🌿क्या होता अगर जीवन में कोई संघर्ष ही न होता?
"यदि जीवन केवल मुलायम और सुगंधित फूलों की सेज होता, तो क्या मनुष्य कभी अनंत आकाश और अकल्पनीय अंतरिक्ष तक उड़ान भरना सीख पाता? यदि चुनौतियाँ न होतीं, तो शायद मानव चेतना अब भी आलस्य की गोद में विश्राम कर रही होती। कल्पना कीजिए—यदि मनुष्य प्रकृति की कठोरताओं से जूझने की बजाय किसी झरने के पास पेड़ की छाँव में बैठकर चैन की बाँसुरी बजा रहा होता, तो क्या हम आग, पहिए, विज्ञान या भाषा जैसे अद्भुत आविष्कारों से परिचित हो पाते? मनुष्य का विकास तब संभव हुआ, जब उसने हर चुनौती में नए अवसरों की चमक देखी, अभावों में सृजन की शक्ति और असुविधाओं में सीखने का अवसर खोज निकाला। इतिहास गवाह है—हर युग की महानता के पीछे संघर्ष का मौन संगीत अनवरत गुंजायमान रहा है।"

संघर्ष: विकास का अटूट सोपान
परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है, और इस परिवर्तन का बीज छिपा होता है — आवश्यकता में। जब आवश्यकता जन्म लेती है, तभी संघर्ष की शुरुआत होती है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि संघर्ष ही मानव विकास की राह में वह मील का पत्थर है, जिसे पार करते हुए मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। संघर्ष को किसी नकारात्मकता से जोड़कर देखने की बजाय, इसे एक सशक्त प्रेरणा समझना चाहिए — वह प्रेरणा जो हमारी सुप्त क्षमताओं को जागृत करती है। यह हमें न केवल अपनी सीमाओं को पहचानने का अवसर देता है, बल्कि अपनी कमजोरियों को समझकर उन्हें दूर करने की शक्ति भी प्रदान करता है। जिस प्रकार सोना अग्नि में तपकर और अधिक खरा बनता है, उसी प्रकार संघर्ष से मनुष्य और भी बलवान, सक्षम और उन्नत बनता है।
बिना संघर्ष के जीवन? सोचिए, अगर हमें बिना प्रयास के सबकुछ मिल जाता — तो क्या हमारे अंदर कुछ नया करने, कुछ खोजने, कुछ सृजन करने की भावना जागती? शायद नहीं। आराम मनुष्य को जड़ बनाता है, जबकि संघर्ष उसे गतिशीलता देता है। कल्पना कीजिए एक ऐसे संसार की जहाँ कोई होड़ नहीं, कोई रुकावट नहीं, कोई मुश्किल हालात नहीं। क्या ऐसा जीवन सच में जीवन कहलाएगा? वह तो एक बंद कमरे सा होगा — जहाँ न हवा चलेगी, न रोशनी आएगी, और न ही किसी बदलाव की हलचल कोई होगी।" इंसान स्वभाव से कर्मठ, जिज्ञासु और उन्नत-शील अन्वेषक रहा है। उसकी यही अंदरूनी इच्छा उसे अनजान रास्तों पर ले जाती है, सीमाओं को तोड़ने के लिए उत्साहित करती है, और यही उत्साह जीवन-संघर्ष को जन्म देता है।

संघर्ष का सौंदर्य इस बात में है कि संघर्ष इंसान को उसकी सीमाओं से बाहर निकलने को प्रेरित करता है। महाकवि दिनकर कहते हैं कि - 'थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है..। संघर्ष मुश्किल हालातों में धैर्य और साहस बनाए रखना सिखाता है। यह समस्याओं के समाधान के नए रास्ते खोजने की क्षमता विकसित करता है और रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करता है। जब हम किसी चुनौती का सामना करते हैं और उसे पार कर लेते हैं, तो केवल बाधा ही नहीं टूटती—बल्कि आत्मविश्वास और आत्मसम्मान भी नया आकार लेते हैं। यह विजय हमें आने वाले संघर्षों के लिए और अधिक मजबूत बनाती है। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका की कठोर धरती पर अन्याय का स्वाद चखा, परंतु अपमान के सामने झुकने के बजाय उनकी आत्मा जाग उठी। वहीं से सत्याग्रह की मशाल जली, जिसने भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम — जिन्होंने रामेश्वरम की तंग गलियों से निकलकर भारतीय विज्ञान को आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँचाया—ने कभी अभावों को अपनी गति में रुकावट नहीं बनने दिया। उनका संघर्ष उन्हें केवल वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के लिए प्रेरणास्रोत भी बना गया। हेलेन केलर — जिन्होंने अंधकार, मौन और जड़ता से जूझते हुए ज्ञान, भाषा और संवेदना का आलोक प्राप्त किया—का संघर्ष बाहरी ही नहीं, भीतर का भी था। और इसी आंतरिक युद्ध ने उन्हें ‘दिव्य दृष्टि’ प्रदान की। दशरथ मांझी ने अपने जीवन के सबसे कठिन शोक को शक्ति में बदल दिया। उन्होंने अकेले अपने हाथों से पहाड़ काटकर एक रास्ता बनाया—यह केवल उनके प्रेम की नहीं, उनके अथक संघर्ष की अमर गाथा है।
संघर्ष का मोल सिर्फ सफलता में नहीं, बल्कि उस प्रक्रिया में छुपा होता है जहाँ व्यक्ति स्वयं को पहचानता है, चुनौतियों से लड़ता है, और अंततः एक नई दृष्टि प्राप्त करता है। संघर्षों से परेशान होना स्वाभाविक है। निराशा और हार मानने के पल आ सकते हैं, लेकिन जरूरी यह है कि हम उन पलों में अपनी अंदर की ताकत को पहचानें और आगे बढ़ने का फैसला करें। हर संघर्ष अपने साथ एक नया सबक, एक नया अनुभव और विकास का एक नया मौका लेकर आता है। हमें उस मौके को पहचानना और उसका सही इस्तेमाल करना सीखना होगा।
संघर्ष केवल महाविभूतियों के जीवन का गहना नहीं रहा है, वह तो आज के हर विद्यार्थी के जीवन में, हर माता-पिता की दिनचर्या में और हर शिक्षक अध्यापन में भी उपस्थित है। परीक्षा में असफल होना, मनचाही राह बंद हो जाना या असमर्थता का अनुभव होना — इनमें से प्रत्येक स्थिति संघर्ष के ही रूप हैं। किंतु यदि इनसे हार मान ली जाए, तो प्रतिभा का विकास कैसे होगा? विकास की हर सीढ़ी संघर्ष की भट्टी में तपकर ही बनती है। प्राकृति में भी देखें — तो पहाड़ों की ऊँचाई, समुद्र की गहराई या वनों की सघनता — सभी संघर्ष के ही रूप हैं। चार्ल्स डार्विन ने ‘विकासवाद’ का सिद्धांत, जिसमें जीवों का उत्कर्ष उनकी संघर्षशीलता पर आधारित था। यानी, संघर्ष कोई शाप नहीं, बल्कि वरदान है — जो योग्य को चुनता नहीं, गढ़ता है। युवाओं को चाहिए कि वे संघर्ष से विमुख न हों, बल्कि उसमें अपने व्यक्तित्व की संभावना देखें। कठिनाइयाँ रास्ता रोकने नहीं, नए मार्ग दिखाने आती हैं।
इसलिए,संघर्ष को अपना शत्रु नहीं, सबसे घनिष्ठ मित्र बनाइए। यह वही तराजू है जो हमें हमारी असली क्षमता से परिचित कराता है। झरनों के किनारे बैठकर बाँसुरी बजाना आनंददायक हो सकता है, पर जीवन की असली तृप्ति उस चोटी पर चढ़ने में है जिसके लिए हमने हज़ार बार गिरकर फिर उठना सीखा हो।
अंततः, संघर्ष वह दीपक है जो अंधेरे में जलता है और दूसरों को राह दिखाता है।
संघर्षहीन जीवन एक नीरस अधूरी कहानी है, जबकि संघर्षशील जीवन—एक जीवंत महाकाव्य।
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