लखनऊ की एक ठंडी सुबह थी। सूरज जैसे बादलों में छिपकर हनीफ की किस्मत को मुँह चिढ़ा रहा था। हनीफ चालीस की दहलीज़ लाँघ चुका था। एक ऐसा शख्स था जिसकी कमाई भले कम रही हो, पर उसकी ईमानदारी कभी दिवालिया नहीं हुई। साल भर पहले तक वह भी सरकारी महकमे में बड़े बाबू के पद पर कुर्सी-नशीन था। सत्यवादिता और ईमानदारी ऐसी थी कि रिश्वत लेने वालों के सामने वह कभी न झुक सका।
नतीज़तन बार-बार सज़ा में एक जगह से दूसरी जगह तबादला होता रहा, और अंततः नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा।
अब वह बेरोजगारी की मार झेल रहा था। छोटे-मोटे काम कर लेता था, पर पेट की भूख और परिवार की उम्मीदें, दोनों हर रोज़ उससे ज्यादा की ही माँग करतीं।
घर में उसकी पत्नी, नसीमा, जिसे पहले उसकी ईमानदारी पर गर्व हुआ करता था, अब वो गर्व शिकायत में बदल चुका था।
“ईमानदारी का क्या कर लूँ, हनीफ? इससे चूल्हे की आग नहीं जलती!”
नसीमा के ये शब्द हर शाम के पानी रोटियों से अधिक कड़वे हो चले थे।
बेटा अरमान, दसवीं में पढ़ता था। वो समझता था अब्बू की बेबसी, पर उम्र इतनी नहीं थी कि भूखे पेट आदर्शों की बातें हज़म कर सके।

उस दिन हनीफ काम की तलाश में रेलवे स्टेशन के पास भटक रहा था। थका-हारा एक बेंच पर बैठा और टिफिन खोला। दो सूखी रोटियाँ थी, और एक अदद प्याज भी। तभी अचानक उसके कानों में पास की सीढ़ियों से किसी के धीमे, टूटी साँसों वाले कराहने की आवाज आई। उसने मुड़कर देखा—एक बूढ़ा आदमी था... फटे पुराने कपड़ों में लिपटा, आँखों में गहराई नहीं, बेबसी थी, और काँपता हुआ शरीर जैसे हर सांस ज़िंदगी से भीख माँग रही हो...।
"क्या हुआ चाचा, तबियत तो ठीक है? कुछ चाहिए क्या?" - थोड़ा और करीब जाकर हनीफ ने पूछा।
बूढ़े ने सिर हिलाया, "तीन दिन से कुछ नहीं… खाया।"
हनीफ को काटो तो खून नहीं, वह वहीं सीढ़ियों पर उसके पास बैठ गया और टिफिन उसके सामने खोलकर रखते हुए बोला -
"लीजिए... ये अब आपका है।"
बूढ़े की आँखें भर आईं। वो रोटियों को ऐसे देख रहा था जैसे उसे उसका खोया हुआ सम्मान मिल गया हो।
खाते-खाते उसकी आँखों से गिरते हुए आंसू रोतोयों को और नर्म बना रहे थे। उसके बोल फूट पड़े -
"तुम्हें क्या बताऊँ, बेटा... मेरा नाम राघवेन्द्र है। कभी मेरा इस शहर में बहुत बड़ा व्यापार हुआ करता था।
व्यापार में धोखा मिला, सब कुछ लुट गया। अब तो पहचान भी नहीं बची।"
अगले कई हफ्तों तक हनीफ ने उसकी मदद की – पुराने दस्तावेज़ ढूंढे, एक वकील से मिलवाया और हर उस दरवाज़े तक गया जहाँ से इंसाफ़ की कोई उम्मीद थी।
छह महीने बाद राघवेन्द्र जी को इंसाफ मिला; खोई हुई संपत्ति मिल गई।
एक सुबह, दरवाज़े की घंटी बजी। नसीमा ने दरवाज़ा खोला – सामने चमचमाती गाड़ी, और उसमें से उतरे राघवेन्द्र जी। उन्होंने एक लिफाफा थमाया – जिसमें एक पत्र और कुछ दस्तावेज़ थे।
“हनीफ भाई, जिस दिन आपने भूखे को अपने हिस्से की रोटी दी थी, उस दिन आपने सिर्फ मेरी भूख नहीं मिटाई थी – आपने मेरी आत्मा को फिर से जिंदा किया था।
अब मेरी बारी है। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे साथ साझेदार बनें। यह व्यापार आपकी सच्चाई पर खड़ा होगा – और उसका नाम होगा ‘सच्चिदानंद इंटरप्राईज़ेज़’।”
हनीफ की आँखें भर आईं। नसीमा एक कोने में खड़ी मुस्कुरा रही थी – पहली बार शिकायत से नहीं, संतोष से। अरमान दौड़कर हनीफ से लिपट गया, "अब्बू, अब तो हमें किसी से उधार नहीं लेना पड़ेगा, है ना?" हनीफ ने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा – "नहीं बेटा… अब जो मिल रहा है, वो कर्ज़ नहीं… सच का इनाम है।"
आज हनीफ का वह छोटा कारोबार एक नई फसल की तरह दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। — ईमानदारी उसका खाद है, लगन उसका पानी। और तो और उसके साए में कई और लोगों की ज़िंदगियाँ भी रौशन हो रही है। उसके ऑफिस के दरवाज़े पर एक पंक्ति लिखी है:
“सच की डगर लंबी होती है… लेकिन वहाँ रोशनी सबसे ज़्यादा होती है।”
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