मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

PYP - 1. अपना परिचय

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PYP - 2. परिचय - दोस्त / सहेली का

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सोमवार, 28 अप्रैल 2025

नवाचार: वर्षा जल संचयन से वर्षा-विद्युत तक (बरखा 🌧️और बिजली⚡)

वर्षा जल संचयन से वर्षा-विद्युत तक (बरखा और बिजली) वर्षा जल संचयन से वर्षा-विद्युत तक (बरखा और बिजली)
"वर्षा की हर बूँद में छिपा है, भारत का उज्ज्वल भविष्य!"
बरखा और बिजली: वर्षा से ऊर्जा उत्पादन

हम एक ऐसे युग में पहुँच चुके हैं जहाँ विज्ञान, तकनीक और प्रकृति का सामंजस्य ही विकास का असली मार्गदर्शन बन गया है। वर्षा, जिसे हमने सदियों से जीवनदायिनी माना — अब केवल जल संरक्षण तक सीमित नहीं रही, बल्कि 'ऊर्जा निर्माण' का भी स्रोत बन गई है।

और इसी अद्भुत यात्रा की कहानी है — "बरखा और बिजली"

वर्षाजल संचयन ने पहले ही सूखे से जूझती मानवता को आशा दी थी। लेकिन अब विज्ञान ने हमें एक और चमत्कारिक अवसर दिया है: वर्षा की बूँदों से सीधे बिजली उत्पन्न करने की तकनीक!

सिंगापुर के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह तकनीक पारंपरिक जल-विद्युत संयंत्रों से दस गुना अधिक प्रभावी है — छोटी सी बूँद गिरते ही ऊर्जा का संचार!

भारत — जो औसतन 1170 मिमी वार्षिक वर्षा प्राप्त करता है — इस नवाचार के लिए एक उपयुक्त भूमि है।

चेरापूंजी से लेकर कोंकण पट्टी तक, केरल के घने वनों से ओडिशा के तटीय गाँवों तक, असंख्य क्षेत्र इस बरसात को बिजली में बदलकर आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं। आज भी भारत के करोड़ों ग्रामीण नागरिक स्थायी बिजली आपूर्ति से वंचित हैं।

कल्पना कीजिए — यदि वर्षा की बूँदें हर घर में रोशनी भर दें, खेतों में पंप चलाएँ, गाँवों की गलियों को रोशन कर दें — तो क्यों न होगा, स्वावलंबी भारत अपना?

तकनीकी दृष्टि से यह प्रणाली अत्यंत सरल है: गिरती बूँदों की यांत्रिक ऊर्जा को संवेदनशील उपकरण विद्युत में बदलते हैं। जहाँ विशाल बांधों और भारी निवेश की आवश्यकता पारंपरिक हाइड्रोपावर में होती है, वहीं वर्षा-ऊर्जा तकनीक सस्ती, सरल और पर्यावरण अनुकूल है। सबसे बड़ी बात — यह विकेन्द्रीकृत ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देती है, जिससे स्थानीय गाँव और कस्बे अपनी ऊर्जा स्वयं उत्पन्न कर सकते हैं।

परंतु, तकनीक तभी साकार होगी जब समाज जागरूक होगा। हमें ग्राम सभाओं, युवाओं, और नीति-निर्माताओं के बीच इस संभावना का प्रसार करना होगा। सरकारों को भी चाहिए कि वित्तीय सहायता और नीतिगत समर्थन देकर इस स्वच्छ ऊर्जा क्रांति को मजबूती प्रदान करें। बरखा और बिजली — यह केवल विज्ञान का चमत्कार नहीं है, बल्कि सतत विकास, हरित भविष्य और आत्मनिर्भर भारत की कुंजी है।

जब हम प्रकृति की हर बूँद से शक्ति अर्जित करेंगे, तभी हम सच्चे अर्थों में प्रकृति के साथी बनेंगे — और भविष्य को अपनी मुट्ठी में भर लेंगे।

हर बूँद से दीप जलाएँ, हर दीप से देश रोशन करें।
जय हिंद 🇮🇳 | जय भारत | जय प्रकृति 🌿

🌸नारी सशक्तिकरण: समता की संजीवनी | नए भारत की शक्ति

नारी सशक्तिकरण: समता की संजीवनी | नए भारत की शक्ति
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

जगत के आदिकाल से नारी को सृजनशक्ति, संवेदनशीलता एवं संस्कारिता का मूर्तरूप माना गया है। शास्त्रों ने उद्घोष किया — "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:"(²) — अर्थात् जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहीं देवत्व वास करता है। किंतु विडंबना है कि सदियों तक नारी को सामाजिक बेड़ियों में जकड़ कर उसके व्यक्तित्व का दमन किया गया।

"स्त्री और पुरुष की समानता कोई दया नहीं, अपितु न्याय का अनिवार्य तत्त्व है।"

गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि यदि नारी को अपने अधिकार और सामर्थ्य का बोध हो जाए, तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र को नवचेतना से सिंचित कर सकती है। भारतीय इतिहास में नारी की तेजस्विता के स्वर्णिम उदाहरण हैं — झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, मीरा बाई, सावित्रीबाई फुले जैसे प्रेरणास्रोत।

आज भी समाज का एक बड़ा वर्ग नारी के प्रति रूढ़ियों और असमानताओं से ग्रसित है। भ्रूण हत्या, बाल विवाह, कार्यस्थलों पर भेदभाव तथा घरेलू हिंसा जैसी कुप्रथाएँ हमारी आधुनिकता पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं।

शिक्षा ही वह दीप है, जो नारी जीवन के अंधकार को आलोकित कर सकती है। शास्त्र भी कहते हैं —
या देवी सर्वभूतेषु विद्यां रूपेण संस्थिता।।

नारी को उच्च शिक्षा एवं व्यावसायिक दक्षता से समृद्ध करना होगा। स्वावलंबन के पथ पर अग्रसर होकर ही वह आत्मनिर्भर बन सकती है।

स्वरोजगार, स्टार्टअप, नवाचार जैसे क्षेत्रों में उसकी सहभागिता बढ़ानी होगी। मानसिकता में परिष्कार अनिवार्य है — जब समाज अपने संकीर्ण दृष्टिकोण का परित्याग करेगा, तभी सच्चे सशक्तिकरण का बीजारोपण संभव होगा।

"जब तक नारी अपने आत्मबल को नहीं पहचानेगी, तब तक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी।"

नारी सशक्तिकरण कोई क्षणिक आंदोलन नहीं, अपितु एक सतत साधना है। नारी को केवल वंदनीय बनाकर सीमित करना नहीं, अपितु उसे स्वाभिमान और स्वावलंबन का अवसर प्रदान करना युगधर्म है। जब नारी भयमुक्त होकर सपनों के नभ में उड़ान भरेगी, तभी राष्ट्र की प्रगति का सूरज पूरी भव्यता से चमकेगा।

🌸 नारी तुम हो पूजन योग्य, नर चाहे बस भोग।
जागो! बनो स्वावलंबिनी, बदलो जग का संयोग।। 🌸

शनिवार, 26 अप्रैल 2025

🥗नाश्ता – दिन की सही शुरुआत की चाबी

विद्यार्थियों के लिए नाश्ते का महत्व | सही नाश्ते के विकल्प और लाभ
"खाली पेट न कोई पाठ याद रहता है, न शरीर में ताकत आती है।"

यह उक्ति विद्यार्थियों के जीवन में नाश्ते के महत्व को सरलता से समझा देती है। आज के भागदौड़ भरे जीवन में बच्चे हों या बड़े, प्रायः सुबह की जल्दी में नाश्ता करना टाल देते हैं। परंतु यह आदत न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, बल्कि दिन भर की ऊर्जा और मनोबल पर भी विपरीत प्रभाव डालती है।

नाश्ता क्यों है ज़रूरी?

रात भर के उपवास के बाद सुबह का नाश्ता शरीर के लिए ईंधन का काम करता है। जब हम सुबह भोजन करते हैं, तो शरीर को आवश्यक ऊर्जा मिलती है, जिससे मस्तिष्क सक्रिय रहता है और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ती है। विशेष रूप से विद्यार्थियों के लिए, जो पूरे दिन अध्ययन और अन्य गतिविधियों में संलग्न रहते हैं, एक संतुलित नाश्ता उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त बनाता है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि जो बच्चे नियमित रूप से नाश्ता करते हैं, उनकी एकाग्रता, स्मरणशक्ति और अकादमिक प्रदर्शन अधिक बेहतर होता है। Journal of Adolescent Health में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, - "नियमित नाश्ता करने वाले छात्रों के परीक्षा परिणाम, स्कूल में उपस्थिति और व्यवहार अधिक सकारात्मक पाए गए।"[1]

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) भी यह स्पष्ट करता है कि, नियमित रूप से नाश्ता करने वाले किशोरों में शारीरिक स्वास्थ्य बेहतर पाया गया है, और वे अधिक सक्रिय रहते हैं।”[2]

वहीं, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 60% स्कूली बच्चे नियमित रूप से पौष्टिक नाश्ता नहीं करते, जिससे उनमें थकावट, ध्यान की कमी और पोषण की कमी के लक्षण पाए गए।[3]

नाश्ते में क्या खाना चाहिए?

संतुलित नाश्ते में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, फाइबर और थोड़ी मात्रा में वसा का होना आवश्यक है। जैसे – अंकुरित अनाज, दूध, अंडा, फल, सूखे मेवे, दलिया, मूँग दाल चीला या इडली। इन पदार्थों से शरीर को लंबे समय तक ऊर्जा मिलती है और भूख जल्दी नहीं लगती। वहीं, अत्यधिक तले हुए अथवा शर्करा-युक्त खाद्य पदार्थ, जैसे – समोसे, पेस्ट्री या सोडा पेय से परहेज़ करना चाहिए क्योंकि ये तात्कालिक ऊर्जा तो देते हैं, लेकिन शीघ्र ही थकान का अनुभव होने लगता है।

National Family Health Survey (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार, भारत में 5 से 19 वर्ष की आयु के लगभग 35% बच्चों में आयरन और विटामिन की कमी पाई गई, जिसका एक मुख्य कारण नाश्ते में पोषण की कमी है।[4]
स्वस्थ नाश्ता और जल्दबाजी में लोग
स्वस्थ नाश्ता और जल्दबाजी में लोग

भारतीय बनाम पश्चिमी नाश्ता – क्या अंतर है?

भारतीय नाश्ते की पद्धति विविधताओं से भरपूर है – दक्षिण भारत में इडली-सांभर, उत्तरी भारत में परांठा-दही, पश्चिम में पोहा-उपमा और पूरब में चिउड़ा-दूध का चलन है। ये नाश्ते पोषक तत्वों से भरपूर और पारंपरिक रूप से संतुलित होते हैं। इनमें मौसमी सामग्री, मसालों और स्थानीय अनाज का उपयोग होता है, जो पाचन में सहायक होते हैं।

वहीं, पश्चिमी नाश्ते में टोस्ट, अंडे, कॉर्नफ्लेक्स, पीनट बटर, जूस या स्मूदी जैसे विकल्प होते हैं। यह नाश्ता प्रायः हल्का और जल्दी तैयार हो जाने वाला होता है, किंतु इसमें अक्सर ताजगी और प्राकृतिकता की कमी पाई जाती है, विशेषतः जब वह पैक्ड फूड पर आधारित हो। दोनों प्रकार के नाश्ते अपने-अपने संदर्भ में उपयुक्त हैं, किंतु भारतीय नाश्ते की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अधिक प्राकृतिक, ताजगी से भरपूर और परंपरा से जुड़ा होता है।

कितना और कब खाना चाहिए?

नाश्ते का समय प्रायः सुबह उठने के एक घंटे के भीतर होना चाहिए और इसे कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। नाश्ते की मात्रा व्यक्ति की आयु, गतिविधि स्तर और भूख पर निर्भर करती है, परंतु यह इतना अवश्य होना चाहिए कि दोपहर तक ऊर्जा बनी रहे।

Harvard School of Public Health के एक शोध के अनुसार, जो बच्चे नाश्ता नहीं करते, उनमें मोटापा, मधुमेह और हृदय रोगों का खतरा अधिक होता है, क्योंकि वे दिन में अधिक बार अस्वस्थ खाद्य पदार्थों का सेवन करते हैं।[5]

"अच्छा नाश्ता दिनभर की चिंताओं का हल है"

यह कहावत हमारे जीवन की सच्चाई को दर्शाती है।


निष्कर्ष

नाश्ता केवल एक भोजन नहीं, बल्कि एक आदत है – एक स्वस्थ जीवनशैली की शुरुआत। विद्यार्थियों के लिए, यह सफलता की पहली सीढ़ी है। शरीर और मस्तिष्क को ऊर्जा देने वाला यह पहला आहार दिन की दिशा तय करता है।

"जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन।"

इसलिए अपने दिन की शुरुआत पोषण से भरपूर नाश्ते के साथ करें, ताकि तन भी स्वस्थ रहे और मन भी प्रसन्न।


संदर्भ (फुटनोट्स) -

  1. Journal of Adolescent Health, 2018 – Study on Breakfast and Academic Performance.
  2. World Health Organization (WHO) – Global School Health Report, 2016.
  3. Indian Council of Medical Research (ICMR) – "Dietary Patterns and Nutritional Deficiency in Indian Adolescents", 2020.
  4. National Family Health Survey (NFHS-5), 2019–21.
  5. Harvard School of Public Health – "The Nutrition Source: Breakfast and Children’s Health", 2017.
End of Article

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

📣बच्चों, आओ जाने अपने अधिकार - "बाल अधिकार"

📣 बच्चों, आओ जाने अपने अधिकार - "बाल अधिकार" | Arvind Bari

बाल अधिकारों पर विशेष चर्चा सत्र

  • 🔹 स्थान: स्कूल का सभा कक्ष

  • 🔹 पात्र: मिसेज़ वर्मा (शिक्षिका), छात्र – राहुल, अंतरा, मानसी और  आरव

कक्षा में बच्चे और शिक्षिका
कक्षा में बच्चे और शिक्षिका

मिसेज़ वर्मा: (बच्चों की ओर देखकर मुस्कुराते हुए) आज हम एक बहुत ज़रूरी बात पर चर्चा करने वाले हैं। क्या आप में से किसी को पता है – “बाल अधिकार” क्या होते हैं?

अंतरा: (हिचकते हुए) मैम... बच्चों को स्कूल में पढ़ने का अधिकार?

मानसी: मैम, मैम... खेलने का हक़ भी, है ना?

मिसेज़ वर्मा: बिल्कुल सही कहा तुम दोनों ने। बच्चों, बाल अधिकार का मतलब है – हर बच्चे को जीने, सीखने, सुरक्षित रहने, और प्यार पाने का हक़।

संयुक्त राष्ट्र ने 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए चार मुख्य अधिकार तय किए हैं:

  1. जीवन और विकास का अधिकार
  2. शिक्षा और जानकारी का अधिकार
  3. सुरक्षा का अधिकार
  4. प्रस्ताव और भागीदारी का अधिकार

आरव: मैम, क्या ये सारे अधिकार हमें मिलते हैं?

मिसेज़ वर्मा: अच्छा सवाल है आरव। अधिकतर बच्चों को तो मिलते हैं, पर कई बच्चों को नहीं मिल पाते। चलो, कुछ उदाहरणों से समझते हैं।

राहुल: जैसे… बाल मजदूरी?

मिसेज़ वर्मा: हाँ राहुल, बिल्कुल। बाल मजदूरी एक ऐसी समस्या है जिसमें बच्चे स्कूल की उम्र में काम करने लगते हैं। इससे उनका शिक्षा का अधिकार, और खेलने व आराम करने का अधिकार छिन जाता है।

अंतरा: मैम, टीवी में दिखाते हैं कि कुछ बच्चों की कम उम्र में शादी कर दी जाती है। वो भी ग़लत है ना?

मिसेज़ वर्मा: बहुत सही अंतरा! बाल विवाह भी एक बड़ा मुद्दा है। जब बच्चा खुद को समझने और निर्णय लेने लायक नहीं होता, तब उस पर शादी का बोझ डालना उसके जीवन और विकास के अधिकार का हनन है।

मानसी: और कभी-कभी घरों में या बाहर... बच्चों के साथ गलत हरकतें भी होती हैं।

मिसेज़ वर्मा: (गंभीर होकर) हाँ मानसी, यह बताकर तुमने बहुत साहस का परिचय दिया है। 'यौन शोषण' एक बहुत गंभीर अपराध है; और कई बार यह ऐसे लोगों से होता है जिन पर हमें सर्वाधिक भरोसा होता है।

अंतरा: लेकिन मैम, बहुत बार बच्चे डर के मारे कुछ कह नहीं पाते…

मिसेज़ वर्मा: (थोड़ा ठहर कर, गंभीर स्वर में) इसलिए बच्चों को यह समझाना और भी ज़रूरी हो जाता है कि डर कर चुप रहना सही नहीं है।

🛡️"जहाँ शोषण हो, वहाँ चुप्पी नहीं, चेतावनी होनी चाहिए!"

अर्थात, अगर कोई तुम्हारे साथ या तुम्हारे किसी दोस्त के साथ कुछ ऐसा करे, जो तुम्हें अच्छा नहीं लगता अथवा तुम्हें असहज करता हो; तो ऐसे में चुप रहना, उस ग़लती को और ताकत देता है। अतः तत्काल उसका विरोध करना चाहिए। तुरंत किसी भरोसेमंद बड़े व्यक्ति से बात करनी चाहिए – माँ-पापा, बड़े भाई-बहन, टीचर या फिर चाइल्ड हेल्पलाइन - 1098 पर कॉल।

राहुल: मैम, हम ये बात दूसरों को भी बता सकते हैं ना?

मिसेज़ वर्मा: ज़रूर राहुल! जब तुम ये बात अपने दोस्तों, भाई-बहनों को बताओगे, तो तुम खुद एक बदलाव का हिस्सा बनोगे।

[बच्चों के चेहरे गंभीर हैं, लेकिन अब उनमें एक समझदारी और जागरूकता झलक रही है।]

आरव: मैम, कुछ बच्चे तो घर में पीटे भी जाते हैं। उन्हें तो कुछ कहने नहीं दिया जाता।

मिसेज़ वर्मा: बिलकुल आरव। घरेलू हिंसाDomestic violence, या बच्चों को जब डांट-फटकार, मार-पीट या डर के माहौल में रखा जाता है, तो यह उनके सुरक्षा और सम्मान के अधिकार के खिलाफ है।

राहुल: और जो बच्चे सड़कों पर भीख माँगते हैं या जिनके माता-पिता उनकी सही देखभाल नहीं करते?

मिसेज़ वर्मा: बहुत अच्छा राहुल! उपेक्षाneglect भी बच्चों की एक बड़ी समस्या है। जब उनको खाना, कपड़े, दवा या प्यार नहीं मिलता, तो वे अकेले पड़ जाते हैं। ऐसे बच्चों को समाज की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।

मिसेज़ वर्मा: तो बच्चों, अब बताओ – हम ऐसे बच्चों के लिए क्या कर सकते हैं?

अंतरा: अगर हमें किसी बच्चे के साथ कुछ ग़लत होता दिखे, तो किसी बड़े को बताना चाहिए?

मानसी: या हम 1098 पर कॉल कर सकते हैं! आपने बताया था ना चाइल्ड हेल्पलाइन है?

मिसेज़ वर्मा: शाबाश! सही याद है। और सबसे ज़रूरी बात – कभी भी किसी बच्चे की तकलीफ को छोटा मत समझिए।

📢अगर हम जागरूक और संवेदनशील बनें, तो हम कई बच्चों की ज़िंदगी बदल सकते हैं। धन्यवाद!

अंत में मिसेज़ वर्मा बच्चों को कहती हैं कि वे मिलकर "बचपन बचाओ" शीर्षक पर कुछ पोस्टर या कविता तैयार करें, ताकि अगले सप्ताह स्कूल में एक 'बाल अधिकार प्रदर्शनी' लगाई जा सके।

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गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

🌍 आतंकवाद: एक प्रश्न, एक चुनौती और हमारी जिम्मेदारी

आतंकवाद: एक प्रश्न, एक चुनौती और हमारी जिम्मेदारी | Arvind Bari

🕊️शांति पर एक वैश्विक संकट🕊️

आतंकवाद की खिलाफत
आतंकवाद की खिलाफत - हमारी जिम्मेदारी

आज का युग विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तेज़ रफ्तार के साथ आगे बढ़ रहा है, लेकिन दूसरी ओर, मानवता के समक्ष एक ऐसा विकराल संकट खड़ा है, जिसने न केवल देशों की आंतरिक शांति को छिन्न-भिन्न किया है, बल्कि वैश्विक स्थिरता को भी खतरे में डाल दिया है — यह संकट है आतंकवाद।

❗आतंकवाद का अर्थ और उसकी उत्पत्ति

'आतंकवाद' शब्द का अर्थ है — भय और हिंसा के माध्यम से किसी उद्देश्य को प्राप्त करना। आतंकवादी संगठन आमतौर पर राजनीतिक, धार्मिक या वैचारिक कारणों से निर्दोष लोगों को लक्ष्य बनाते हैं। आतंकवाद की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। इसका उद्भव 20वीं सदी के मध्य में हुआ, जब अलगाववादी और उग्रवादी विचारधाराओं ने संगठित रूप धारण करना शुरू किया। परन्तु 21वीं सदी में यह एक वैश्विक महामारी के रूप में उभरा है।

आतंकवाद वास्तव में एक ऐसी मानसिकता है जो समाज में भय और नफ़रत का जहर घोलती है। यह केवल हथियारों या हिंसा का माध्यम नहीं है, बल्कि एक कुत्सित विचारधारा है जो मानवता को विभाजित करती है।

आतंकवाद की वैश्विक व्याप्ति

आज आतंकवाद किसी एक देश या क्षेत्र की समस्या नहीं रह गया है। अमेरिका, अफगानिस्तान, सीरिया, पाकिस्तान, भारत, फ्रांस, ब्रिटेन — लगभग हर प्रमुख देश को किसी न किसी रूप में इसकी विभीषिका का सामना करना पड़ा है। विश्व व्यापार केंद्र पर 11 सितम्बर 2001 को हुआ हमला इसका सबसे वीभत्स उदाहरण है। भारत में मुंबई हमले (2008), पुलवामा हमला (2019), पहलगाम (2025) आदि ने यह स्पष्ट कर दिया कि आतंकवाद की कोई सीमा नहीं होती।

🌍 भारत, फ्रांस, अमेरिका, अफगानिस्तान — दुनिया के हर कोने में आतंक ने अपने निशान छोड़े हैं।

लेकिन याद रखिए — हिंसा वहीं पनपती है, जहाँ संवाद और शिक्षा की बारिश नहीं होती।

आतंकवाद के दुष्परिणाम

आतंकवाद केवल जान-माल की हानि नहीं करता, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न कर देता है। यह धार्मिक और जातीय सौहार्द को नष्ट करता है, देश की आंतरिक सुरक्षा को कमजोर करता है और भय का वातावरण उत्पन्न करता है। इसके कारण लाखों लोग शरणार्थी बनकर अपना घर छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। आर्थिक विकास रुक जाता है और विदेशी निवेश पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

रोकथाम के उपाय

आतंकवाद की रोकथाम के लिए बहु-स्तरीय प्रयासों की आवश्यकता है। सबसे पहले, सरकारों को गुप्तचर तंत्र को मजबूत करना चाहिए ताकि हमलों को समय रहते रोका जा सके। दूसरा, युवाओं में शिक्षा और जागरूकता फैलाना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि आतंकवादी संगठनों का सबसे आसान लक्ष्य असंतुष्ट और बेरोजगार युवा होते हैं। तीसरा, अंतरराष्ट्रीय सहयोग बेहद आवश्यक है। जब तक सभी देश मिलकर आतंकवाद के खिलाफ एकजुट नहीं होंगे, तब तक इसे जड़ से समाप्त करना असंभव है।

हमारा कर्त्तव्य

एक नागरिक के रूप में हमारा यह नैतिक दायित्व है कि हम किसी भी प्रकार की संदिग्ध गतिविधि की जानकारी संबंधित अधिकारियों को दें। इसके साथ ही, हमें सामाजिक एकता को बनाए रखने के लिए जागरूक रहना होगा और समाज में नफ़रत फैलाने वाली किसी भी विचारधारा का विरोध करना होगा। किसी विशेष धर्म, जाति या समुदाय को आतंकवाद से जोड़ना स्वयं आतंकवाद को बढ़ावा देने जैसा है।

आज ज़रूरत है जानने की कि:

  • 🔹 कोई आतंकवादी बनता क्यों है?
  • 🔹 क्या हम चुप रहकर हिंसा को अनजाने में बढ़ावा दे रहे हैं?
  • 🔹 क्या केवल सरकार ज़िम्मेदार है — या हम भी?
हमारी असली जीत तब होगी जब हम इस विचारधारा के खिलाफ आवाज उठाएँगे और शांति, प्रेम और सहिष्णुता के मूल्यों को अपनाएँगे। हमें एकजुट होकर इस चुनौती का सामना करना होगा, ताकि हम एक सुरक्षित और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकें।

आतंकवाद आज के समय की सबसे भयावह सच्चाई है, जिसने मानवता की जड़ों को हिला कर रख दिया है। इसे केवल हथियारों से नहीं, बल्कि शिक्षा, एकता और जागरूकता से हराया जा सकता है। जब तक हम एकजुट होकर इसका विरोध नहीं करेंगे, तब तक कोई भी प्रयास अधूरा रहेगा। अब समय आ गया है कि हम केवल शोक न करें, बल्कि संकल्प लें — आतंक के विरुद्ध एक संगठित और सशक्त भारत और विश्व की रचना करें।

📢 आइए, चुप्पी तोड़ें।

✍️ आइए, कलम उठाएँ।

🤝 आइए, मानवता को जगाएँ।

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बुधवार, 23 अप्रैल 2025

✨ साक्षात्कार: शून्य से स्वर्ण तक...

राजेश मेहता की प्रेरणादायक यात्रा, उन्हीं की ज़ुबानी

राजेश मेहता, संस्थापक व कार्यकारी अध्यक्ष 

राजेश मेहता, राजेश एक्सपोर्ट्स के संस्थापक एवं प्रमुख, भारतीय व्यापार जगत का एक प्रतिष्ठित नाम हैं। उन्होंने अपने अथक परिश्रम, दूरदर्शिता और नवाचार के बल पर इस कंपनी को शून्य से स्वर्ण तक तक पहुँचाया। ‘गुणवत्ता ही पहचान’ के सिद्धांत पर चलते हुए उन्होंने भारत के साथ-साथ वैश्विक बाजार में भी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। कभी-कभी कोई साधारण सी बातचीत, जीवनभर की प्रेरणा बन जाती है। ऐसे ही एक प्रेरणादायक संवाद में, हम आज मिल रहे हैं उस व्यक्तित्व से, जिनकी सोच ने भारत के पारंपरिक आभूषण उद्योग को वैश्विक स्तर पर पहुँचा दिया। 

राजेश मेहता उद्यमशीलता के प्रतीक और आज युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

स्थान: इंडीकोच स्टूडियो
सादे से कक्ष में, एक गर्मजोशी से भरी चाय की प्याली और उनके चेहरे पर अनुभव की गहराइयों से भरी मुस्कान के साथ शुरू हुआ।


🧑‍💼 पत्रकार (मुस्कराते हुए): 

राजेश जी, जब हम आज आपको इस ऊँचाई पर देखते हैं, तो मन में सबसे पहला प्रश्न यही आता है — यह सब शुरू कहाँ से हुआ?

👔 राजेश मेहता (थोड़ा पीछे झुकते हुए, अतीत में डूबकर):

शुरुआत... (हल्की मुस्कान) वह तो बहुत विनम्र थी। मैं बंगलुरु की गलियों में पला-बढ़ा, एक मध्यमवर्गीय परिवार से था। पिता एक छोटे व्यवसाय में थे, और घर में अक्सर पैसों की तंगी होती थी। कॉलेज के दिनों में ही मन में आया कि कुछ अलग करना है, कुछ अपना।

मात्र ₹1200 उधार लिए थे — किसी के लिए नगण्य, पर मेरे लिए वह मेरी पहली ‘पूंजी' जो निवेश के लिए थी, और उससे बुनना था मुझे सबसे बड़ा सपना।


🧑‍💼 पत्रकार:

₹1200 से आपने व्यापार शुरू किया... पर पहली बार आभूषणों में रुचि कैसे जगी?

👔 राजेश मेहता (आँखें चमकती हैं):

मुझे हमेशा लगता था कि सोना केवल धातु नहीं, वह भारत की संस्कृति है। माँ जब पूजा में अपने गहने पहनती थीं, तो मैं उनकी आँखों की चमक को देखता था — वो भाव, वो अपनापन।

मुझे समझ आया कि अगर हम इस परंपरा को गुणवत्ता के साथ विश्व के समक्ष प्रस्तुत करें, तो यह सिर्फ व्यापार नहीं, एक सांस्कृतिक दूतावास बन सकता है।


🧑‍💼 पत्रकार (जिज्ञासु भाव से):

इतनी कम उम्र में आपने जोखिम लिया — क्या डर नहीं लगा?

👔 राजेश मेहता (थोड़ा गंभीर होकर):

डर तो था... लेकिन उससे बड़ा था मेरा विश्वास। हर सुबह जब मैं साइकिल पर अपने सामान लेकर निकलता था, तो मन में बस एक ही विचार रहता — "मैं हार नहीं मान सकता, क्योंकि मैंने खुद से वादा किया है।"

"कभी-कभी, आपका सबसे बड़ा साहस उस दिन आता है जब आप सबसे टूटा महसूस करते हैं।"


🧑‍💼 पत्रकार:

फिर कब लगा कि आप अब केवल व्यापारी नहीं, एक निर्माता बन गए हैं?

👔 राजेश मेहता (गर्वित स्वर में):

जब मैंने देखा कि मेरे साथ काम करने वाले कारीगर, जो कभी दिनभर में ₹50 कमाते थे, अब अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल भेज पा रहे हैं — तब समझ आया कि यह व्यवसाय नहीं, यह परिवर्तन है।

‘राजेश एक्सपोर्ट्स’ सिर्फ एक कंपनी नहीं बनी, यह एक आंदोलन बन गया — भारतीय हस्तकला को वैश्विक पहचान दिलाने का।


🧑‍💼 पत्रकार:

आपके अनुसार सफलता का मापदंड क्या है?

👔 राजेश मेहता (थोड़ा सोचते हुए):

सफलता कोई आँकड़ा नहीं होती। वो तो तब महसूस होती है जब आप पीछे मुड़कर देखते हैं और पाते हैं कि आपने सिर्फ अपने लिए नहीं, दूसरों के जीवन में भी रोशनी भरी है।

"अगर आपकी सफलता से किसी और की ज़िंदगी बदलती है, तो वही सच्ची उपलब्धि है।"


🧑‍💼 पत्रकार (मुस्कराते हुए):

अब यदि कोई छात्र आपसे यह पूछे कि ‘मैं कहाँ से शुरू करूँ?’ — तो आप क्या कहेंगे?

👔 राजेश मेहता (आँखों में आत्मीयता के साथ):

मैं यही कहूँगा — वहीं से जहाँ आप खड़े हैं। शुरुआत के लिए संसाधन नहीं, सिर्फ एक ईमानदार इरादा चाहिए। किताबों की जगह दिल में लिखा हुआ सपना हो, तो हर कठिनाई उसका पाठ्यक्रम बन जाती है।

“छात्र जीवन अवसरों की खदान है — जो उसे खोदने का साहस करता है, वही रत्न पाता है।”


उपसंहार:

राजेश मेहता का जीवन एक कथा नहीं, एक क्रांति है — यह विश्वास दिलाने वाली कि सफलता जन्मजात नहीं होती, वह संकल्प और श्रम से गढ़ी जाती है।

यह साक्षात्कार एक संदेश है हर छात्र के लिए —

“अपने सपनों को छोटा मत समझो। हर बड़ा पेड़ कभी एक बीज था, जिसने मिट्टी से लड़ना सीखा।”

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

🦋कहानी: नाव्या और नन्हा परिंदा

कहानी: नाव्या और नन्हा परिंदा | Arvind Bari

दोपहर के दो बजे थे। स्कूल से लौटकर नाव्या रोज़ की तरह अपने कमरे में पहुँच गई। उसके मम्मी-पापा दोनों ऑफिस चले जाते थे, और घर पर उसकी देखभाल के लिए रमा बाई होती थीं — उम्रदराज़, स्नेहिल और समझदार।

नाव्या अपने स्कूल बैग को ज़मीन पर रखते हुए खिड़की की ओर बढ़ी, जहाँ से धूप की सुनहरी लकीरें फर्श पर बिछी हुई थीं। तभी एक हल्की-सी "चूँ-चूँ" की आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा।

वो खिड़की के पास गई और देखी — मुंडेर पर एक नन्हा-सा गौरैया का बच्चा सहमा हुआ बैठा था। उसकी आँखों में डर, काँपता शरीर और पंख गीले-से लग रहे थे।

"अरे, कितना प्यारा है!" नाव्या की आँखें चमक उठीं। वो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी, उसे गोद में लेने के लिए।

लेकिन तभी — "नाव्या! रुको!" रमा बाई की आवाज़ जैसे बिजली-सी गूंजी और वह भागते हुए आईं।

"मैं तो बस इसे उठाना चाह रही थी, कितना अकेला लग रहा है ना?" नाव्या ने मासूमियत से कहा।

रमा ने उसे गोद में उठाया, प्यार से उसका माथा चूमा और धीरे से कहा, "बिटिया, तुम्हें पता है, ये भी एक बच्चा है — ठीक तुम्हारी तरह। ये अपने मम्मी-पापा से बिछड़ गया है।"

नाव्या की भौंहें सिकुड़ गईं, "पर मैं तो इसे प्यार से रखूँगी, अपने पास।"

रमा ने मुस्कराकर कहा, "हाँ, मुझे मालूम है। पर प्यार का मतलब ये नहीं कि हम किसी को उसके अपनों से दूर कर दें।"

उन्होंने नाव्या को गोद में उठाकर उसका चेहरा बालकनी के मुंडेर के उस पार इशारा करके दिखाया और कहा, "देखो उधर… वो दो बड़ी गौरैयाँ दिख रही है — वे इसके माँ-बाप हैं। वे चक्कर लगा रहे हैं, चीख-चीख कर इसे बुला रहे हैं। यह अभी बच्चा है, शायद उड़ना सिखाते वक्त रास्ता भटक गया है।"

नाव्या की आँखें अब गौरैयों के पीछे-पीछे घूमने लगीं।

"अब सोचो," रमा बोलीं, "अगर तुम स्कूल से आकर देखो कि मम्मी-पापा कहीं नहीं हैं, और तुम किसी अजनबी जगह पर हो, तो कैसा लगेगा तुम्हें?"

नाव्या कुछ देर चुप रही, फिर धीरे से बोली, "बहुत बुरा… मैं तो रो दूँगी दीदी।"

रमा ने उसे गले लगाते हुए उसका सिर प्यार से सहलायी, "बस, वही इस नन्हे परिंदे को भी महसूस हो रहा है। अगर हमने इसे अभी पकड़ लिया, तो ये अपने माँ-पिताजी को कभी नहीं ढूंढ पाएगा और उनसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ जाएगा।"


”हर जानवर, हर परिंदा… किसी की संतान होता है। जैसे हम अपने परिवार में सुरक्षित महसूस करते हैं और उनसे बिछड़ना नहीं चाहते, वैसे ही उन्हें भी उनका परिवार चाहिए होता है।”।”

नाव्या की नज़र अब नन्हे गौरैया पर थी, जो अभी भी हल्की-सी चूँ-चूँ की आवाज कर रहा था।

रमा ने मुस्कराते हुए उसकी हथेली पर कुछ अनाज के दाने रखे और पास ही एक छोटा-सा कटोरा पानी से भर दिया।

"चलो बिटिया, इसे यहाँ रख दो। जब तक इसके पंख मज़बूत न हो जाएँ, तब तक इसे थोड़ा सहारा मिल जाएगा।"

नाव्या ने मुंडेर के कोने में वो दाना और पानी रख दिया। थोड़ी ही देर में गौरैया के माता-पिता भी नज़दीक आ गए। उन्होंने पहले नन्हे गौरैया को दुलारा, फिर दाने चुगे, पानी पिया और मिलकर एक हल्की-सी उड़ान में अपने बच्चे को साथ ले गए।

नाव्या की आँखें उन तीनों को उड़ते देखती रहीं — उनके पंखों की फड़फड़ाहट और चूँ-चूँ की मिठास जैसे उसके दिल में कुछ नया बसा गई हो।

उस दिन के बाद, एक आदत सी बन गई थी।


हर सुबह स्कूल जाने से पहले और आने के बाद दोपहर में नाव्या मुंडेर पर दाना और पानी रख देती। गौरैयाँ अपने पूरे परिवार के साथ आतीं, चहचहातीं, फुदकतीं, दाना चुगतीं और फिर मधुर "चूँ-चूँ" करते हुए उड़ जातीं।

नाव्या दूर से उन्हें देखती, और हर बार उसके मन में एक मीठी मुस्कान खिल जाती।

उसने सीखा था —

मदद सिर्फ पकड़कर क़ैद कर लेने से नहीं होती, बल्कि आज़ादी देकर भी किया जा सकता है; और यही सच्ची दया और पशु-प्रेम होता है।


सीख:

"जब हम किसी जीव को उसकी आज़ादी और परिवार लौटा देते हैं, तब वे हमारे दिल के सबसे सुंदर कोने में हमेशा के लिए चहकते रहते हैं।"

रविवार, 20 अप्रैल 2025

कहानी: ईमान का बोझ

कहानी: ईमान का बोझ - प्रेरणादायक हिंदी कहानी | Arvind Bari कहानी: ईमान का बोझ

लखनऊ की एक ठंडी सुबह थी। सूरज जैसे बादलों में छिपकर हनीफ की किस्मत को मुँह चिढ़ा रहा था। हनीफ चालीस की दहलीज़ लाँघ चुका था। एक ऐसा शख्स था जिसकी कमाई भले कम रही हो, पर उसकी ईमानदारी कभी दिवालिया नहीं हुई। साल भर पहले तक वह भी सरकारी महकमे में बड़े बाबू के पद पर कुर्सी-नशीन था। सत्यवादिता और ईमानदारी ऐसी थी कि रिश्वत लेने वालों के सामने वह कभी न झुक सका।

नतीज़तन बार-बार सज़ा में एक जगह से दूसरी जगह तबादला होता रहा, और अंततः नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा।

अब वह बेरोजगारी की मार झेल रहा था। छोटे-मोटे काम कर लेता था, पर पेट की भूख और परिवार की उम्मीदें, दोनों हर रोज़ उससे ज्यादा की ही माँग करतीं।

घर में उसकी पत्नी, नसीमा, जिसे पहले उसकी ईमानदारी पर गर्व हुआ करता था, अब वो गर्व शिकायत में बदल चुका था।

“ईमानदारी का क्या कर लूँ, हनीफ? इससे चूल्हे की आग नहीं जलती!”

नसीमा के ये शब्द हर शाम के पानी रोटियों से अधिक कड़वे हो चले थे।

बेटा अरमान, दसवीं में पढ़ता था। वो समझता था अब्बू की बेबसी, पर उम्र इतनी नहीं थी कि भूखे पेट आदर्शों की बातें हज़म कर सके।

हनीफ मियाँ अपने हिस्से की रोटी राघवेन्द्र को खिलाते हुए
हनीफ मियाँ अपने हिस्से की रोटी राघवेन्द्र को खिलाते हुए

उस दिन हनीफ काम की तलाश में रेलवे स्टेशन के पास भटक रहा था। थका-हारा एक बेंच पर बैठा और टिफिन खोला। दो सूखी रोटियाँ थी, और एक अदद प्याज भी। तभी अचानक उसके कानों में पास की सीढ़ियों से किसी के धीमे, टूटी साँसों वाले कराहने की आवाज आई। उसने मुड़कर देखा—एक बूढ़ा आदमी था... फटे पुराने कपड़ों में लिपटा, आँखों में गहराई नहीं, बेबसी थी, और काँपता हुआ शरीर जैसे हर सांस ज़िंदगी से भीख माँग रही हो...।

"क्या हुआ चाचा, तबियत तो ठीक है? कुछ चाहिए क्या?" - थोड़ा और करीब जाकर हनीफ ने पूछा।

बूढ़े ने सिर हिलाया, "तीन दिन से कुछ नहीं… खाया।"

हनीफ को काटो तो खून नहीं, वह वहीं सीढ़ियों पर उसके पास बैठ गया और टिफिन उसके सामने खोलकर रखते हुए बोला -

"लीजिए... ये अब आपका है।"

बूढ़े की आँखें भर आईं। वो रोटियों को ऐसे देख रहा था जैसे उसे उसका खोया हुआ सम्मान मिल गया हो।

खाते-खाते उसकी आँखों से गिरते हुए आंसू रोतोयों को और नर्म बना रहे थे। उसके बोल फूट पड़े -

"तुम्हें क्या बताऊँ, बेटा... मेरा नाम राघवेन्द्र है। कभी मेरा इस शहर में बहुत बड़ा व्यापार हुआ करता था।

व्यापार में धोखा मिला, सब कुछ लुट गया। अब तो पहचान भी नहीं बची।"


अगले कई हफ्तों तक हनीफ ने उसकी मदद की – पुराने दस्तावेज़ ढूंढे, एक वकील से मिलवाया और हर उस दरवाज़े तक गया जहाँ से इंसाफ़ की कोई उम्मीद थी।

छह महीने बाद राघवेन्द्र जी को इंसाफ मिला; खोई हुई संपत्ति मिल गई।


एक सुबह, दरवाज़े की घंटी बजी। नसीमा ने दरवाज़ा खोला – सामने चमचमाती गाड़ी, और उसमें से उतरे राघवेन्द्र जी। उन्होंने एक लिफाफा थमाया – जिसमें एक पत्र और कुछ दस्तावेज़ थे।

“हनीफ भाई, जिस दिन आपने भूखे को अपने हिस्से की रोटी दी थी, उस दिन आपने सिर्फ मेरी भूख नहीं मिटाई थी – आपने मेरी आत्मा को फिर से जिंदा किया था।
अब मेरी बारी है। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे साथ साझेदार बनें। यह व्यापार आपकी सच्चाई पर खड़ा होगा – और उसका नाम होगा ‘सच्चिदानंद इंटरप्राईज़ेज़’।”

हनीफ की आँखें भर आईं। नसीमा एक कोने में खड़ी मुस्कुरा रही थी – पहली बार शिकायत से नहीं, संतोष से। अरमान दौड़कर हनीफ से लिपट गया, "अब्बू, अब तो हमें किसी से उधार नहीं लेना पड़ेगा, है ना?" हनीफ ने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा – "नहीं बेटा… अब जो मिल रहा है, वो कर्ज़ नहीं… सच का इनाम है।"


आज हनीफ का वह छोटा कारोबार एक नई फसल की तरह दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। — ईमानदारी उसका खाद है, लगन उसका पानी। और तो और उसके साए में कई और लोगों की ज़िंदगियाँ भी रौशन हो रही है। उसके ऑफिस के दरवाज़े पर एक पंक्ति लिखी है:

“सच की डगर लंबी होती है… लेकिन वहाँ रोशनी सबसे ज़्यादा होती है।”

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

💃बिहू लोकनृत्य: असम की सांस्कृतिक आत्मा

भारत की विविध सांस्कृतिक विरासत में लोकनृत्य एक विशेष स्थान रखते हैं। हर क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक छवि होती है, जो वहां के लोकनृत्यों, गीतों और त्योहारों में झलकती है। पूर्वोत्तर भारत का असम राज्य अपनी प्राकृतिक सुंदरता और जीवंत सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है। बिहू नृत्य यहाँ की संस्कृति का प्रतीक है, जो न केवल एक कला रूप है, बल्कि असमिया जनजीवन की सरलता, प्रकृति से जुड़ाव और सामूहिक उल्लास की सजीव झलक प्रस्तुत करता है।

पारंपरिक वेश भूषा में बिहू नृत्य करते लोग 
बिहू केवल एक नृत्य नहीं, यह असम की आत्मा है। इसे वर्ष में तीन बार मनाया जाता है — बोहाग बिहू (बैसाख), काटी बिहू (कार्तिक), और माघ बिहू (माघ)। हर बिहू पर्व की अपनी विशेषता होती है, परंतु जब 'बिहू नृत्य' की बात होती है, तो आमतौर पर बोहाग बिहू को ही केंद्र में रखा जाता है। यह पर्व वसंत ऋतु के आगमन और नववर्ष की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है, जब खेतों में नई फसलें बोई जाती हैं और वातावरण उल्लास से भर उठता है।
इस समय बिहू नृत्य अपनी पूरी रंगत में होता है। बैसाख (अप्रैल-मई) में नई फसल बोई जाती है और असमिया नववर्ष की शुरुआत होती है। यही वह अवसर होता है जब गाँव-गाँव में इस नृत्य की धूम होती है। युवक-युवतियाँ पारंपरिक परिधान पहनते हैं और ढोल, पेपा (एक प्रकार का सींग), ताल (झांझ), और गोगोना (एक बांस का वाद्य यंत्र) आदि पारंपरिक वाद्य यंत्रों की लय पर थिरकते हैं। नर्तकों की तेज गति, हाथों और कूल्हों का लयबद्ध संचालन, और पैरों की थिरकन दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।"

बिहू का सांस्कृतिक सौन्दर्य  

बिहू नृत्य प्रेम, प्रकृति और सामाजिक एकता का प्रतीक है। युवतियाँ पारंपरिक असमिया पोशाक मेखेला-चादर पहनती हैं, जो स्थानीय बुनकरों की कलात्मकता का प्रमाण होती है। वे कांस्य और चांदी के आभूषणों से सुसज्जित होती हैं। पुरुष पारंपरिक धोती-कुर्ता पहनते हैं और सिर पर गामोछा बाँधते हैं। इन रंग-बिरंगे परिधानों से वसंत ऋतु की छटा जीवंत हो उठती है। 

पारंपरिक वाद्य-यन्त्र के साथ बिहू नृत्य 
नृत्य के साथ पारंपरिक वाद्य यंत्रों की मधुर संगत होती है, ढोल की थाप, पेपा की तान, ताल और गगना की झंकार और बांसुरी की मधुरता इस नृत्य को संगीतमय बना देती है। नर्तकों के भावपूर्ण चेहरे, लचीले अंग संचालन और चपल मुद्राएं दर्शकों को भीतर तक प्रभावित करती हैं। यह केवल शारीरिक प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक और भावनात्मक अभिव्यक्ति है। बिहू नृत्य की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सामूहिकता है। यह नृत्य किसी एक मंच पर नहीं, बल्कि खुले मैदानों, गाँव की गलियों और घरों के प्रांगणों में होता है। यहाँ कोई बड़ा-छोटा नहीं होता, सभी एक ही लय में झूमते हैं। यह नृत्य व्यक्ति को समाज से जोड़ता है और समुदाय में एकता, प्रेम और सौहार्द का संदेश देता है।

लोककला से जुड़ाव की प्रेरणा
  
बिहू नृत्य का महत्व केवल असम तक सीमित नहीं है। आज यह भारत के विभिन्न राज्यों में सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का हिस्सा बन चुका है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी असम की सांस्कृतिक पहचान को प्रकट कर रहा है। स्कूलों, कॉलेजों और कला महोत्सवों में इसकी सुंदर प्रस्तुति देखी जा सकती है, जो भारत की लोकसंस्कृति को वैश्विक पहचान देती है।

इस नृत्य के माध्यम से हम न केवल असम की लोककला से परिचित होते हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति की विविधता और एकता की भावना को भी समझते हैं। यह नृत्य हमें सिखाता है कि भाषा, संगीत, नृत्य और परंपरा मिलकर कैसे मानव समाज को रंगों से भर सकते हैं। विशेषकर छात्रों के लिए ऐसे विषयों का अध्ययन न केवल भाषा ज्ञान बढ़ाता है, बल्कि सोचने, समझने और सांस्कृतिक विविधताओं को अपनाने की दृष्टि भी विकसित करता है।

बिहू नृत्य एक उदाहरण है कि कैसे लोककलाएँ न केवल परंपरा को जीवित रखती हैं, बल्कि नई पीढ़ी को उसकी जड़ों से जोड़ने का कार्य भी करती हैं। यह नृत्य प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को जीवंत करता है, प्रेम को अभिव्यक्त करता है और जीवन को उत्सव में बदल देता है।

छात्रों के लिए संदेश

प्रिय छात्रों, अब जब आप बिहू नृत्य की महत्ता से परिचित हो चुके हैं, तो क्यों न इसे अपने विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रम में प्रस्तुत करने का प्रयास करें? आप अपनी नृत्य शिक्षिका एवं संगीत विभाग से संपर्क करें और अभ्यास आरंभ करें। आइए, हम असम की इस गौरवशाली परंपरा से जुड़ें और उसकी जीवंतता को आगे बढ़ाएं।

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

⛏️संघर्ष: विकास की असली पाठशाला

संघर्ष: विकास की असली पाठशाला

🌿क्या होता अगर जीवन में कोई संघर्ष ही न होता?

"यदि जीवन केवल मुलायम और सुगंधित फूलों की सेज होता, तो क्या मनुष्य कभी अनंत आकाश और अकल्पनीय अंतरिक्ष तक उड़ान भरना सीख पाता? यदि चुनौतियाँ न होतीं, तो शायद मानव चेतना अब भी आलस्य की गोद में विश्राम कर रही होती। कल्पना कीजिए—यदि मनुष्य प्रकृति की कठोरताओं से जूझने की बजाय किसी झरने के पास पेड़ की छाँव में बैठकर चैन की बाँसुरी बजा रहा होता, तो क्या हम आग, पहिए, विज्ञान या भाषा जैसे अद्भुत आविष्कारों से परिचित हो पाते? मनुष्य का विकास तब संभव हुआ, जब उसने हर चुनौती में नए अवसरों की चमक देखी, अभावों में सृजन की शक्ति और असुविधाओं में सीखने का अवसर खोज निकाला। इतिहास गवाह है—हर युग की महानता के पीछे संघर्ष का मौन संगीत अनवरत गुंजायमान रहा है।"
सघर्ष रहित जीवन की कल्पना
संघर्ष रहित जीवन में चैन की बंसी बजाता मानव

संघर्ष: विकास का अटूट सोपान

परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है, और इस परिवर्तन का बीज छिपा होता है — आवश्यकता में। जब आवश्यकता जन्म लेती है, तभी संघर्ष की शुरुआत होती है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि संघर्ष ही मानव विकास की राह में वह मील का पत्थर है, जिसे पार करते हुए मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। संघर्ष को किसी नकारात्मकता से जोड़कर देखने की बजाय, इसे एक सशक्त प्रेरणा समझना चाहिए — वह प्रेरणा जो हमारी सुप्त क्षमताओं को जागृत करती है। यह हमें न केवल अपनी सीमाओं को पहचानने का अवसर देता है, बल्कि अपनी कमजोरियों को समझकर उन्हें दूर करने की शक्ति भी प्रदान करता है। जिस प्रकार सोना अग्नि में तपकर और अधिक खरा बनता है, उसी प्रकार संघर्ष से मनुष्य और भी बलवान, सक्षम और उन्नत बनता है।

बिना संघर्ष के जीवन? सोचिए, अगर हमें बिना प्रयास के सबकुछ मिल जाता — तो क्या हमारे अंदर कुछ नया करने, कुछ खोजने, कुछ सृजन करने की भावना जागती? शायद नहीं। आराम मनुष्य को जड़ बनाता है, जबकि संघर्ष उसे गतिशीलता देता है। कल्पना कीजिए एक ऐसे संसार की जहाँ कोई होड़ नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई मुश्किल हालात नहीं। क्या ऐसा जीवन सच में जीवन कहलाएगा? वह तो एक बंद कमरे सा होगा — जहाँ न हवा चलेगी, न रोशनी आएगी, और न ही किसी बदलाव की हलचल कोई होगी।" इंसान स्वभाव से कर्मठ, जिज्ञासु और उन्नत-शील अन्वेषक रहा है। उसकी यही अंदरूनी इच्छा उसे अनजान रास्तों पर ले जाती है, सीमाओं को तोड़ने के लिए उत्साहित करती है, और यही उत्साह जीवन-संघर्ष को जन्म देता है।

पहाड़ काटते दशरथ माँझी
पहाड़ काटते दशरथ मांझी

संघर्ष का सौंदर्य इस बात में है कि संघर्ष इंसान को उसकी सीमाओं से बाहर निकलने को प्रेरित करता है। महाकवि दिनकर कहते हैं कि - 'थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है..। संघर्ष मुश्किल हालातों में धैर्य और साहस बनाए रखना सिखाता है। यह समस्याओं के समाधान के नए रास्ते खोजने की क्षमता विकसित करता है और रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करता है। जब हम किसी चुनौती का सामना करते हैं और उसे पार कर लेते हैं, तो केवल बाधा ही नहीं टूटती—बल्कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान भी नया आकार लेते हैं। यह विजय हमें आने वाले संघर्षों के लिए और अधिक मजबूत बनाती है। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका की कठोर धरती पर अन्याय का स्वाद चखा, परंतु अपमान के सामने झुकने के बजाय उनकी आत्मा जाग उठी। वहीं से सत्याग्रह की मशाल जली, जिसने भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम — जिन्होंने रामेश्वरम की तंग गलियों से निकलकर भारतीय विज्ञान को आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँचाया—ने कभी अभावों को अपनी गति में रुकावट नहीं बनने दिया। उनका संघर्ष उन्हें केवल वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए प्रेरणास्रोत भी बना गया। हेलेन केलर — जिन्होंने अंधकार, मौन और जड़ता से जूझते हुए ज्ञान, भाषा और संवेदना का आलोक प्राप्त किया—का संघर्ष बाहरी ही नहीं, भीतर का भी था। और इसी आंतरिक युद्ध ने उन्हें ‘दिव्य दृष्टि’ प्रदान की। दशरथ मांझी ने अपने जीवन के सबसे कठिन शोक को शक्ति में बदल दिया। उन्होंने अकेले अपने हाथों से पहाड़ काटकर एक रास्ता बनाया—यह केवल उनके प्रेम की नहीं, उनके अथक संघर्ष की अमर गाथा है।

संघर्ष का मोल सिर्फ सफलता में नहीं, बल्कि उस प्रक्रिया में छुपा होता है जहाँ व्यक्ति स्वयं को पहचानता है, चुनौतियों से लड़ता है, और अंततः एक नई दृष्टि प्राप्त करता है। संघर्षों से परेशान होना स्वाभाविक है। निराशा और हार मानने के पल आ सकते हैं, लेकिन जरूरी यह है कि हम उन पलों में अपनी अंदर की ताकत को पहचानें और आगे बढ़ने का फैसला करें। हर संघर्ष अपने साथ एक नया सबक, एक नया अनुभव और विकास का एक नया मौका लेकर आता है। हमें उस मौके को पहचानना और उसका सही इस्तेमाल करना सीखना होगा।

संघर्ष केवल महाविभूतियों के जीवन का गहना नहीं रहा है, वह तो आज के हर विद्यार्थी के जीवन में, हर माता-पिता की दिनचर्या में और हर शिक्षक अध्यापन में भी उपस्थित है। परीक्षा में असफल होना, मनचाही राह बंद हो जाना या असमर्थता का अनुभव होना — इनमें से प्रत्येक स्थिति संघर्ष के ही रूप हैं। किंतु यदि इनसे हार मान ली जाए, तो प्रतिभा का विकास कैसे होगा? विकास की हर सीढ़ी संघर्ष की भट्टी में तपकर ही बनती है। प्राकृति में भी देखें — तो पहाड़ों की ऊँचाई, समुद्र की गहराई या वनों की सघनता — सभी संघर्ष के ही रूप हैं। चार्ल्स डार्विन ने ‘विकासवाद’ का सिद्धांत, जिसमें जीवों का उत्कर्ष उनकी संघर्षशीलता पर आधारित था। यानी, संघर्ष कोई शाप नहीं, बल्कि वरदान है — जो योग्य को चुनता नहीं, गढ़ता है। युवाओं को चाहिए कि वे संघर्ष से विमुख न हों, बल्कि उसमें अपने व्यक्तित्व की संभावना देखें। कठिनाइयाँ रास्ता रोकने नहीं, नए मार्ग दिखाने आती हैं।

इसलिए,संघर्ष को अपना शत्रु नहीं, सबसे घनिष्ठ मित्र बनाइए। यह वही तराजू है जो हमें हमारी असली क्षमता से परिचित कराता है। झरनों के किनारे बैठकर बाँसुरी बजाना आनंददायक हो सकता है, पर जीवन की असली तृप्ति उस चोटी पर चढ़ने में है जिसके लिए हमने हज़ार बार गिरकर फिर उठना सीखा हो।

अंततः, संघर्ष वह दीपक है जो अंधेरे में जलता है और दूसरों को राह दिखाता है।
संघर्षहीन जीवन एक नीरस अधूरी कहानी है, जबकि संघर्षशील जीवन—एक जीवंत महाकाव्य।

मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

🎭 नाटक – "स्वास्थ्य और स्वच्छता!"✨

बाल रंगमंच – स्वास्थ्य का पहला क़दम है स्वच्छता!

बाल रंगमंच 🎭

"स्वास्थ्य का पहला क़दम है स्वच्छता!"

गोलू, माँ और डॉक्टरनी
गोलू, माँ और डॉक्टरनी

पात्र:

  • गोलू: एक कम सफाई पसंद बच्चा।
  • माँ: गोलू की ममतामयी माँ।
  • डॉक्टरनी: एक अनुभवी और स्नेहिल डॉक्टर।
दृश्य: गोलू का कमरा। कमरे में खिलौने, किताबें और कपड़े अस्त-व्यस्त पड़े हैं। कुछ खाली चिप्स के पैकेट और बिस्किट के रैपर भी इधर-उधर बिखरे हैं। गोलू बिस्तर पर उदास लेटा है, उसका चेहरा उतरा हुआ है। माँ उसके माथे पर प्यार से हाथ फेर रही हैं।

👩🏻माँ: (चिंता भरे स्वर में) अरे मेरे लाडले, क्या हो गया तुझे? सुबह तो तू 'उधम मचाना' था और अब ऐसे 'मुर्झाया फूल' जैसा पड़ा है।

👦🏻गोलू: (कमजोर आवाज में) माँ, मेरा पेट दुख रहा है... और जी भी मिचला रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे 'पेट में चूहे दौड़ रहे' हों और कुछ 'काट' रहे हों।

👩🏻माँ: (घबराकर) हाय राम! ये क्या हो गया अचानक? तूने कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं खा लिया बाहर? आजकल के बच्चे भी न, 'बिना सिर पैर की' चीजें खाते रहते हैं।

👦🏻गोलू: नहीं माँ... मैंने तो बस वही खाया जो आप देती हो... और कल... कल मैंने चाट खाई थी... ठेले पर...

👩🏻माँ: (माथे पर शिकन डालते हुए) ठेले की चाट! मैंने तुझे कितनी बार मना किया है गोलू! बाहर की चीजें 'रोगों की जड़' होती हैं। चल, उठ। मैं तुझे डॉक्टरनी के पास ले चलती हूँ। 'जान है तो जहान है'।

(माँ गोलू को सहारा देकर उठाती है और दूसरे दृश्य में डॉक्टरनी के क्लीनिक में पहुँचते हैं। डॉक्टरनी स्नेह से गोलू से बात करती हैं।)

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: (मुस्कुराते हुए) नमस्ते गोलू बेटा! क्या हाल है तुम्हारे? सुना है, आज तुम थोड़ा 'ढीले' हो?

👦🏻गोलू: (धीरे से) जी डॉक्टरनी... मेरा पेट दुख रहा है और उल्टी जैसा मन हो रहा है।

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: (गोलू की जाँच करते हुए) हम्म... लगता है तुम्हारे पेट में कुछ गड़बड़ हो गई है। क्या तुम साफ-सफाई का ध्यान रखते हो बेटा? अपने हाथ धोते हो खाना खाने से पहले?

👦🏻गोलू: (नीचे देखते हुए) कभी-कभी भूल जाता हूँ डॉक्टरनी... खेलते-खेलते ध्यान नहीं रहता।

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: (प्यार से समझाते हुए) देखो गोलू, सफाई और स्वास्थ्य का आपस में बहुत गहरा नाता है। जैसे 'तेल और बाती' का होता है। अगर तुम अपने आसपास गंदगी रखोगे, तो उसमें कीटाणु पनपते हैं। ये छोटे-छोटे दुश्मन हमारी आँखों से दिखाई नहीं देते, लेकिन ये हमें बीमार कर सकते हैं।

👩🏻माँ: (चिंता से) हाँ डॉक्टरनी, मैं तो इसे रोज कहती हूँ कि अपना कमरा साफ रखा करो, कपड़े ठीक से रखो, लेकिन यह मेरी सुनता ही नहीं। इसके कमरे में तो हमेशा 'घोड़ों की दौड़' मची रहती है।

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: (गोलू की ओर देखकर) गोलू बेटा, क्या तुम चाहते हो कि ये कीटाणु तुम्हें परेशान करें? तुम्हें खेलने से रोकें? तुम्हें दर्द दें?

👦🏻गोलू: (ना में सिर हिलाते हुए) नहीं डॉक्टरनी... मुझे दर्द बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: तो फिर तुम्हें सफाई का ध्यान रखना होगा। अपने हाथों को साबुन से अच्छी तरह धोना, रोज नहाना, अपने कपड़े और कमरे को साफ रखना - ये सब स्वस्थ रहने के 'मूल मंत्र' हैं। गंदगी तो बीमारियों को 'खुला निमंत्रण' देती है।

👦🏻गोलू: (आँखों में जिज्ञासा लिए) सच में डॉक्टरनी? अगर मैं सफाई रखूंगा तो मैं बीमार नहीं पडूंगा?

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: (सिर हिलाकर) हाँ बेटा! यह 'सौ टके की बात' है। सफाई रखोगे तो बीमारियाँ तुमसे 'कोसों दूर' भागेंगी। स्वस्थ रहोगे तो खूब खेलोगे, पढ़ोगे और मज़े करोगे। है ना?

👦🏻गोलू: (उत्साह से) हाँ डॉक्टरनी! अब मैं हमेशा सफाई रखूंगा। मैं अपना कमरा भी साफ करूंगा और खाना खाने से पहले हमेशा हाथ धोऊंगा। 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत', अब मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।

माँ: (खुशी से) यह हुई न बात मेरे प्यारे बेटे की! मुझे विश्वास है, अब तू जरूर ध्यान रखेगा।

👩🏻‍⚕️डॉक्टरनी: बहुत अच्छे गोलू! याद रखना, 'पहला सुख निरोगी काया'। स्वस्थ रहने के लिए सफाई बहुत जरूरी है। यह सिर्फ तुम्हारे लिए ही नहीं, सबके लिए जरूरी है।

(डॉक्टरनी गोलू को कुछ दवाइयाँ देती हैं और उसे आराम करने की सलाह देती हैं। गोलू अपनी माँ के साथ घर लौटता है। अगले दृश्य में गोलू का कमरा पहले से बहुत साफ-सुथरा दिखता है। गोलू अपने खिलौनों को ठीक से रख रहा है।)

👩🏻माँ: (प्यार से देखती हुई) वाह मेरे बेटे! यह तो 'दिन दूनी रात चौगुनी' तरक्की कर रहा है! आज तो तेरा कमरा बिल्कुल 'चमक' रहा है।

गोलू: (मुस्कुराते हुए) हाँ माँ! डॉक्टरनी ने मुझे सफाई का महत्व समझाया। अब मैं समझ गया कि 'स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन' बसता है। अब मैं कभी गंदगी नहीं करूंगा।

👦🏻 गोलू: (मुस्कुराकर): अब मैं सफाई का ब्रांड एम्बेसडर बनूँगा! ...और सबको बताऊँगा – “गंदगी हटाओ, बीमारी भगाओ!”

(गोलू एक झाड़ू उठाकर कमरे के एक कोने में पड़ी धूल को साफ करने लगता है। माँ उसे प्यार से देखती हैं।)

पर्दा गिरता है 🎭

📢 “स्वस्थ जीवन का असली मंत्र – स्वच्छता ही संकल्प!”


📚 शिक्षकगण, अभिभावक एवं रंगमंच-प्रेमियों से निवेदन है कि इस नाटक को पढ़ें - पढाएं और छात्रों से मंचित करवाएं तथा "स्वच्छ भारत अभियान" का संदेश हर जन-जन तक पहुँचाएँ।

📩 यदि स्क्रिप्ट पढ़कर पसंद आये तो, कमेंट करें "💚स्वच्छता"

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