मंगलवार, 28 नवंबर 2023

ई (इलेक्ट्रोनिक) कचरा

जरा कल्पना कीजिए कि आप एक सुनसान समुद्र तट पर हैं। जहाँ की रेत में, आपको प्लास्टिक की बोतलें, मोबाइल के आवरण, संगणक की बटन, लैपटॉप की स्क्रीन, कलम के टुकड़े आदि अपशिष्ट का अंबार मिलता है। आप जानते हैं यह सामान्य कचरा नहीं है। इसे हम इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-कचरा के नाम से जानते हैं। ई-कचरा वह कचरा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के खराब हो जाने पर उनके कचरा हो जाने से पैदा होता है। इसमें पुराने मोबाइल फोन, टीवी, कंप्यूटर, और लैपटॉप आदि अन्य उपकरण शामिल हैं। ई-कचरा एक गंभीर समस्या है क्योंकि यह केवल पर्यावरण ही नहीं बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। यहाँ तक कि समय रहते यदि हम नहीं चेत पाए तो हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। 

ई-कचरा, यह एक ऐसी पर्यावरणीय आपदा है जो हमारे स्वास्थ्य और भविष्य दोनों को खतरे में डाल रही है।ऐसे इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जो खराब हो गए हों या ठीक से काम न कर रहे हों। इनमें उनके घटक, उपभोग्य वस्तुएं, पुर्जे और पार्ट्स भी शामिल हैं। जैसे - मोबाइल, फ्रिज़, एयर कंडीशनर, कंप्यूटर, टेलीविजन, वी.सी.आर., स्टीरियो, कॉपियर और फैक्स मशीन रोजमर्रा के इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद हैं। आदि। दरअसल में ई-कचरा द्वारा जहरीले रसायनों से होने वाले खतरे शामिल है। यह पर्यावरण के लिए एक नया बड़ा संकट पैदा कर सकता है। सन् 2016 में, दुनिया भर में 44.7 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ था। उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ ने ई-कचरा को उसके गंभीर परिणामों के चलते इसे ई-कचरे की सूनामी' का नाम दिया था। 

दिन-प्रतिदिन तकनीकी प्रगति इतनी तेज गति से हमारे सामने आ रही है कि बहुत से इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जो अभी भी ठीक काम करते हैं, उन्हें अप्रचलित माना जाता है। आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स का उपयोग करना और आसपास रहना सुरक्षित नहीं है। हालाँकि, अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक्स में बेरिलियम, कैडमियम, पारा और सीसा सहित कुछ प्रकार के जहरीले पदार्थ होते हैं, जो हमारी मिट्टी, पानी, हवा और वन्य जीवन के लिए गंभीर पर्यावरणीय जोखिम पैदा करते हैं। और तो और ई-कचरे को लैंड फील्ड की ढालूनों में दबाना भी खतरे से खाली नहीं है।लैंडफिल में व्याप्त सकल कीचड़ में सूक्ष्म अंशों में घुल सकते हैं। अंततः, जहरीले पदार्थों के ये निशान लैंडफिल के नीचे जमीन में जमा हो जाते हैं। इसे 'लीचिंग' के रूप में जाना जाता है। लैंडफिल में जितना अधिक ई-कचरा और धातुएं होंगी, भूजल में उतने ही अधिक विषाक्त पदार्थ दिखाई देंगे। इलेक्ट्रोनिक उत्पादों में लगने वाले धातु के नए स्रोतों के लिए भी खनन का एक दुष्प्रभाव है। उससे कई विषैले द्रव्यों का पर्यावरण में घुलने का खतरा है, जो प्राणी और वनस्पतियों के लिए अधिक खतरनाक हो सकते हैं। 

 सौभाग्य से, एक सिद्ध समाधान उपलब्ध है। ई-कचरे का पुनर्चक्रण कई उपयोगी उद्देश्यों को पूरा कर सकता है।

बिजली और बैटरी से चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जैसे कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन, टीवी, वाशिंग मशीन

अन्य सहायक सामाग्री -

  1. ई-कचरा - दुष्परिणाम और प्रबंधन 
  2. अपशिष्ट प्रबंधन: एक चुनौती या अवसर?
  3. ई-कचरा : बढ़ता खतरा और प्रबंधन (विडिओ)

अपशिष्ट प्रबंधन: एक चुनौती या अवसर?

अपशिष्ट का उत्पादन एक गंभीर समस्या है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा है। सामान्य बोलचाल में इसे 'कचरा' के नाम से जानते हैं। अपशिष्ट का अर्थ है, किसी भी पदार्थ का प्राथमिक उपयोग करने के बाद जो बच जाता है, वह 'अपशिष्ट' कहलाता है। हमारे आस-पास जो कुछ भी अनुपयोगी है वह 'अपशिष्ट' है। कचरा ठोस, तरल या गैसीय अवस्था में हो सकता है। सरकारी आंकड़ों की माने तो भारत में हर साल करीब 6 करोड़ 20 लाख टन और हर दिन एक लाख 70 हज़ार टन कचरा पैदा होता है। आम तौर पर स्थानीय एजेंसियां कचरे से निपटने के लिए उन्हें शहरों के आप-पास के ढलावों में भर दिया जाता है। कचरे से निपटने के लिए हमें उसके पुनर्चक्रण की आवश्यकता होती है। 'पुनर्चक्रण' अपशिष्ट को नए उत्पादों में बदलने की प्रक्रिया है। हम अब तक केवल 25% कचरे को ही रिसाइकल कर पा रहे हैं। यह अपशिष्ट के उत्पादन को कम करने और संसाधनों का संरक्षण करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है

अपशिष्ट की समस्या आधुनिक जीवन शैली, बढ़ते शहरी करण एवं औद्योगीकरण से जनित समस्या हैं। ऐसा नहीं है कि प्राचीन काल के हमारे समाज में अपशिष्ट नहीं होता था। किन्तु होने वाला कचरा पुनर्चक्रण के अनुकूल होता था। लोग प्रकृति कि गोद में रहते, प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करते और होने वाला कचरा पुनः प्रकृति में अपघटित हो जाता था। अतः उस समय लोग सुखी थे। आज की स्थिति इसके विपरीत है, कहने के लिए हम विकास कर रहे हैं। लेकिन देखा जाय तो अपशिष्ट प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से हमारे स्वास्थ्य एवं कल्याण को कई तरह से प्रभावित कर रहा है। चाहे वो आम जीवन में प्लास्टिक का उपयोग हो या कृषि में रासायनिक खाद व कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली समस्या। आज हम अपनी प्रगति अपने स्वयं के स्वास्थ्य और आने वाली पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ की कीमत पर कर रहे हैं।  

'अपशिष्ट प्रबंधन' आज के समय में बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है। हम सभी मिलकर अपशिष्ट प्रबंधन की चुनौतियों को दूर कर सकते हैं और अपशिष्ट प्रबंधन के अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। अपशिष्ट के कई स्रोत हैं, जिसमें घरेलू, वाणिज्यिक, औद्योगिक और कृषि शामिल है। अपशिष्ट का उचित प्रबंधन न होने से न केवल हमारी धरती बल्कि आकाश में वायु प्रदूषण और समुद्र की गहराइयों तक जल प्रदूषण की समस्या सिर उठा रही है। अपशिष्ट हमारे पारस्थितिक तंत्र को ही नहीं खराब करता है बल्कि यह समाज पर आर्थिक बोझ भी डालता है। अतः समय रहते यदि इसका उचित प्रबंधन न किया गया तो निकट भविष्य में इसके और भी गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। 

प्लास्टिक अलग करती सफाईकर्मी
संयुक्त राष्ट्र संघ की सिफारिश को माने तो हमें कचरों के ढ़ेर से निपटने के लिए 'शून्य अपशिष्ट' की नीति अपनाने की आवश्यकता है। अर्थात् कचरा फैलाना बंद करना चाहिए। लेकिन यह कितना व्यावहारिक है? हम आप अच्छी तरह जानते हैं। अतः कचरे से निबटने 'अपशिष्ट प्रबंधन' ही एकमात्र और अंतिम उपाय है। इसके लिए हमें अपशिष्ट संग्रहण, उसकी छंटाई और पुनर्चक्रण के लिए एक बुनियादी ढाँचा बनाने की आवश्यकता होती है। यह एक बहुत ही मंहगी और जटिल प्रक्रिया है। इसकी शुरुवात हमें अपने घर /ऑफिस से करनी होगी। हम अपने कचरे को इकट्ठा करते समय ही कचरे के अलग-अलग प्रकार में छांटकर संग्रह करें। जैसे - सूखा कचरा, गीला कचरा, जैविक कचरा, बायो-मेडिकल कचरा, ई-(इलेक्ट्रॉनिक) कचरा,  पुनर्चक्रण योग्य कचरा, हरा कचरा और खतरनाक कचरा आदि। प्लास्टिक के अत्यधिक उपयोग और लंबे समय से प्लास्टिक के निपटान समाधानों की उपेक्षा के कारण न केवल भारत बल्कि कई अन्य देशों को भी प्लास्टिक से बढ़ते पर्यावरणीय नुकसान के कारण इसे सीमित करने के लिए कानून अपनाने पड़े हैं।

आज के आधुनिक जीवन शैली में जहाँ हम दिन प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर हैं। वहीं अपने पीछे रोजाना ढ़ेर सारे प्लास्टिक और इलेक्ट्रोनिक कचरे को फैला रहे हैं। जिसके प्रबंधन में चुनौती के साथ साथ नए अवसर भी तलासे जा रहे हैं। जहाँ प्लास्टिक कचरे का पुरर्चकरण कर नए प्लास्टिक उत्पाद, पर्यायी ईंधन और सड़क निर्माण के क्षेत्र में काम हो रहा है। वहीं जनता में साफ-सफाई व कचरा प्रबंधन के प्रति जागरूकता अभियान कार्यक्रम अपनाए जा रहे हैं। इसी राह पर चलकर भारत का प्राचीन शहर इंदौर अपने आप में अपनी साफ-सफाई और चमचमाती सड़कों के लिए दुनिया भर में नाम कर रहा है। हमें भी बस एक पहल करने की आवश्यकता है। जल्द ही हम इस क्षेत्र में भी अवश्य जीत हासिल करेंगे।  

अन्य स्रोत सामग्री -
  1. विकिपीडिया 
  2. अपशिष्ट प्रबंधन-दृष्टि आईएएस
  3. शून्य अपशिष्ट - यूएनओ


मंगलवार, 21 नवंबर 2023

छठ पर्व की छटा निराली - स्वास्थ्य और संस्कृति का संगम

छठ महापर्व पर सूर्य को अर्घ्य देती महिला  
उत्तर भारत के बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में छठ के पर्व को विशेष महत्व दिया जाता है। यह पर्व इसलिए भी खास है क्योंकि इस दिन लोग किसी मंदिर में जाकर पूजा-पाठ नहीं करते, बल्कि प्रकृति की गोद में आराधना करते हैं। दरअसल छठ के पर्व में सूर्य देव को बहुत महत्व दिया जाता है। इसकी शुरुआत सुबह सूर्य देव के जलाभिषेक से होती है और समापन भी इसी तरह से होता है। हमारे ग्रंथों में भी सूर्य को सुबह जल चढ़ाने को विशेष बताया गया है। लेकिन ये सिर्फ परंपरा है या इसके पीछे कुछ विज्ञान भी है। धूप से मिलने वाले विटामिन-D के बारे में तो हम जानते हैं लेकिन क्या धूप के और भी फायदे हैं? आज का विज्ञान सूर्य की रौशनी और हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके असर के बारे में क्या कहता है, आइए इस ब्लॉग में समझने की प्रयास   करते हैं

विटामिन-डी
विटामिन-डी को 'सनशाइन विटामिन' भी कहा जाता है। क्योंकि ये धूप से मिलता है और कुछ चुनिंदा विटामिन में से है, जिन्हें हमारा शरीर खुद बना सकता है। लेकिन एक विडंबना ये भी है कि फ्री में बनने वाले इस विटामिन की भी हमारे देश के लोगों में कमी है। टाटा 1mg के एक सर्वे में देखा गया कि 76% भारतीय विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त हैं। दिन के आधे घंटे में बन जाने वाला ये विटामिन भी आज हम लोगों में कम है। शायद इसी लिए हमारे पूर्वज सूर्य को इतनी अहमियत देते थे। सूर्य की पूजा के पीछे चाहे जो कारण रहे हों। लेकिन आज विज्ञान भी ये मानता है कि सूरज कि रोशनी हमारे लिए कितनी जरूरी है।
कैल्शियम हमारी हड्डियों के लिए कितना जरूरी है। कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और कमजोर हड्डियों में फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है। हल्की सी चोट और हड्डी चटकी, लेकिन इससे बचने में धूप हमारी मदद कर सकती है। दरअसल, धूप से बनने वाला विटामिन-डी कैल्शियम को सोखने में अहम भूमिका निभाता है। और उन्हें मजबूत बनाता है। कितना भी कैल्शियम खा लें, बिना विटामिन-डी के उसे अब्सॉर्ब करना मुश्किल हो जाता है।

बैक्टीरिया हमारे चारों तरफ हैं। इनमें से ज्यादातर तो हमें कुछ खास नुकसान नहीं पहुंचाते लेकिन कुछ हमें बहुत बीमार बना सकते हैं। फिक्र मत कीजिए अपने घर की खिड़की खोल के जरा धूप अंदर आने दीजिए और इन बीमार करने वाले बैक्टीरिया को मार भगाइए। धूप बैक्टीरिया भी खत्म करती है। यूनिवर्सिटी ऑफ ओरेगॉन में इस बारे एक रिसर्च हुई, जिसमें देखा गया कि एक अंधेरे कमरे में बैक्टीरिया 12% थे। लेकिन जब उस कमरे में धूप आने दी गई तो बैक्टीरिया की आबादी घटकर 6% हो गई।

धूप हड्डियों और विटामिन-डी को तो दुरुस्त रखती ही है। ये ब्लड प्रेशर भी घटाती है। ये जानकारी यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ हैम्पटन में हुई एक रिसर्च में सामने आई। रिसर्च में पता चला कि धूप में रहने से नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) गैस हमारी स्किन के जरिए ब्लड वेसेल्स में पहुंच जाती है। ब्लड वेसेल्स को सिकुड़ने से रोक कर ब्लड प्रेशर कम करने में मदद करती है। हाई ब्लड प्रेशर से हार्ट डिजीज और किडनी डिजीज का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में धूप ब्लड प्रेशर काबू में रख कर, इन बीमारियों का खतरा भी कम कर सकती है।

आपने कभी ध्यान दिया है कि कुछ लोग बिना घड़ी देखे सही समय पर जग जाते हैं। इसके पीछे भी एक विज्ञान है। वह है हमारे शरीर की जैविक-घड़ी। दरअसल, हम आँखों से देखकर तो दिन-रात का अंदाजा लगाते हैं। हमारे शरीर में कोशिकाएं भी दिन और रात के बारे में जानकारी रखती हैं और उसी हिसाब से काम करती हैं।लेकिन आजकल रात में फोन की स्क्रीन और तेज लाइटों से हम अपने दिमाग को कंफ्यूज कर देते हैं। और हमारा स्लीप साइकिल बिगड़ जाता है। फिक्र मत कीजिए धूप इसे सही करने में भी हमारी मदद कर सकती है।नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिसर्च में देखा गया कि सुबह की रोशनी में रहने से दिमाग में मेलाटोनिन नाम का एक केमिकल निकलता है, जो हमारी नींद सुधारने में मदद करता है।

हमारे ग्रंथों में भी सुबह सूर्य की आराधना को खास अहमियत दी गई है और बताया गया है कि सुबह में सूर्य नमस्कार कई बीमारियों को दूर रखता है।अमेरिकन नेशनल हेल्थ एंड न्यूट्रिशन मैगजीन में छपी एक स्टडी के मुताबिक विटामिन-डी की कमी का एंग्जायटी और मूड से सीधा कनेक्शन है। ‘काम योर माइन्ड विथ फूड‘ की लेखिका, न्यूट्रिशनिस्ट और साइकिएट्रिस्ट डॉ. उमा नायडू बताती हैं कि इस दिशा में हुए कई शोध ये इशारा करते हैं कि विटामिन-डी डिप्रेशन और एंग्जायटी के खिलाफ भी असरदार है। विटामिन-डी दिमाग में न्यूरो-स्टेरॉइड नाम के केमिकल की तरह काम करता है और एंग्जायटी से लड़ने में मदद करता है।कुछ लोगों को मौसम बदलने के साथ भी डिप्रेशन होता है। मेडिकल साइंस की भाषा में इसे ‘सीजनल इफेक्टिव डिसॉर्डर’ कहते हैं। लोग इसके शिकार सर्दियों में ज्यादा होते हैं, इसलिए इसे विंटर डिप्रेशन भी कहा जाता है।

अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिसर्च में ये भी देखा गया कि दिन में पर्याप्त रौशनी और धूप वाली जगह में रहकर इस तरह के डिप्रेशन से बचा जा सकता है। मतलब धूप सिर्फ ‘कोई मिल गया’ फिल्म के जादू के लिए नहीं जरूरी, ये हमारे लिए भी बड़ी फायदेमंद है। तो देर किस बात की खिड़की खोलिए और थोड़ा जगमगाती धूप अंदर आने दीजिए।

साभार - दैनिक भाष्कर

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