दोपहर के दो बजे थे। स्कूल से लौटकर नाव्या रोज़ की तरह अपने कमरे में पहुँच गई। उसके मम्मी-पापा दोनों ऑफिस चले जाते थे, और घर पर उसकी देखभाल के लिए रमा बाई होती थीं — उम्रदराज़, स्नेहिल और समझदार।
नाव्या अपने स्कूल बैग को ज़मीन पर रखते हुए खिड़की की ओर बढ़ी, जहाँ से धूप की सुनहरी लकीरें फर्श पर बिछी हुई थीं। तभी एक हल्की-सी "चूँ-चूँ" की आवाज़ ने उसका ध्यान खींचा।
वो खिड़की के पास गई और देखी — मुंडेर पर एक नन्हा-सा गौरैया का बच्चा सहमा हुआ बैठा था। उसकी आँखों में डर, काँपता शरीर और पंख गीले-से लग रहे थे।
"अरे, कितना प्यारा है!" नाव्या की आँखें चमक उठीं। वो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी, उसे गोद में लेने के लिए।
लेकिन तभी — "नाव्या! रुको!" रमा बाई की आवाज़ जैसे बिजली-सी गूंजी और वह भागते हुए आईं।
"मैं तो बस इसे उठाना चाह रही थी, कितना अकेला लग रहा है ना?" नाव्या ने मासूमियत से कहा।
रमा ने उसे गोद में उठाया, प्यार से उसका माथा चूमा और धीरे से कहा, "बिटिया, तुम्हें पता है, ये भी एक बच्चा है — ठीक तुम्हारी तरह। ये अपने मम्मी-पापा से बिछड़ गया है।"
नाव्या की भौंहें सिकुड़ गईं, "पर मैं तो इसे प्यार से रखूँगी, अपने पास।"
रमा ने मुस्कराकर कहा, "हाँ, मुझे मालूम है। पर प्यार का मतलब ये नहीं कि हम किसी को उसके अपनों से दूर कर दें।"
उन्होंने नाव्या को गोद में उठाकर उसका चेहरा बालकनी के मुंडेर के उस पार इशारा करके दिखाया और कहा, "देखो उधर… वो दो बड़ी गौरैयाँ दिख रही है — वे इसके माँ-बाप हैं। वे चक्कर लगा रहे हैं, चीख-चीख कर इसे बुला रहे हैं। यह अभी बच्चा है, शायद उड़ना सिखाते वक्त रास्ता भटक गया है।"
नाव्या की आँखें अब गौरैयों के पीछे-पीछे घूमने लगीं।
"अब सोचो," रमा बोलीं, "अगर तुम स्कूल से आकर देखो कि मम्मी-पापा कहीं नहीं हैं, और तुम किसी अजनबी जगह पर हो, तो कैसा लगेगा तुम्हें?"
नाव्या कुछ देर चुप रही, फिर धीरे से बोली, "बहुत बुरा… मैं तो रो दूँगी दीदी।"
रमा ने उसे गले लगाते हुए उसका सिर प्यार से सहलायी, "बस, वही इस नन्हे परिंदे को भी महसूस हो रहा है। अगर हमने इसे अभी पकड़ लिया, तो ये अपने माँ-पिताजी को कभी नहीं ढूंढ पाएगा और उनसे हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ जाएगा।"
”हर जानवर, हर परिंदा… किसी की संतान होता है। जैसे हम अपने परिवार में सुरक्षित महसूस करते हैं और उनसे बिछड़ना नहीं चाहते, वैसे ही उन्हें भी उनका परिवार चाहिए होता है।”।”
नाव्या की नज़र अब नन्हे गौरैया पर थी, जो अभी भी हल्की-सी चूँ-चूँ की आवाज कर रहा था।
रमा ने मुस्कराते हुए उसकी हथेली पर कुछ अनाज के दाने रखे और पास ही एक छोटा-सा कटोरा पानी से भर दिया।
"चलो बिटिया, इसे यहाँ रख दो। जब तक इसके पंख मज़बूत न हो जाएँ, तब तक इसे थोड़ा सहारा मिल जाएगा।"
नाव्या ने मुंडेर के कोने में वो दाना और पानी रख दिया। थोड़ी ही देर में गौरैया के माता-पिता भी नज़दीक आ गए। उन्होंने पहले नन्हे गौरैया को दुलारा, फिर दाने चुगे, पानी पिया और मिलकर एक हल्की-सी उड़ान में अपने बच्चे को साथ ले गए।
नाव्या की आँखें उन तीनों को उड़ते देखती रहीं — उनके पंखों की फड़फड़ाहट और चूँ-चूँ की मिठास जैसे उसके दिल में कुछ नया बसा गई हो।
उस दिन के बाद, एक आदत सी बन गई थी।
हर सुबह स्कूल जाने से पहले और आने के बाद दोपहर में नाव्या मुंडेर पर दाना और पानी रख देती। गौरैयाँ अपने पूरे परिवार के साथ आतीं, चहचहातीं, फुदकतीं, दाना चुगतीं और फिर मधुर "चूँ-चूँ" करते हुए उड़ जातीं।
नाव्या दूर से उन्हें देखती, और हर बार उसके मन में एक मीठी मुस्कान खिल जाती।
उसने सीखा था —मदद सिर्फ पकड़कर क़ैद कर लेने से नहीं होती, बल्कि आज़ादी देकर भी किया जा सकता है; और यही सच्ची दया और पशु-प्रेम होता है।
सीख:"जब हम किसी जीव को उसकी आज़ादी और परिवार लौटा देते हैं, तब वे हमारे दिल के सबसे सुंदर कोने में हमेशा के लिए चहकते रहते हैं।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके बहुमूल्य कॉमेंट के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।