रविवार, 5 नवंबर 2023

आम नहीं ख़ास कहें हुज़ूर!

आम
आम एक ऐसा फल है जो अपने आप में ही खास है। इसे किसी अन्य फल से तुलना करने की आवश्यकता नहीं है। जो अपने विशेष रंग, सुगंध और अप्रतिम स्वाद के लिए जाना जाता है। यह भारत में सबसे लोकप्रिय फलों में से एक है। एक ऐसा फल है जो आम लोगों को भी खुशी और आनंद देता है। आम भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। जिसका उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों, इतिहास और साहित्य में कई बार उल्लिखित हुआ है। अपने मूल रूप से यह भारत में ही उत्पन्न हुआ था। इतिहास की माने तो इसे सिकंदर महान के सैनिकों ने इसे पहली बार सिंधु नदी के आस-पास देखा था। आम के पेड़ों का उल्लेख संस्कृत के महाकवि कालिदास और अरबी-फ़ारसी के मशहूर शायर 'अमीर खुसरो' जैसे प्राचीन भारतीय लेखकों के कार्यों में भी मिलता है। आम के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत और मध्य युगीन कई अन्य विदेशी यात्रियों के संस्मरणों में भी मिलता है। मुगल सम्राट बाबर ने अपने आत्मवृत्त 'बाबरनामा' में आम के बारे में कहा है कि 'यह भारत का सबसे स्वादिष्ट फल है।' इसी प्रकार शाहजहां से लेकर अकबर तक लगभग सभी मुगल सम्राट आम के मुरीद थे। आम भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। कई कवियों और लेखकों ने आम के बारे में कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। आम का उल्लेख हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में साहित्य में किया गया है। रामायण और महाभारत में भी आम का उल्लेख मिलता है। 

आम का निर्यात 
आम एक मौसमी फल है और आम का मौसम गर्मियों में होता है। भारत समेत दुनिया भर में आम की कई किस्में उगाई जाती हैं, जिनमें दशहरी, सफेदा, लंगड़ा, केसर, कलमी, देशी और हापुस (अल्फ़ान्सो) आदि शामिल हैं। भारत दुनिया का सर्वाधिक आम उत्पादक देश है। उसके बाद चीन और थाईलैंड हैं। भारत में आम की 1500 से ज़्यादा किस्में पाई जाती हैं। हर किस्म का स्वाद, आकार, और रंग अलग-अलग होता है। आम को कई तरह से खाया जा सकता है। इसे कच्चा या पका दोनों तरीके से खाया जा सकता है। इससे मिठाइयाँ, चटनी, अचार और मुरब्बा आदि व्यंजनों को बनाया जा सकता है। उत्तर भारत में जहाँ आम के पना बनाया जाता है, वहीं आम का उपयोग भारत भर में कई तरह के पारंपरिक व्यंजनों में किया जाता है। आम एक पौष्टिक फल भी है। यह विटामिन-सी, पोटेशियम और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों का एक अच्छा स्रोत है। दुनिया भर में भारत आम का सबसे बड़ा निर्यातक है। लगभग 50 हजार करोड़ रुपयों का निर्यात भारत हर वर्ष करता है।

आम एक तो वैसे ही सबसे खास होता है, उस पर से अगर अवध प्रांत का हो तो फिर बात ही क्या कहने? ब्रिटिश काल के अंतिम दौर के अवधी कवि पुष्पेन्दु जैन लिखते हैं कि - 

‘लखनऊ का सफेदा और लंगड़ा बनारस का यही दो आम जग में उत्तम कहायो है। 
लखनऊ के बादशाह दूध से सिचायो वाको, वाही के वंशज सफेदा नाम पायो है। 
या से लड़न को बनारस से धायो एक, बीच में ही टूटी टांग, लंगड़ा कहायो है। 
कहै पुष्पेन्दु वाने जतन अनेक कीने, तबहूं सफेदे की नजाकत न पायो है।’

मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी आम के ऐसे दीवाने थे कि आम के मौसम में आम के सिवा कुछ और बात करना उन्हें कतई पसन्द नहीं था। 

‘नाम न कोई यार को पैगाम भेजिए। 
इस फस्ल में जो भेजिए, बस आम भेजिए।’

आज के दौर के लोकप्रिय शायर 'मुनव्वर राणा' भी आम की दीवानगी में कहते हैं, 

‘इंसान के हाथों की बनाई नहीं खाते, 
हम आम के मौसम में मिठाई नहीं खाते।’ 

आम जैसे रसीले फल के लिए लेखकों और कवियों की भाषा के शब्द कम पड़ जाते हैं। लखनऊ के आस-पास तो आम के किस्से आम हैं। लखनऊ से महज 30 किलोमीटर 'मलीहाबाद' को आम की राजधानी के रूप में जाना जात है। यहाँ के लगभग दो हज़ार से ज़्यादा बाशिंदे कई पीढ़ियों से पिछले सैकड़ों सालों से आम की 700 से अधिक क़िस्मों की पैदावार सैकड़ों बगीचों में उगाते आ रहे हैं। 'पद्मश्री हाजी कलीमुल्लाह खान' ने यहाँ के आम की मिठास को दुनिया भर में पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। वे बताते हैं कि 'हमारे गांवों में आज भी ये रिवाज है कि पड़ोसी के यहाँ से आए बरतन खाली नहीं वापस किए जाते। उनमें कुछ न कुछ रखकर ही भिजवाया जाता है।' इसी बहाने पड़ोसियों के एक दूसरे के अलग-अलग रसीले आमों का स्वाद चखने का मौका जो मिलता है, क्योंकि लोग एक दूसरे को आम भेजते हैं। मलीहाबाद के आम खाने के उस्ताद अब्दुल कदीर खां से किसी ने पूछा कि आप एक बार में कितने आम खाते हैं? तो खां साहब ने जवाब दिया-एक दाढ़ी । मतलब ये है कि वे उकड़ूं बैठ जाते थे और आम अपने सामने रख लेते थे। फिर जब तक आम की गुठलियों और छिलकों का ढेर बड़ा होते होते उनकी दाढ़ी को छू नहीं लेता, वे आम खाते रहते थे।

यह बात हुई आम खाने की। मगर मलीहाबाद में ही एक ऐसे भी शख़्स हुए हैं जो आम खाने के लिए नहीं बल्कि आम छीलने के लिए दूर दूर तक मशहूर थे। उनका नाम था मुशीर खां। आम छीलने में उन्हें ऐसी महारथ हासिल थी कि कुएं की जगत पर बैठकर जब मलीहाबादी दशहरी छीलते थे तो मजाल क्या कि छिलका बीच से टूट जाए। इतना महीन छिलका छीलते थे कि छिलका गोल-गोल घूमता हुआ कुएं के पानी में छू जाता था। मगर ये तब की बात थी जब हमारे यहां कुएं बहुत हुआ करते थे और उनमें पानी भी खूब होता था। अब तो कुएं छोड़िए आंख का पानी भी मरता जा रहा है।’

आम पर इन तमाम रसों के जरिए जो कुछ भी कहा गया है उससे कहने वालों की ही शान बढ़ी है। आम तो उनके कहने से पहले भी राजा था, कहने के दौर में भी राजा रहा और हमेशा राजा ही बना रहेगा। मंडियों, बाजारों और बड़े बड़े माॅल से लेकर फुटपाथों के ठेलों तक हर गरीब-अमीर के लिए सुलभ आमों को खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन आम के बागों में बैठ कर आम की दावतों का लुत्फ लेना तो वाकई परम आनंद पाना है। इसीलिए अवध में आम की दावतें अब भी होती हैं और खाने वाले तथा खिलाने वाले दोनों को ही तृप्त करती हैं।

(ध्यानार्थ - यह आलेख छात्रों के स्तर और उपयोगिता के आधार पर परिवर्धित करके पुनः साझा किया गया है।)

मूल लेखक - गोविंद पंत राजू

साभार - सत्याग्रह डॉट कॉम

अन्य सहायक सामग्री :-

  1. औरंगजेब और आम - जनसत्ता
  2. दुनिया को भारत का नायाब तोहफ़ा ‘आम

खादी और गांधी : देश का गौरव

        भारतीय विरासत में खादी एक महत्वपूर्ण वस्तु है जो हम सभी के लिए गौरव का विषय है। खादी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास का प्रतीक रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में खादी के कपड़े के प्रमाण मिले हैं। यह माना जाता है कि खादी का उत्पादन और उपयोग भारत में हजारों सालों से होता आ रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि 'जब दुनिया वनवासी जीवन जी रही थी हमने सभ्यता के विकास के साथ ही वस्त्र और आभूषण पहनना सीख लिया था।' 

खादी का आधुनिक इतिहास महात्मा गांधी के साथ जुड़ा हुआ है। गांधीजी ने खादी को आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का प्रतीक माना। तब से खादी और गांधी एक दूसरे की पूरक से हो गए हैं। उन्होंने लोगों से खादी पहनने और उसका समर्थन करने का आह्वान किया। गांधीजी के प्रयासों से खादी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया। भारत में खादी का उत्पादन और विपणन 'खादी और ग्रामोद्योग आयोग' (KVIC) द्वारा किया जाता है। KVIC एक सांविधिक निकाय है जो खादी और ग्रामोद्योग के विकास और प्रचार के लिए जिम्मेदार है। खादी भारत की संस्कृति और परंपरा का पहचान बन चुका है। खादी आज देश की पहचान ही नहीं अपितु खादी के उत्पादों की उपयोगिता, उनका देश की अर्थव्यवस्था में योगदान आदि देश के गौरव की बात करता है।

राष्ट्रपिता गांधी और खादी - 

गांधी जी और चरखा
        महात्मा गांधी ने खादी को ने न केवल आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का प्रतीक माना था बल्कि देश की आजादी में एक हथियार के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने लोगों से खादी पहनने और उसका समर्थन करने का आह्वान किया। गांधीजी के प्रयासों से खादी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गई। आज, खादी भारत की एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। खादी के उत्पादों का उत्पादन और विपणन लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करता है। खादी भारत की पहचान का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

खादी के उत्पाद - 

खादी भी एक प्रकार का कुटीर उद्योग है जो हाथ से काते गए और बुने गए सूत से कपड़ा बनाता है। यह एक प्राकृतिक कपड़ा होता है, जो पहनने में स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह आराम दायक होने के साथ ही सर्दी के मौसम में गर्माहट और गर्मी में ठंडक प्रदान करता है। खादी के उत्पादों का उपयोग घरेलू और औद्योगिक दोनों क्षेत्रों में किया जाता है। खादी के कपड़े, पर्दे, गद्दे, तकिये, दरी, चटाई, आदि घरेलू उपयोग में आते हैं। खादी के कपड़े से बने कुर्ता-पायजामा, सदरी, सूट, मिरजई, सलवार-कुर्ता, धोती, साड़ी, टोपी, आदि पहने जाते हैं। खादी के कपड़ों के अलावा ग्रामोद्योग से संबन्धित बर्तन, खिलौने, कुटीर उद्योग के साबुन, तेल, शैम्पू, मोमबत्ती, आचार, पापड़, शहद, जूते और झोला इत्यादि भी बाजार में खादी भंडार में उपलब्ध रहते हैं। कुटीर और ग्रामोद्योग भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये छोटे और मझोले दर्जे के उत्पादक होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। हम कुटीर और ग्रामोद्योगों को बढ़ावा देकर, भारत सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आय के अवसरों को बढ़ावा दे सकते हैं। यह भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने में भी मदद कर सकता है। खादी का देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। खादी के उत्पादों के उत्पादन और विपणन से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। खादी के निर्यात से देश को विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है। खादी का उत्पादन और विपणन देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है।

खादी देश की पहचान - 

खादी भारत की पहचान है। यह भारत की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है। खादी का उपयोग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रतीक भी था। गांधीजी ने खादी को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया था। गांधीजी का मानना था कि खादी का उपयोग करके हम भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकते हैं। गांधीजी भारत के राष्ट्रपिता हैं। उन्होंने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया। गांधीजी ने खादी को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया। उन्होंने खादी को भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का आधार माना। इस प्रकार गांधीजी के प्रयासों से ही खादी भारत की पहचान बन गई। 

खादी के संरक्षण और विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं:- 

    • खादी के उत्पादों के गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए।
    • खादी के उत्पादों के विपणन के लिए नए तरीकों को विकसित किया जाना चाहिए।
    • खादी के उत्पादों को अधिक किफायती बनाया जाना चाहिए।
    • खादी के उद्योग को सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

इन सुझावों के कार्यान्वयन से खादी के उत्पादों की मांग बढ़ेगी और खादी का उद्योग और अधिक विकसित होगा। इससे देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी।

अन्य सहायक संसाधन:

बुधवार, 1 नवंबर 2023

"मुहावरे/लोकोक्तियाँ: भाषा की गहराइयों का खजाना"

    मुहावरों और लोकोक्तियाँ हमारी भाषा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इनके प्रयोग से हम अपनी भाषा को और भी प्रभावी ढंग से समझ पाते हैं। इनको यदि हम साहित्यिक धरोहर कहें तो कोई आश्चर्य की बात न होगी। इनसे व्यक्ति की भाषिक कौशल का परिचय भी मिलता है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम मुहावरों और लोकोक्तियों के महत्व, उपयोग, और उनके साहित्यिक महत्व पर भी चर्चा करेंगे। इसे और विस्तार से समझने से पहले आइये 'बरसात की एक रात' - (1981) का यह गीत सुनते हैं।


    इस गीत में कई मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग इस गाने के प्रभाव को चार चाँद लगा देता है। यह गीत  व्यक्ति विशेष की स्थिति को इन मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से प्रकट करता है। :-

मुहावरे 

  • खुल गया पोल, (पोल खुलना) 

अर्थ -  सत्य प्रकट हो जाना, वास्तविक या भेद खुल जाना, राज खुलना 

वाक्य प्रयोग - कोरोना की भयावहता को देखकर सरकारी व्यवस्था की पोल खुल गई।

  • शेर को ललकारा (शेर बनाना)  

अर्थ - अपने से ज़्यादा ताक़तवर से छेड़छाड़ करना, अनियंत्रित होना

वाक्य प्रयोग - रोहन से बात करना शेर को ललकारने से कम नहीं है। 

  • शंख बजाना 

अर्थ - महान काम शुरू करना 

वाक्य प्रयोग - परीक्षा की तैयारी के लिए कल से ही शंख बाजा लेना अच्छा रहेगा।  

  • बाज़ी हारना

अर्थ - शर्त हार जाना, पराजित (हार) हो जाना, 

वाक्य प्रयोग - मैच के लिए बड़ी मेहनत करने के बाद भी हमारी टीम उनसे बाजी हार गई। 

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लोकोक्तियाँ (कहावतें) 

  • कौवा हंस की चाल चला

अर्थ - नकल के चक्कर में मूर्खता कर नुकसान उठाना

वाक्य प्रयोग -रमेश कुछ दिन विदेश क्या रह कर आया उसके तो तौर-तरीके ही बदल गए, इसे कहते हैं कौवा चला हंस की चाल।  

  • जिसका काम उसकी को साजे और करे ठेंगा (डंडा) बाजे

अर्थ - जो व्यक्ति जिस काम में निपुण हो वही उसे अच्छी तरह कर सकता है। 

वाक्य प्रयोग - शिवम मोबाइल बनाने के चक्कर में अपने ही हाथ पर चोट लगा लिया। बेहतर होता कि किसी मैकेनिक से बनवा लेटा। यह तो वही बात हुई कि जिसका काम उसी को साजे, और करे तो .... । 

  • छोटा मुँह और बड़े बोल (छोटा मुँह, बड़ी बात)

अर्थ - उम्र में छोटा होकर भी बातें बड़ो जैसी करना है।

वाक्य प्रयोग - रमेश को उसके पिताजी पढ़ा ही रहे थे कि वह अपने पिताजी को ज्ञान देने शुरू कर दिया,  यह तो छोटा मुंह, बड़ी बात है। 

  • चुल्लू भर पानी में डूब मारना 

अर्थ - अत्यंत शर्मनाक स्थिति में होना

वाक्य प्रयोग - कोमल को लोग शरीफ़ समझते थे, लेकिन उसकी गलती पकड़े जाने पर उसकी स्थिति चुल्लू भर पानी में डूब मरने की हो गई थी। 

इस गीत में इन मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किसी की स्थिति और भावनाओं को दर्शाने के लिए किया गया है, और इसके द्वारा किसी व्यक्ति की मनःस्थिति को व्यक्त किया जा रहा है।

लोकोक्तियाँ और मुहावरे का सांस्कृतिक प्रभाव - 

    लोकोक्तियाँ (कहावतें) और मुहावरे (मुहावरे) का कई समाजों में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक महत्व है। वे किसी समुदाय की भाषा, संचार और सांस्कृतिक पहचान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहाँ लोकोक्तियाँ और मुहावरे के कुछ सांस्कृतिक प्रभाव दिए गए हैं:-

  • परंपराओं और ज्ञान का संरक्षण: लोकोक्तियाँ और मुहावरे अकसर पारंपरिक ज्ञान और मूल्यों को धारण करते हैं। वे पीढ़ियों से चले आ रहे हैं और किसी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत और ज्ञान को संरक्षित करने में मदद करते हैं।
  • प्रभावी संचार: ये अभिव्यक्तियाँ संक्षिप्त और अर्थ से भरपूर हैं, जो उन्हें प्रभावी संचार के लिए उपयोगी बनाती हैं। वे जटिल विचारों और भावनाओं को कुछ शब्दों में व्यक्त करने में मदद करते हैं, जिससे भाषा की समृद्धि बढ़ती है।
  • सांस्कृतिक पहचान: ये अभिव्यक्तियाँ अकसर किसी विशिष्ट संस्कृति या क्षेत्र के लिए अद्वितीय होती हैं। वे उस संस्कृति के इतिहास, विश्वास और मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हैं, इसकी विशिष्ट पहचान में योगदान करते हैं।
  • मौखिक परंपरा: लोकोक्तियाँ और मुहावरे का प्रयोग अकसर मौखिक कहानी कहने, लोककथाओं और गीतों में किया जाता है। वे आख्यानों में गहराई और स्वाद जोड़ते हैं, जिससे वे आकर्षक और प्रासंगिक बन जाते हैं।
  • हास्य और बुद्धि: कई मुहावरे और कहावतें हास्यप्रद और मजाकिया हैं। इन्हें अकसर हास्य और व्यंग्य में उपयोग किया जाता है, जिससे संस्कृति की भाषा और अभिव्यक्ति में मनोरंजन का तत्व जुड़ जाता है।
  • सामाजिक और नैतिक मार्गदर्शन: इन अभिव्यक्तियों में अकसर नैतिक और नैतिक पाठ शामिल होते हैं, जो व्यक्तियों को व्यवहार करने और निर्णय लेने के तरीके के बारे में मार्गदर्शन करते हैं। वे सलाह और नैतिक मानकों के सामूहिक स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।
  • साहित्यिक और कलात्मक कृतियाँ: लेखक, कवि और कलाकार अकसर इन अभिव्यक्तियों से प्रेरणा लेते हैं। वे गहराई और प्रामाणिकता पैदा करने के लिए अपने कार्यों में लोकोक्तियाँ और मुहावरे को शामिल करते हैं।
  • सांस्कृतिक बंधन: इन अभिव्यक्तियों का उपयोग किसी संस्कृति के सदस्यों के बीच अपनेपन और संबंध की भावना को बढ़ावा देता है। वे एक साझा भाषा बनाते हैं जो सांस्कृतिक बंधनों को मजबूत करती है।
  • शिक्षण उपकरण: युवा पीढ़ी को सांस्कृतिक मूल्य और ज्ञान प्रदान करने के लिए लोकोक्तियाँ और मुहावरे का उपयोग शिक्षण उपकरण के रूप में किया जाता है। वे बच्चों को उनकी विरासत और परंपराओं के बारे में शिक्षित करने में मदद करते हैं।
  • अंतर-सांस्कृतिक समझ: विभिन्न संस्कृतियों की कहावतों और मुहावरों के बारे में सीखने से उन संस्कृतियों की बेहतर समझ हो सकती है। यह सांस्कृतिक अंतर को पाटने और अंतर सांस्कृतिक संचार को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।

संक्षेप में, लोकोक्तियाँ और मुहावरे केवल भाषाई अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं बल्कि किसी संस्कृति की पहचान, संचार और परंपराओं के अभिन्न अंग हैं। वे एक समाज के सामूहिक ज्ञान और अनुभवों को साथ लेकर चलते हैं, जो उन्हें किसी संस्कृति को समझने और उसकी सराहना करने के लिए अमूल्य बनाते हैं।

अन्य स्रोत सामग्री

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