और वंचितों की सहायता करना भी हमारी सामाजिक जिम्मेदारी का एक हिस्सा होना चाहिए। जब हम अपनी खुशियों को दूसरों के साथ बांटते हैं, तो त्योहार का असली आनंद और भी बढ़ जाता है। दीपावली के अवसर पर किसी जरूरतमंद को मदद करना, उनकी जिंदगी में खुशी के दीये जलाना ही सच्ची मानवीयता का परिचायक है। 

अंततः, दीपावली का असली महत्व तभी समझ में आता है जब हम इसे केवल धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संदेश के रूप में देखते हैं। यह त्योहार हमें प्रेम, करुणा, मानवता, और पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारियों की याद दिलाता है। आइए इस दीपावली, हम सब मिलकर एक ऐसी रोशनी जलाएं जो न केवल हमारे घरों और दिलों को उजाले से भर दे, बल्कि हमारे समाज और पर्यावरण को भी संरक्षित रखे। यही होगी हमारी सच्ची और सार्थक "सबकी दीपावली"।

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