सोमवार, 31 मार्च 2025

✨ लाख का जादू: शृंगार से उद्योग तक की यात्रा ✨

लाखों कीड़ों के लार्वा से बनाता 'लाख'

भारत की पारंपरिक कला, संस्कृति और सौंदर्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है लाख। यह न केवल आभूषणों में, बल्कि सील, सजावट और वाणिज्यिक उपयोग में भी अपनी खास पहचान रखता है। लाख की चूड़ियां जहां भारतीय स्त्रियों के सौभाग्य और शृंगार का प्रतीक मानी जाती हैं, वहीं इसका उपयोग दस्तावेजों की सीलिंग से लेकर हस्तशिल्प और फर्नीचर उद्योग तक विस्तारित है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि लाख आता कहां से है और इसे व्यावसायिक इस्तेमाल योग्य कैसे बनाया जाता है।

लाख एक प्राकृतिक राल (रेजिन) है, जो ‘लाख कीट’ (Kerria lacca) नामक छोटे कीटों द्वारा उत्पन्न किया जाता है। ये कीट मुख्य रूप से भारत, थाईलैंड, म्यांमार और इंडोनेशिया के जंगलों में पाए जाते हैं। लाख कीट पेड़ों की टहनियों पर बसेरा बनाकर उनसे रस निकालते हैं और अपने शरीर से एक चिपचिपा पदार्थ निकालते हैं, जो धीरे-धीरे ठोस होकर लाख में परिवर्तित हो जाता है। इसे काटकर एकत्र किया जाता है और फिर विभिन्न विधियों से शुद्ध कर व्यावसायिक उपयोग के लिए तैयार किया जाता है।

लाख की सील 
लाख का उपयोग प्राचीन काल से ही भारतीय परंपरा का अभिन्न अंग रहा है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में लाख से बने आभूषणों और वस्तुओं का उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी ‘लाक्षागृह’ (लाख का महल) का उल्लेख किया गया है, जो लाख के महत्व को दर्शाता है। भारतीय महिलाएं विशेष रूप से लाख की चूड़ियों को शुभ मानती हैं। शादीशुदा स्त्रियों के लिए यह सौभाग्य का प्रतीक होती हैं। राजस्थान, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में लाख की चूड़ियों का निर्माण पारंपरिक रूप से किया जाता है और यह एक प्रमुख हस्तशिल्प उद्योग भी है।

लाख केवल आभूषणों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके कई व्यावसायिक और औद्योगिक उपयोग भी हैं। सरकारी और कानूनी दस्तावेजों को सुरक्षित करने के लिए लाख की सील का उपयोग किया जाता है। पुराने जमाने में राजा-महाराजाओं के फरमान और व्यापारिक दस्तावेजों पर भी लाख की सील लगाई जाती थी। लाख से बनी मूर्तियां, खिलौने और सजावटी वस्तुएं भारत के हस्तशिल्प बाजार में एक प्रमुख स्थान रखती हैं। लकड़ी के फर्नीचर को चमकदार और टिकाऊ बनाने के लिए लाख से बनी पॉलिश का उपयोग किया जाता है। लाख से एक प्रकार की प्राकृतिक गोंद और वार्निश बनाई जाती है, जिसका उपयोग संगीत वाद्ययंत्रों और उच्च गुणवत्ता वाली लकड़ी की वस्तुओं पर किया जाता है।

लाख की चूडियाँ / चमकती टॉफियाँ  
दिलचस्प बात यह है कि लाख का उपयोग खाद्य उद्योग में भी किया जाता है। बच्चों की टॉफियों और कैंडीज को चमकाने के लिए लाख की  एक परत चढ़ाई जाती है, जिससे वे आकर्षक दिखती हैं और लंबे समय तक सुरक्षित रहती हैं। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो लाख के बहुआयामी उपयोग को दर्शाता है। विवाह, तीज, करवा चौथ और अन्य पर्वों पर महिलाएं लाख की चूड़ियां पहनकर अपनी संस्कृति और परंपरा को सहेजती हैं। यह भारत की हस्तशिल्प परंपरा का एक जीवंत उदाहरण है, जो आज भी कारीगरों के परिश्रम और समर्पण से जीवंत बनी हुई है।

लाख भारतीय संस्कृति और परंपरा की पहचान है। यह न केवल सौंदर्य और श्रृंगार का हिस्सा है, बल्कि औद्योगिक और व्यावसायिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। आधुनिकता के इस दौर में भी लाख का महत्व बना हुआ है, और यह भारत की सांस्कृतिक धरोहर का एक अनमोल हिस्सा बना रहेगा।


संदर्भ:

  1. भारतीय हस्तशिल्प मंत्रालय की रिपोर्ट, 2023।
  2. “लाख उद्योग: एक पारंपरिक भारतीय कला” – भारतीय शिल्प अनुसंधान पत्रिका।
  3. “महाभारत में लाक्षागृह का वर्णन” – पौराणिक ग्रंथों का विश्लेषण, 2021।
नई शब्दावली 
    1. लाख (लाक्षा) Lac / Lacquer
    2. श्रृंगार Ornamentation / Adornment
    3. वाणिज्यिक Commercial
    4. हस्तशिल्प Handicraft
    5. पारंपरिक Traditional
    6. सौभाग्य Good Fortune / Auspiciousness
    7. दस्तावेज Documents
    8. सील  Seal
    9. स्रावित Secreted
    10. अभिन्न अंग Integral Part
    11. संकटकालीन Crisis Period
    12. परंपरा Tradition
    13. धरोहर Heritage
    14. टिकाऊ Durable
    15. पॉलिश Polish
    16. गोंद Adhesive / Glue
    17. वार्निश Varnish
    18. संरक्षित Preserved
    19. पौराणिक Mythological
    20. वर्णन Description
    21. अनुसंधान Research
    22. फरमान Royal Decree / Order
    23. कारीगर Artisan

    नारी शक्ति: सृष्टि की आधारशिला

    सशक्त आधुनिक नारी 
    सृष्टि की प्रत्येक धारा में नारी शक्ति का योगदान अद्वितीय और अनुपम है। यह शक्ति केवल जैविक निर्माण तक सीमित नहीं, बल्कि समस्त ब्रह्मांड की आधारशिला है। नारी केवल जन्मदात्री ही नहीं, बल्कि पालनहार, संरक्षक, मार्गदर्शक और समाज को सही दिशा देने वाली प्रेरणास्त्रोत भी है। भारतीय संस्कृति में नारी को शक्ति का प्रतीक माना गया है, और चैत्र नवरात्रि इसी शक्ति की साधना और आराधना का पर्व है।

    चैत्र नवरात्रि का प्रत्येक दिन माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा के लिए समर्पित होता है। यह देवी दुर्गा के नौ रूपों की आराधना का पावन अवसर है, जहां उन्हें शक्ति, ज्ञान, धैर्य, करुणा, और रक्षा के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। नारी स्वयं में इस आदिशक्ति का प्रतिरूप है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में स्त्री को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। ऋग्वेद से लेकर महाभारत तक, नारी का सम्मान और उसकी शक्ति को स्वीकार किया गया है। गार्गी, मैत्रेयी, मदालसा और सावित्री जैसी विदुषियों ने समाज को अपने ज्ञान और नीतियों से आलोकित किया।[^1]

    जैसा कि कहा गया है:

    "नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में। पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।"[^2]

    नारी के अनेक रूप हैं—वह मां है, जो वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है। वह बहन है, जो स्नेह का प्रतीक है। वह बेटी है, जो सृजन की निरंतरता का आधार है। वह पत्नी है, जो प्रेम, सहयोग और समर्पण की प्रतिमा है। वह शिक्षिका है, जो ज्ञान का संचार करती है। नारी के बिना समाज की कल्पना अधूरी है।

    आज के आधुनिक समाज में नारी शक्ति को नए आयाम मिल रहे हैं। महिलाएं शिक्षा, विज्ञान, राजनीति, कला, साहित्य और व्यापार के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं। भारतीय महिला वैज्ञानिकों ने मंगलयान मिशन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, खेल के क्षेत्र में मैरी कॉम और सायना नेहवाल जैसी हस्तियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बढ़ाया।[^3]

    चैत्र नवरात्रि हिंदू पंचांग के अनुसार नववर्ष का प्रारंभ मानी जाती है। यह वसंत ऋतु का प्रारंभिक पर्व है, जो प्रकृति के पुनरुत्थान और आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है। भारत में इसे विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इसे राम नवमी के रूप में मनाया जाता है, जबकि महाराष्ट्र में 'गुड़ी पड़वा' के रूप में इसे नई फसल और सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में इसे 'उगादि' के रूप में नववर्ष के स्वागत के रूप में मनाया जाता है। पश्चिम बंगाल और ओडिशा में देवी दुर्गा की उपासना विशेष रूप से होती है।[^4]

    नवरात्रि केवल देवी की पूजा करने का पर्व नहीं, बल्कि यह स्त्री के महत्व को समझने और स्वीकार करने का अवसर भी है। यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि नारी का सम्मान और उसकी स्वतंत्रता समाज की प्रगति के लिए आवश्यक है। जिस समाज में नारी का सम्मान होता है, वह समाज सृजनशील, समृद्ध और संतुलित होता है।[^5]

    जैसा कि वाल्मीकि रामायण में कहा गया है:

    "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।।"[^6]

    आज भी कई क्षेत्रों में नारी को संघर्ष करना पड़ रहा है। शिक्षा, रोजगार और सामाजिक सम्मान के लिए नारी को अब भी अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। डिजिटल युग में महिलाएं वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना रही हैं, लेकिन समान वेतन, लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और कार्यस्थल पर असुरक्षा जैसी समस्याएँ अभी भी बनी हुई हैं। महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा और असमान अवसरों को समाप्त करने के लिए सरकारें और सामाजिक संगठन प्रयासरत हैं। "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" जैसी योजनाएँ, समान वेतन के लिए कानून और कार्यस्थल पर सुरक्षा उपाय, इन चुनौतियों को हल करने के महत्वपूर्ण कदम हैं।[^7]

    इसके बावजूद, आधुनिक नारी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही है और आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है। वह घर-परिवार के साथ-साथ व्यवसाय, विज्ञान, तकनीक, राजनीति, और प्रशासन में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। जब नारी को स्वतंत्रता, शिक्षा और आत्मनिर्णय का अधिकार मिलेगा, तभी समाज में वास्तविक उन्नति संभव होगी। नारी को केवल देवी के रूप में पूजने से अधिक, उसे वास्तविक जीवन में सशक्त बनाने की आवश्यकता है। माता भगवती का आशीर्वाद तभी साकार होगा जब हम नारी शक्ति को सामाजिक, आर्थिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाएंगे।

    नारी शक्ति संपूर्ण सृष्टि का आधार है। वह केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि संपूर्ण युगों की प्रेरणास्त्रोत है। चैत्र नवरात्रि हमें यह अवसर प्रदान करता है कि हम नारी के सम्मान और गरिमा को स्वीकारें और उसे सशक्त बनाने का संकल्प लें। मां भगवती के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए, हम सभी को यह समझना होगा कि नारी के बिना समाज अपूर्ण है। लेकिन अब यह कहानी बदल रही है। आज की नारी सशक्त, आत्मनिर्भर और अपनी पहचान खुद बनाने में सक्षम है। आइए, इस चैत्र नवरात्रि पर नारी शक्ति के जागरण का संकल्प लें और समाज में स्त्री सत्ता को उसका उचित स्थान दें।


    संदर्भ
    1. ऋग्वेद, उपनिषदों में नारी की महत्ता।
    2. मैथिलीशरण गुप्त की कविता "नारी तुम केवल श्रद्धा हो"।
    3. इसरो, मंगलयान मिशन में महिलाओं की भूमिका।
    4. भारतीय पंचांग और नवरात्रि के विभिन्न रूप।
    5. स्त्री सशक्तिकरण पर भारतीय ग्रंथों के विचार।
    6. वाल्मीकि रामायण, स्त्रियों के सम्मान पर कथन।
    7. भारत सरकार की महिला सशक्तिकरण योजनाएँ।

    शनिवार, 29 मार्च 2025

    🐦‍⬛पपीहे की पुकार: विरह, प्रतीक्षा और प्रेम की शाश्वत गाथा! 🪶

    पपीहा (चातक) पक्षी 
    भारतीय उपमहाद्वीप के आकाश में गूँजने वाली मधुर ध्वनियों में यदि कोई सबसे अधिक करुण, सबसे अधिक प्रतीक्षारत और सबसे अधिक गूढ़ अर्थों से भरी है, तो वह पपीहे का स्वर है। यह स्वर मानो किसी बिछड़े हुए प्रेमी की पुकार हो, जो अनंत आकाश की गोद में खोए अपने प्रियतम को आवाज़ देता हो। यह पक्षी अपनी विलक्षण प्रकृति के कारण न केवल लोकमानस में बल्कि साहित्य, संस्कृति और पर्यावरण में भी विशेष स्थान रखता है।

    पपीहा, जिसे वैज्ञानिक भाषा में Hierococcyx varius कहते हैं, भारत के घने वनों, उपवनों और गाँवों में पाया जाता है। यह वही पक्षी है, जिसे भारतीय मानस ने वर्षा ऋतु का अग्रदूत कहा है। जैसे ही आकाश में काले बादल उमड़ने लगते हैं, इसकी कुहू-कुहू ध्वनि वातावरण में गूंज उठती है, मानो किसी विरहिणी के मन की व्यथा अभिव्यक्त कर रही हो। लोककथाओं में इसे अमृत की बूँद के लिए तरसने वाला पक्षी कहा गया है, जो केवल स्वाति नक्षत्र की वर्षा की पहली बूँद को ही ग्रहण करता है। यह प्रतीक है संकल्प और आदर्श की पराकाष्ठा का, एक ऐसे पथिक का जो केवल अपने उच्चतम लक्ष्य के लिए तत्पर है।

    अक्सर इसे कोयल के समान समझने की भूल की जाती है, किंतु दोनों भिन्न प्रजातियाँ हैं। कोयल (Eudynamys scolopaceus) गहरे काले रंग की होती है और उसकी 'कू-कू' ध्वनि वसंत का संकेत देती है, जबकि पपीहा भूरे रंग का होता है और उसकी करुण पुकार 'पियू-पियू' या 'पियू कहे' वर्षा ऋतु में गूँजती है। जहाँ कोयल प्रेम और उल्लास की प्रतीक है, वहीं पपीहा विरह और प्रतीक्षा का प्रतीक माना जाता है।

    भारतीय काव्यधारा में पपीहा प्रेम, वियोग और प्रतीक्षा का प्रतीक बनकर उभरा है। भक्तिकाल के संत कवियों ने इसे आत्मा और परमात्मा के बीच की दूरी का प्रतीक माना। मीराबाई की भजनमालाओं में इसकी ध्वनि साधक के अंतःकरण में उठते विरह-भाव को स्वर देती है। सूरदास की कविताओं में यह गोपियों के हृदय की व्याकुलता का पर्याय बनता है। आधुनिक हिंदी कविता में महादेवी वर्मा ने इसे स्त्री हृदय की अनुगूंज के रूप में उकेरा है। प्रसिद्ध साहित्यकार हज़ारी प्रसाद द्विवेदी पपीहे को प्रतीक्षा और समर्पण की पराकाष्ठा का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार, "पपीहा केवल एक पक्षी नहीं, यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का वह अंश है, जो प्रेम और अनुराग की परिधि में विचरता है। इसकी ध्वनि हमारी परंपराओं में गूँजती है।"¹

    पपीहा मानो प्रतीक्षा की भाषा है, जो न केवल प्रेम की अभिव्यक्ति करता है, बल्कि संयम, एकनिष्ठता और समर्पण का भी प्रतीक बन जाता है। भारतीय संस्कृति में पपीहे का उल्लेख केवल साहित्य तक सीमित नहीं है। लोकगीतों में यह उस प्रिय की याद दिलाने वाला स्वर है, जो दूर परदेश गया है और जिसकी प्रतीक्षा में नायिका सावन के हर दिन को आंसुओं में गिन रही है। यह स्वर किसी व्याकुल हृदय के अधीर प्रेम का प्रतीक है, जो हर आहट में अपने प्रियतम को खोजता है। लोककथाओं में इसे सच्चे प्रेम और तपस्या के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है।

    "बूंद-बूंद को तरसे प्यासा, स्वाति जल ही पीता, बिछुड़न की पीर में खोया, नभ को ताके रीता।"

    महाकवि कालिदास ने ऋतुसंहार में पपीहे की पुकार को विरहिणी की वेदना के समान बताते हुए लिखा है कि यह पक्षी प्रेम की तीव्रता और एकनिष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है। उनके अनुसार, "पपीहे की पुकार उस अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है, जिसे केवल प्रेम की गहन अनुभूति ही समझ सकती है।"² किन्तु आज यह पक्षी संकट में है। जंगलों की कटाई, कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग और जलवायु परिवर्तन इसके अस्तित्व के लिए खतरा बन चुके हैं। प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने कहा था, "प्रकृति की हर ध्वनि एक भाषा है, और पपीहे की करुण पुकार हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि प्रकृति संकट में है। हमें इसे बचाने के लिए तुरंत प्रयास करने होंगे।"³

    इसके संरक्षण के लिए हमें प्राकृतिक संतुलन बनाए रखना होगा, वृक्षारोपण को बढ़ावा देना होगा और जैविक कृषि को अपनाना होगा। यह केवल एक पक्षी नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक विरासत का एक ऐसा अंश है, जिसे बचाना हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है। पपीहे की करुण पुकार केवल एक पक्षी की आवाज़ नहीं, बल्कि मानव हृदय की गहनतम अनुभूतियों का प्रतीक है। इसकी पुकार हमें प्रेम, प्रतीक्षा और समर्पण की गूढ़ भाषा सिखाती है। जब तक यह स्वर हमारे जंगलों में गूंजता रहेगा, तब तक प्रेम और प्रतीक्षा की इस शाश्वत गाथा का अस्तित्व बना रहेगा।

    संदर्भ:

    1. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, अशोक के फूल, 1955। 
    2. कालिदास, ऋतुसंहार, तृतीय सर्ग। 
    3. सलीम अली, द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स, 1941।

    शुक्रवार, 28 मार्च 2025

    🌿 प्राकृतिक चिकित्सा: स्वस्थ जीवन जीने की कला 🌞

    बिना दवा प्राकृतिक चिकित्सा 
    आजकल डॉक्टर भी अब दवा के साथ-साथ ताजी हवा लेने, धूप सेंकने, जंगल की सैर, समुद्र किनारे टहलने और मिट्टी में खेलने जैसी चीज़ों की सलाह देने लगे हैं।
    प्राकृतिक चिकित्सा एक ऎसी प्राचीन और वैज्ञानिक पद्धति है, जो बिना दवाओं के प्रकृति के नियमों का पालन करके स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने पर बल देती है।
    यह चिकित्सा पद्धति केवल शरीर को ठीक करने तक सीमित नहीं है, बल्कि मन और आत्मा के बीच संतुलन स्थापित करने में भी सहायक होती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी अब यह स्वीकार करने लगा है कि दवाओं के साथ-साथ प्रकृति के सान्निध्य में रहना, धूप सेंकना, खुली हवा में सांस लेना, पर्वतीय क्षेत्रों का भ्रमण करना, जंगल की सैर करना, पार्क में प्राणायाम करना, समुद्र किनारे टहलना और बच्चों को मिट्टी में खेलने देना – ये सभी स्वास्थ्य लाभ के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।

    मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ है और मृत्यु के उपरांत उसका शरीर प्रकृति के पंचतत्वों—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश—में विलीन हो जाता है। जब तक मनुष्य इन पंचतत्वों के नियमों का पालन करता है, तब तक वह स्वस्थ रहता है, लेकिन जब वह प्रकृति से विमुख होकर कृत्रिम जीवनशैली अपनाने लगता है, तब रोगों का शिकार हो जाता है। यह स्पष्ट है कि "प्राकृतिक नियमों के उल्लंघन करने का दंड ही बीमारी है।" यदि हम प्रकृति के अनुरूप जीवन नहीं जीते, तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और हमें अनेक शारीरिक व मानसिक समस्याएँ घेर लेती हैं।

    यह मेरा व्यक्तिगत मत है कि "जो प्रकृति से जुड़े नहीं हैं, वे 'अज्ञानी' हैं।" जो प्रकृति हमारे जीवन का आधार है, जिसे खोजने के लिए वैज्ञानिक चंद्रमा और मंगल जैसे ग्रहों तक भटक रहे हैं, यदि हम उसी प्रकृति को नहीं समझ पाए, जो हमें जल, वायु, आवास और भोजन प्रदान करती है, तो हम आधुनिकता के बावजूद भी अज्ञानी और अनपढ़ के समान हैं। वास्तव में, शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं है, बल्कि अपने परिवेश और जीवनदायिनी प्रकृति को समझना और उसके अनुसार जीवन जीना भी है। प्रकृति की उपेक्षा कर यदि हम स्वयं को शिक्षित मानते हैं, तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।

    प्राकृतिक चिकित्सा इस तथ्य पर आधारित है कि हमारे शरीर में स्वयं को ठीक करने की स्वाभाविक शक्ति होती है। यदि हम इसे सही वातावरण, शुद्ध भोजन और संतुलित जीवनशैली दें, तो यह बिना किसी बाहरी सहायता के अपने आप स्वस्थ हो सकता है। अस्वास्थ्यकर खान-पान, व्यायाम की कमी, तनाव और कृत्रिम जीवनशैली ही रोगों का मूल कारण हैं। प्राकृतिक चिकित्सा इन समस्याओं का समाधान देती है और दवाओं के बिना भी रोगों को दूर करने की क्षमता रखती है। सूर्य स्नान, जल चिकित्सा, वायु स्नान, योग, प्राणायाम और प्राकृतिक आहार से हम शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं।

    धूप और ताजी हवा का हमारे स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सूर्य की किरणें शरीर में विटामिन-डी का निर्माण करती हैं, जिससे हड्डियाँ मजबूत होती हैं और रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। प्रातःकालीन ताजी हवा लेने से फेफड़े स्वस्थ रहते हैं और मानसिक तनाव कम होता है। इसी प्रकार, जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों की सैर करने से शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है और मन को शांति मिलती है। समुद्र तट पर टहलना भी मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है, क्योंकि समुद्री हवा में मौजूद खनिज तत्व श्वसन तंत्र और त्वचा के लिए लाभदायक होते हैं।

    बच्चों को मिट्टी में खेलने देना भी एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक उपचार है। मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक बैक्टीरिया बच्चों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और उन्हें एलर्जी, अस्थमा तथा अन्य प्रतिरक्षा संबंधी समस्याओं से बचाते हैं। दुर्भाग्यवश, आधुनिक समाज में माता-पिता बच्चों को स्वच्छता के नाम पर मिट्टी से दूर रखते हैं, जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है। इसी तरह, प्राकृतिक आहार और शुद्ध जल का सेवन भी स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। फलों, सब्जियों, अंकुरित अनाज और प्राकृतिक पेय पदार्थों का सेवन करने से शरीर स्वस्थ रहता है, और शुद्ध जल पीने से शरीर के विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं, जिससे पाचन-तंत्र दुरुस्त रहता है।

    प्राकृतिक चिकित्सा केवल एक उपचार विधि नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है। आधुनिक जीवनशैली के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों से बचने के लिए हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा। भारतीय डॉक्टर भी अब दवा के साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा के लाभों पर बल दे रहे हैं। यदि हम प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करें, तो स्वस्थ, आनंदमय और संतुलित जीवन प्राप्त कर सकते हैं। सही मायनों में, प्रकृति ही हमारी सबसे बड़ी चिकित्सक है।
    नई शब्दावली  
    1. प्राकृतिक चिकित्सा – Naturopathy

    2. पद्धति – Method/System

    3. स्वास्थ्य लाभ – Health Benefits

    4. संतुलन – Balance

    5. आत्मा – Soul

    6. सान्निध्य – Proximity/Closeness

    7. भ्रमण – Excursion/Tour

    8. प्राणायाम – Breathing Exercise (Pranayama)

    9. विलीन – Merged/Dissolved

    10. विमुख – Turned away/Indifferent

    11. कृत्रिम – Artificial

    12. रोग प्रतिरोधक क्षमता – Immunity

    13. अज्ञानी – Ignorant

    14. आवास – Shelter/Habitat

    15. परिवेश – Environment/Surroundings

    16. उपेक्षा – Neglect

    17. स्वाभाविक शक्ति – Natural Healing Power

    18. संतुलित जीवनशैली – Balanced Lifestyle

    19. अस्वास्थ्यकर – Unhealthy

    20. सूर्य स्नान – Sun Bathing

    21. जल चिकित्सा – Hydrotherapy

    22. वायु स्नान – Air Bathing

    23. मानसिक तनाव – Mental Stress

    24. श्वसन तंत्र – Respiratory System

    25. प्रतिरक्षा संबंधी – Immunological

    26. विषैले तत्व – Toxins

    27. पाचन-तंत्र – Digestive System

    28. जीवन जीने की कला – Art of Living

    29. आनंदमय – Joyful/Blissful

    30. चिकित्सक – Healer/Physician

    बुधवार, 26 मार्च 2025

    🎨 रंगरेज की रंगीन दुनिया: परंपरा, प्रकृति और हुनर का संगम 🎨

    प्रंगरेज: परंपरा, प्रकृति और मन की रंगीन दुनिया
    "ऐ रंगरेज़ मेरे ऐ रंगरेज़ मेरे, ये बात बता रंगरेज़ मेरे
    ये कौन से पानी में तूने, कौन सा रंग घोला है
    कि दिल बन गया सौदाई, मेरा बसंती चोला है"
    दादाजी की कहानी
    रंगरेजों की कहानी सुनते दादा जी

    शाम का वक्त था। सूरज ढल चुका था और आसमान पर नारंगी-गुलाबी रंगों की छटा बिखर रही थी। हम दादाजी की चारपाई के पास बैठे थे, ऊपर तारों भरा आकाश और पास में मिट्टी के दीये की हल्की रोशनी टिमटिमा रही थी। रात होने को थी, और सोने से पहले की यह घड़ी कहानियों के लिए सबसे अनुकूल थी। दादाजी की आवाज़ में एक ठहराव था, जो उस शांत माहौल में और गहरा लगता था।

    उस शाम, दादाजी ने रंगरेजों की कहानी शुरू की। वे बोले, "हमारे देश में रंगरेजी का काम कोई साधारण काम नहीं था, ये तो कला, विज्ञान और प्रकृति का मेल है।" उनकी बातों से पता चला कि रंगरेज—खासकर पारगी समुदाय के कारीगर हुआ करते थे। एक सादा सफ़ेद कपड़ा उनके हाथों में पड़ते ही रंगों का चमत्कार शुरू हो जाता—कभी सुर्ख लाल, कभी शीतल हरा... आदि।

    “हमारे गांव में एक रंगरेज रहा करते थे, नाम था कानजी भाई। लोग कहते थे कि उसके हाथों में जादू है। वे इतने हुनरमंद थे कि तेरह मूल रंगों से तेरह हजार रंग बना सकते थे। सोचो, सिर्फ तेरह रंग! लाल, पीला, नीला, हरा—और फिर उनसे अनगिनत शेड्स। साफ-सुथरे सूती कपास के कपड़े को वो ऐसे रंग देता था कि रंग पक्के हो जाते, धूप-बारिश में भी नहीं छूटते। मैं छोटा था तो माँ मुझे लेकर उसके पास जाती थी। मैं कहता, ‘कानजी चाचा, मुझे आसमान जैसा नीला चाहिए,’ और वो हँसते हुए कहते, ‘बेटा, आसमान सा नीला तो कई रंग होते हैं, तुम्हें कौन सा चाहिए?’ फिर वो अपनी थैली से छोटी-छोटी शीशियाँ निकालते, रंगों को मिलाते, और देखते-देखते वही नीला तैयार!”

    दादाजी ने एक ठंडी सांस ली और आगे बोले, “ये कोई साधारण काम नहीं था। रंगरेजी एक प्राचीन कला थी, हमारे देश की शान थी। हमारे पुरखों ने इसे पीढ़ियों तक संभालाा। लोग अपने मनपसंद कपड़े लेकर आते और कुछ दिनों बाद वे कपड़े बिल्कुल नए रंग में लौटते। यह जादू सा लगता था। वह दुकान केवल रंगने की जगह नहीं थी, बल्कि भावनाओं और यादों का अड्डा हुआ करती थी। उस समय फैशन का इतना जोर नहीं था, बल्कि वस्त्रों का रंग और उनकी गुणवत्ता अधिक मायने रखती थी। रंगरेजों की यह कला तब समाज के हर वर्ग में सम्मान पाती थी कपड़े को पहले धोया जाता, फिर प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता — हल्दी से पील, नारंगी, नीम से हरा, चंदन से भूरा। हर रंग की अपनी कहानी थी। पारगी चाचा बताते थे कि उनके दादा-परदादा अंग्रेजों के जमाने में भी नवाबों के लिए कपड़े रंगते थे। उनके रंगे हुए दुपट्टे और साड़ियां दूर-दूर तक मशहूर थीं।”

    मैंने पूछा, “दादाजी, फिर आजकल ऐसा क्यों नहीं होता?” दादाजी का चेहरा थोड़ा उदास हो गया। “बेटा, वक्त बदल गया। फैशन की दुनिया ने इस कला को हाशिए पर ला दिया। पहले लोग अपने मनपसंद रंग चुनते थे, रंगरेज से रंगवाते थे। अब तो बाजार में तैयार कपड़े मिलते हैं—सस्ते, चटकीले, मशीनों से बने। रंगरेज की मेहनत, उसकी कला, सब पीछे छूट गई। पारगी चाचा का बेटा भी अब शहर में मजदूरी करता है। उसकी दुकान पर ताला लटक गया।”

    दादाजी की बातों में एक दर्द था, पर उनकी आवाज में गर्व भी था। “फिल्मों ने भी रंगरेजों को याद किया है। ‘रंग दे तू मोहे गेरुआ’ या ‘रंगरेजवा, रंग दे मोरी चुनरिया’ जैसे गीत सुनते हो न? ये सब उसी कला की याद दिलाते हैं। पर अब ये सिर्फ गीतों में बचा है। पहले हर गली में एक रंगरेज होता था, अब ढूंढने से भी नहीं मिलता।”

    “तो क्या ये कला खत्म हो जाएगी, दादाजी?” रिया ने मासूमियत से पूछा। दादाजी मुस्कुराए, “नहीं बेटी, खत्म नहीं होगी, अगर हम इसे जिंदा रखें। ये हमारी विरासत है। तुम कल्पना करो—अगर तुम अपनी पसंद का रंग चुनो, और कोई उसे कपड़े पर उतारे, वो भी हाथ से, कितना खास होगा न? आज भी कुछ लोग इस कला को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। प्राकृतिक रंगों का चलन फिर से शुरू हो रहा है। शायद भविष्य में ये दोबारा फले-फूले।”

    उस दिन दादाजी की बातें मेरे मन में रंगों की तरह बस गईं। रंगरेज सिर्फ कपड़े नहीं रंगता, वो सपनों को रंग देता है। फैशन की चकाचौंध में हमने इसे भुला दिया, पर शायद अभी वक्त है। दादाजी की आंखों की चमक और उनकी कहानी ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया—क्या हम इस कला को फिर से जगा सकते हैं? शायद हां, अगर हम चाहें।

    लेकिन फिर समय बदल गया। शाम की ठंडी हवा की तरह आधुनिकता की तेज़ लहरें आईं और इस कला को पीछे धकेल दिया। मशीनों ने हाथ की कारीगरी को मात दी, और सिंथेटिक रंगों ने प्राकृतिक रंगों को दबा दिया। हमारे मोहल्ले का वह रंगरेज, जिसकी दुकान कभी शाम को लोगों की चहल-पहल से गूँजती थी, अब खामोश-सा रहने लगा।

    उस शाम, जब कहानी खत्म हुई, तो चाँद आसमान में चमक रहा था। दादाजी की बातें मन में गूँज रही थीं। आज जब पर्यावरण की चिंता बढ़ रही है और टिकाऊ फैशन की बात हो रही है, तो लगता है कि शायद ये रंगरेजी फिर से अपनी जगह बना सकते हैं। उनकी यह कहानी सिर्फ रंगों की नहीं थी, बल्कि एक पूरे युग, एक विरासत और एक जीवनशैली की थी।

    संरक्षण के प्रयास: समस्या और समाधान

    हर साल विभिन्न मंचों पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर सम्मेलन होते हैं, लेकिन इनका प्रभाव सीमित ही नजर आता है।

    "स्वदेशी पहने, उधोग बचाएँ।"

    सोमवार, 24 मार्च 2025

    ❇️ गन्ने की मिठास और भारत की पहली महिला वनस्पति वैज्ञानिक

    🌿 जितने मीठे गन्ने का आप स्वाद ले रहे हैं, हमारे भारतीय गन्ने पहले ऐसे न थे! 🍬

    भारत की पहली महिला वनस्पति वैज्ञानिक
    कल्पना कीजिए कि आप एक मीठी चाय की चुस्की ले रहे हैं या गुड़ से बनी कोई स्वादिष्ट मिठाई खा रहे हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि भारतीय गन्ना इतना मीठा क्यों है? क्या यह हमेशा से ऐसा था? नहीं! यह संभव हुआ एक ऐसी महिला वैज्ञानिक की मेहनत से, जो पौधों की भाषा समझती थीं और जिन्होंने भारत की चीनी को ज्यादा मीठा बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    यह कहानी है डॉ. ई.के. जानकी अम्मल की, जो भारत की पहली महिला वनस्पति वैज्ञानिक थीं। उन्होंने यह साबित कर दिया कि विज्ञान सिर्फ प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं होता, बल्कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को भी बदल सकता है। डॉ. जानकी अम्मल का जन्म 4 नवंबर 1897 को केरल के थलास्सेरी में हुआ था। उनके पिता शिक्षा प्रेमी थे और यही कारण था कि बचपन से ही जानकी अम्मल में पढ़ाई के प्रति विशेष रुचि थी। उन्होंने चेन्नई के क्वीन मेरी कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास से वनस्पति विज्ञान की पढ़ाई की। उनकी लगन और मेहनत ने उन्हें अमेरिका के पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय तक पहुँचा दिया, जहाँ उन्होंने 1931 में डॉक्टरेट (Ph.D.) की उपाधि प्राप्त की।

    ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय किसान विदेशी गन्ने की प्रजातियों पर निर्भर थे, क्योंकि उनमें अधिक मिठास थी। इससे भारतीय कृषि कमजोर हो रही थी। लेकिन जानकी अम्मल ने ‘सैक्रम बर्बेरी’ नामक भारतीय गन्ने की प्रजाति पर शोध किया और इसे अधिक मीठा बनाने में सफलता प्राप्त की। उनकी इस खोज ने भारत को चीनी उत्पादन में आत्मनिर्भर बना दिया और आज हम जिस मीठे गन्ने से गुड़, खांड, और चीनी बनाते हैं, उसमें कहीं न कहीं डॉ. जानकी अम्मल की मेहनत शामिल है।

    गन्ने के अलावा उन्होंने नींबू, बैंगन, काली मिर्च और चावल जैसी फसलों की आनुवंशिक संरचना पर भी अध्ययन किया। वे रॉयल हॉर्टिकल्चर सोसाइटी, लंदन में काम करने वाली पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक बनीं। लेकिन विदेश में सम्मान और उच्च पद मिलने के बावजूद, वे अपने देश की सेवा करना चाहती थीं। 1951 में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विशेष आमंत्रण पर वे भारत लौट आईं और भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद (CSIR) से जुड़कर वनस्पति विज्ञान को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

    डॉ. जानकी अम्मल न केवल कृषि वैज्ञानिक थीं, बल्कि वे पर्यावरण संरक्षण की अग्रदूत भी थीं। उन्होंने जब देखा कि केरल में जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, तो उन्होंने इसके खिलाफ आवाज उठाई। वे मानती थीं कि विज्ञान का उद्देश्य केवल नई खोज करना नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव जीवन के बीच संतुलन बनाए रखना भी है। उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए भारत सरकार ने 1957 में ‘पद्मश्री’ सम्मान प्रदान किया। उनके सम्मान में ‘जानकी अम्मल नेशनल अवार्ड’ भी स्थापित किया गया, जो पर्यावरण और जैवविविधता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले वैज्ञानिकों को दिया जाता है।

    डॉ. जानकी अम्मल का जीवन हमें यह सिखाता है कि कड़ी मेहनत और जिज्ञासा से कोई भी ऊँचाई हासिल की जा सकती है। आज जब विज्ञान और पर्यावरण संरक्षण की चर्चा होती है, तब उनका नाम प्रेरणा के रूप में उभरता है। अगर आप भी विज्ञान में रुचि रखते हैं और प्रकृति के रहस्यों को समझना चाहते हैं, तो जानकी अम्मल की तरह नई चीजों की खोज करने और अपने देश के लिए कुछ बड़ा करने का सपना देख सकते हैं!

    🗳️"पहला मतदान – लोकतंत्र की जीत" (कहानी)

    अजय, जो इस साल 18 वर्ष का हुआ था, पहली बार मतदाता बना था। वह अपने पिता के साथ खेत में काम कर रहा था, तभी गाँव के चुनाव अधिकारी का संदेश आया – "सभी मतदाता अपने मतदान केंद्र पर पहुँचें और अपने मतपत्र या ईवीएम के माध्यम से मतदान करें। यह आपका अधिकार भी है और कर्तव्य भी।"
    गाँव राजपुर में चुनावी माहौल था। चारों ओर चुनावी प्रचार की गूँज सुनाई दे रही थी। हर गली में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता लोगों को अपने प्रत्याशी के समर्थन में वोट देने की अपील कर रहे थे। गाँव के चौराहे पर बड़े-बड़े घोषणापत्र लगे थे, जिनमें हर दल अपनी योजनाओं का बखान कर रहा था।
    अजय के मन में उत्सुकता जागी। उसने अपने पिता से पूछा, "पिताजी, मतदान क्यों ज़रूरी है?"

    पिता मुस्कराए और बोले, "लोकतंत्र की असली ताकत जनता में होती है। जब हम सही प्रत्याशी को चुनते हैं, तो हम अपनी सरकार स्वयं बनाते हैं। यही हमारी सरकारी पार्टी होती है। यदि हमें उनकी नीतियाँ पसंद नहीं आतीं, तो अगली बार हम विपक्षी दल को मौका दे सकते हैं।"

    अजय को यह सब बहुत रोचक लगा। अगले दिन वह अपने दोस्तों के साथ गाँव के मतदान केंद्र पहुँचा। वहाँ पर लंबी कतार लगी थी। निर्वाचन आयोग की व्यवस्था चाक-चौबंद थी। चुनाव अधिकारी सबको समझा रहे थे कि गुप्त मतदान के तहत वोट डालें और किसी को न बताएं कि उन्होंने किसे वोट दिया।

    जब अजय का नंबर आया, तो उसने उत्सुकता से ईवीएम पर अपनी पसंद के प्रत्याशी के सामने का बटन दबाया। मशीन ने ‘बीप’ की आवाज़ की, और उसके अंगूठे पर स्याही लगा दी गई। उसने गर्व से अपनी उंगली देखी और दोस्तों से कहा, "मैंने लोकतंत्र को मजबूत किया!"

    चुनाव के बाद गणना शुरू हुई। पूरे गाँव में चर्चा थी कि कौन जीतेगा। शाम को चुनाव परिणाम घोषित हुए – अजय के चुने हुए प्रत्याशी ने बहुमत प्राप्त कर लिया और नई सरकार बनी। गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई।

    अजय को अब समझ में आ गया था कि एक छोटे से वोट की कितनी बड़ी ताकत होती है। उसने अपने दोस्तों से कहा, "हर नागरिक को मतदान अवश्य करना चाहिए। यह सिर्फ एक अधिकार नहीं, बल्कि हमारी जिम्मेदारी भी है।"

    गाँव में यह पहली बार था कि युवाओं ने इतने जोश से चुनाव में भाग लिया था। जनता में जागरूकता बढ़ी, और अगले चुनावों में और अधिक मतदाता आने लगे।

    नारा"लोकतंत्र बचाना है, वोट डालने जाना है!"

    सीखयह कहानी बताती है कि चुनाव, मतदान और लोकतंत्र हमारी ज़िंदगी में कितने महत्वपूर्ण हैं। हर वोट मायने रखता है, और हम सभी को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए। 

    नई शब्दावली नई शब्दावली
    • चुनावी प्रचार – Election Campaign
    • राजनीतिक दल – Political Party
    • प्रत्याशी – Candidate
    • घोषणापत्र – Manifesto
    • मतदाता – Voter
    • मतदान – Voting
    • मताधिकार – Right to Vote / Suffrage
    • मतदान अधिकारी – Polling Officer
    • मतदान पर्यवेक्षक – Polling Observer
    • चुनाव अधिकारी – Election Officer
    • मतदान केंद्र – Polling Booth
    • मतपत्र – Ballot Paper
    • ईवीएम – Electronic Voting Machine (EVM)
    • अधिकार – Right
    • कर्तव्य – Duty
    • लोकतंत्र – Democracy
    • सरकारी पार्टी – Ruling Party
    • विपक्षी दल – Opposition Party
    • निर्वाचन आयोग – Election Commission
    • गुप्त मतदान – Secret Ballot
    • स्याही – Ink (Indelible Ink used in voting)
    • गणना – Counting (Vote Counting)
    • चुनाव परिणाम – Election Results
    • बहुमत प्राप्त – Majority Win
    • सरकार बनी – Government Formation
    • जनता – Public / Citizen

    रविवार, 23 मार्च 2025

    🌙 चाँद के पार चलो: चन्द्रमा तक की एक काल्पनिक यात्रा🌍

    आधुनिक शिक्षा प्रणाली और 64 कलाएँ: सर्वांगीण विकास की आवश्यकताा

    एक सुनहरी सुबह, जब सूरज की किरणें धरती पर बिखर रही थीं, भारत के एक छोटे से शहर के स्कूल में हलचल मची थी। इसरो (ISRO - Indian Space Research Organisation) ने एक खास मिशन की घोषणा की थी - "चंद्रयान-प्रेरणा"। इस मिशन में पाँच उत्साही छात्रों - रिया, आरव, सौम्या, सिद्धांत और मान्या - को चन्द्रमा की सैर पर ले जाया जाना था। ये बच्चे भूगोल और अंतरिक्ष विज्ञान के प्रति अपनी जिज्ञासा के लिए चुने गए थे। उनकी आँखों में सपने थे और मन में सवालों का अथाह समंदर। अंतरिक्ष यान तैयार था। इसरो के वैज्ञानिक डॉ. अनिल और डॉ. स्मिता बच्चों को समझा रहे थे, "ये यान चन्द्रमा तक 3,84,400 किलोमीटर की यात्रा करेगा। इसमें हमें तीन दिन लगेंगे।" आरव ने तुरंत पूछा, "लेकिन गुरुत्वाकर्षण हमें नीचे क्यों नहीं खींचेगा?" डॉ. स्मिता मुस्कुराईं और बोलीं, "अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण बहुत कम होता है। हमारा यान रॉकेट की श क्ति से पृथ्वी के गुरुत्व को पार कर लेगा।" बच्चों की आँखें चमक उठीं।

    तीन दिन बाद, जब यान चन्द्रमा की सतह पर उतरा, बच्चों ने बाहर झाँका। चारों ओर धूसर मिट्टी, गहरे गड्ढे और ऊबड़-खाबड़ पहाड़ दिखे। रिया ने उत्साह से कहा, "ये तो चंदा मामा की कहानियों से बिल्कुल अलग है!" डॉ. अनिल हँसे, "हाँ, चंदा मामा एक कविता है, पर असल चन्द्रमा एक उपग्रह है जो पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है। यहाँ न पानी है, न हवा, और न ही जीवन।" बच्चों ने अपने अंतरिक्ष सूट पहने और चन्द्रमा की सतह पर कदम रखा। कम गुरुत्वाकर्षण के कारण वे उछल-उछल कर चल रहे थे। सौम्या ने पूछा, "ये गड्ढे कैसे बने?" डॉ. स्मिता ने बताया, "ये उल्कापिंडों के टकराने से बने हैं। चन्द्रमा पर वायुमंडल नहीं है, इसलिए उल्काएँ सीधे सतह से टकराती हैं।" सिद्धांत ने दूरबीन उठाई और बोला, "वहाँ देखो! क्या वो धरती है?" दूर नीला-हरा गोला चमक रहा था। डॉ. अनिल ने कहा, "हाँ, ये हमारा घर है। पृथ्वी का 71% हिस्सा पानी से ढका है, इसलिए ये नीली दिखती है।"

    बच्चों ने आसपास देखा। मान्या ने चिल्लाकर कहा, "वो देखो! वह लाल गोला क्या है?" डॉ. स्मिता ने समझाया, "अरे! वह तो मंगल ग्रह है। इसका लाल रंग वहाँ की मिट्टी में मौजूद आयरन ऑक्साइड की वजह से है।" आरव ने जोड़ा, "और वहाँ जो चमक रहा है, क्या वो बृहस्पति है?" डॉ. अनिल ने हामी भरी, "बिल्कुल! बृहस्पति सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है, जो गैस से बना है।"चन्द्रमा पर चलते हुए बच्चे धरती को निहारते रहे। रिया ने कहा, "हमारी धरती कितनी सुंदर है! यहाँ से देखो तो लगता है, इसे बचाना कितना ज़रूरी है।" डॉ. स्मिता ने गंभीरता से कहा, "सही कहा। चन्द्रमा पर नदियाँ, जंगल या हवा नहीं है। हमारी धरती का हर पेड़, हर बूँद अनमोल है।"

    वापसी की तैयारी करते हुए सिद्धांत ने पूछा, "क्या हम कभी चन्द्रमा पर घर बना सकते हैं?" डॉ. अनिल ने जवाब दिया, "शायद हाँ। लेकिन इसके लिए हमें ऑक्सीजन, पानी और ऊर्जा की व्यवस्था करनी होगी। विज्ञान इसे संभव बना सकता है।" जब यान वापस पृथ्वी की ओर बढ़ा, बच्चों के मन में चंदा मामा की कविताएँ नहीं, बल्कि चन्द्रमा का असल चेहरा बस गया था। उन्हें समझ आ गया था कि भूगोल और विज्ञान हमें ब्रह्मांड के रहस्य खोलने की चाबी देते हैं। धरती पर लौटते ही सौम्या ने कहा, "अब मैं वैज्ञानिक बनूँगी और अंतरिक्ष के और राज़ जानूँगी!" बाकी बच्चे भी मुस्कुराए, क्योंकि उनकी जिज्ञासा अब सपनों को पंख दे चुकी थी।

    शनिवार, 22 मार्च 2025

    झजरिया: संस्कृति की सुगंध और परंपरा की मिठास भरी कहानी

    झजरिया: संस्कृति की सुगंध और परंपरा की मिठास भरी कहानी

    दादी सुनाती, झजरिया की कहानी  

    गर्मियों की छुट्टियाँ थीं। सूरज ढल चुका था और आंगन में ठंडी हवा बह रही थी। दादी अपनी आराम कुर्सी पर बैठी थीं, और उनके चारों ओर बच्चे गोल घेरा बनाए बैठे थे। चाँदनी रात में तारे टिमटिमा रहे थे, और दूर कहीं से मेंढकों की टर्र-टर्र सुनाई दे रही थी।

    दादी ने मुस्कुराते हुए कहा, "बच्चों, आज मैं तुम्हें एक अनोखी मिठाई की कहानी सुनाऊंगी। यह सिर्फ मिठाई नहीं, बल्कि हमारी परंपरा और प्यार का स्वाद है। इसे कहते हैं - झजरिया! झजरिया हमारे राजस्थान और मध्य प्रदेश की एक पारंपरिक मिठाई है, जो खासतौर पर तीज जैसे त्योहारों पर बनाई जाती है। तीज का त्योहार बारिश के मौसम के आगमन का प्रतीक है, और ऐसे समय में झजरिया बनाना हमारी परंपरा का हिस्सा है। यह मिठाई न केवल स्वादिष्ट है, बल्कि हमारे कृषि विरासत का भी प्रतीक है, क्योंकि इसमें ताज़ा मकई का इस्तेमाल किया जाता है, जो हमारे खेतों की उपज है।"

    बच्चों की आँखों में जिज्ञासा चमक उठी। "दादी, यह झजरिया क्या होता है?" छोटे राहुल ने पूछा।

    दादी ने हँसते हुए कहा, "बहुत साल पहले, जब मैं छोटी थी, हमारे खेतों में मकई के भुट्टे खूब होते थे। बारिश की पहली फुहार के साथ खेतों में हरियाली छा जाती थी। तब तुम्हारी परनानी ताज़े भुट्टों से झजरिया बनाया करती थीं। वे भुट्टों को कद्दूकस करके देसी घी में धीरे-धीरे भूनतीं। घी में भुट्टे के कण धीरे-धीरे सुनहरे होते जाते थे, और उनकी महक पूरे घर में फैल जाती थी। फिर दूध डालकर उसे गाढ़ा होने तक पकाया जाता था, और अंत में गुड़ या शक्कर मिलाकर इलायची और मेवों से सजाया जाता था।"

    "फिर इसे बनाया कैसे जाता था, दादी?" सबसे बड़ी पोती, नीला ने उत्सुकता से पूछा।

    दादी ने ठहरकर कहा, "अच्छा, तो ध्यान से सुनो... सबसे पहले ताज़े भुट्टों को कद्दूकस किया जाता था। फिर एक कढ़ाई में देसी घी गरम कर उसमें कद्दूकस किया हुआ भुट्टा डाला जाता था और मध्यम आँच पर भूना जाता था। जब भुट्टा हल्का सुनहरा हो जाता, तो उसमें दूध डालकर धीमी आँच पर पकाया जाता था। जब दूध गाढ़ा हो जाता, तो उसमें गुड़ या शक्कर मिलाई जाती थी। ऊपर से इलायची पाउडर और कटे हुए मेवे डालकर इसे और स्वादिष्ट बनाया जाता था। जब झझरिया हलवे जैसा गाढ़ा हो जाता, तब इसे गरमा-गरम परोसा जाता था।"

    बच्चों के मुँह में पानी आ गया। "वाह दादी! इसका स्वाद तो बहुत मज़ेदार होगा! लेकिन इसे कब बनाया जाता था?" मीनू ने पूछा।

    दादी बोलीं, "हम इसे खास मौकों पर बनाते थे। बारिश के मौसम में, तीज-त्योहारों पर, और जब घर में कोई अच्छा काम होता था, तब झजरिया बनाया जाता था। यह बहुत सेहतमंद भी होता था, इसलिए बड़े-बुजुर्ग भी इसे बहुत पसंद करते थे।"

    बच्चों ने चहकते हुए कहा, "दादी, अब हमें झजरिया कहाँ मिलेगा? हम भी खाना चाहते हैं!"

    दादी ने हँसते हुए कहा, "अब तो यह मिठाई बहुत कम देखने को मिलती है। लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ पारंपरिक भोजनालयों में इसे बनाया जाता है। गाँव के मेलों में भी इसे बेचा जाता है। मगर क्यों न हम इसे खुद बनाएं? इससे हम न केवल इस मिठाई का स्वाद चखेंगे, बल्कि हमारी परंपरा को भी जिंदा रखेंगे।"

    बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहा। "हाँ! चलो झजरिया बनाते हैं!" वे सब खुशी से चिल्लाए।

    दादी मुस्कुराईं और बोलीं, "बच्चों, झजरिया सिर्फ एक मिठाई नहीं, यह हमारे परिवार की परंपरा, हमारे प्यार और सादगी की मिठास है। यह हमें सिखाती है कि हर छोटी चीज़ में भी आनंद छुपा होता है। अब जब तुम बड़े हो जाओगे, तो इसे अपने बच्चों को भी सिखाना।"

    बच्चों ने खुशी-खुशी सिर हिलाया। "ज़रूर, दादी! अब हम भी झजरिया बनाएंगे और अपने दोस्तों को भी खिलाएंगे!"

    चाँदनी रात में दादी की मीठी कहानी और झजरिया की मिठास ने बच्चों के दिलों में एक खास जगह बना ली। उन्होंने समझा कि झजरिया सिर्फ एक मिठाई नहीं, बल्कि उनकी परंपरा, प्यार और सादगी की मिठास है। यह उन्हें सिखाती है कि हर छोटी चीज़ में भी आनंद छुपा होता है, और यह आनंद पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

    💬 हमें कमेंट में जरूर  बताइए, 'झजरिया मिठाई' आपने कब खाई है? आपकी यादें हमारे साथ साझा करें! 😊👇

    बुधवार, 19 मार्च 2025

    📢आधुनिक शिक्षा प्रणाली और 64 कलाएँ: सर्वांगीण विकास की आवश्यकता

    आधुनिक शिक्षा प्रणाली और 64 कलाएँ: सर्वांगीण विकास की आवश्यकताा

    साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः। 
    शिक्षा का उद्देश्य केवल आजीविका अर्जन नहीं, बल्कि चरित्र, संवेदनशीलता, सृजनात्मकता और संपूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार करना है। प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में 64 कलाओं का अध्ययन आवश्यक माना जाता था, जिनमें संगीत, नृत्य, चित्रकला, वास्तुकला, संवाद कला, युद्धकला, योग और अन्य विविध विधाएँ सम्मिलित थीं। इन कलाओं के अभ्यास से विद्यार्थियों का मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक और आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित होता था। परंतु वर्तमान शिक्षा प्रणाली मुख्यतः गणित, विज्ञान और तकनीकी विषयों पर केंद्रित हो गई है, जिससे ललित कलाओं की उपेक्षा होने लगी है। इस स्थिति में यह विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या आधुनिक शिक्षा प्रणाली छात्रों का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित कर पा रही है?

    भारतीय मनीषियों और प्राचीन ग्रंथों में शिक्षा को केवल सूचनाओं के संचय तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे जीवन जीने की कला के रूप में परिभाषित किया गया। महर्षि भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में उल्लिखित है— "संगीत, नृत्य और नाट्य के माध्यम से व्यक्ति आत्मिक आनंद की प्राप्ति करता है और समाज में सामंजस्य स्थापित होता है।" महाभारत में अर्जुन केवल युद्धकला में ही नहीं, अपितु संगीत एवं नृत्य में भी निपुण थे। आचार्य चाणक्य ने कहा था— "शस्त्र और शास्त्र दोनों का सम्यक् ज्ञान ही व्यक्ति को वास्तविक रूप से शिक्षित बनाता है।" उनके अनुसार, संगीत, कला और साहित्य व्यक्ति को संयम, धैर्य और दूरदर्शिता सिखाते हैं, जिससे वह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संतुलन बनाए रखता है।

    रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी शिक्षा प्रणाली में कला और संगीत को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया। उनका कथन था -  "बिना कला के शिक्षा, आत्मा विहीन शरीर के समान है।" आज की शिक्षा प्रणाली मुख्य रूप से प्रतिस्पर्धा, अंक आधारित मूल्यांकन और कैरियर केंद्रित हो गई है। अधिकांश अभिभावक एवं समाज गणित, विज्ञान और कंप्यूटर विज्ञान जैसे विषयों को अधिक महत्त्व देते हैं, जबकि कला, संगीत और खेल को गौण समझा जाता है।

    आधुनिक शिक्षा प्रणाली मुख्यतः STEM (Science, Technology, Engineering, Mathematics) आधारित हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप कलात्मक और मानवीय विषयों की उपेक्षा हो रही है। इससे सृजनात्मकता (Creativity) में ह्रास आ रहा है। अधिकांश माता-पिता का यह मानना है कि संगीत, चित्रकला और नृत्य जैसे विषयों से व्यावसायिक सफलता प्राप्त करना कठिन है, अतः वे बच्चों को इनसे दूर रखते हैं। कला को मात्र "शौक" के रूप में देखा जाता है, जबकि विज्ञान और गणित को "आवश्यकता" माना जाता है। विद्यालयों में संगीत एवं ललित कलाओं को वैकल्पिक विषयों के रूप में रखा जाता है, जिससे उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाता। परीक्षा प्रणाली में भी सृजनात्मकता और मौलिक सोच को अपेक्षाकृत कम महत्त्व दिया जाता है।

    महान वैज्ञानिक लियोनार्डो दा विंची ने कहा था— "कला और विज्ञान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।" स्टीव जॉब्स (Apple के संस्थापक) का भी मानना था कि डिज़ाइन और तकनीक के समन्वय से ही उत्कृष्ट उत्पाद निर्मित किए जा सकते हैं। एलन मस्क ने अपनी कंपनियों (Tesla, SpaceX) में कला और नवाचार को विज्ञान के साथ एकीकृत किया।

    नई शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) में कला, संगीत एवं व्यावसायिक कौशल को शिक्षा प्रणाली में अनिवार्य करने की अनुशंसा की गई है। विद्यालयों में संगीत, नृत्य और चित्रकला को एक मुख्य विषय के रूप में सम्मिलित किया जाना चाहिए। कला मात्र मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सृजनात्मकता और मानसिक विकास का एक अनिवार्य अंग है। विद्यार्थियों को कला और विज्ञान दोनों का संतुलित अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

    डिजिटल युग में ग्राफिक डिज़ाइन, एनीमेशन, फिल्म निर्माण, गेम डिज़ाइन जैसे क्षेत्र कला और तकनीक के संगम का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। शिक्षा प्रणाली में STEAM (Science, Technology, Engineering, Arts, Mathematics) को समाहित किया जाए, जिससे विद्यार्थी केवल गणित और विज्ञान तक सीमित न रहें, बल्कि उनका सर्वांगीण विकास हो। जब तक संगीत, कला, नृत्य एवं अन्य कलाओं को शिक्षा प्रणाली में उचित स्थान नहीं मिलेगा, तब तक सर्वांगीण विकास की संकल्पना अधूरी ही बनी रहेगी। यदि आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्राचीन भारतीय शिक्षा के 64 कलाओं के तत्वों का पुनः समावेश किया जाए, तो एक संतुलित, संवेदनशील और रचनात्मक समाज की आधारशिला रखी जा सकती है।

    जैसा कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था: "कला के बिना विज्ञान अधूरा है, क्योंकि कल्पना ही ज्ञान की जननी होती है।" अतः यह समय की माँग है कि कला और विज्ञान को समन्वित रूप में अपनाया जाए, जिससे विद्यार्थियों का बहुआयामी विकास संभव हो सके।

    मंगलवार, 18 मार्च 2025

    ✨ चाँदी के लखनवी जूते: एक विलुप्त होती शाही परंपरा

    बजट: देश का आर्थिक पहिया

    जूतियाँ बनाता कारीगर 
    सिंड्रेला की कहानी तो आपको याद ही होगी? उस कहानी में एक विशेष जूती उसकी पहचान और भाग्य बदलने का माध्यम बनी थी। पश्चिमी दुनिया में सबसे अच्छी जूती काँच की थी, लेकिन अगर यह कथा भारतीय पृष्ठभूमि पर होती, तो वह जूती शायद चाँदी की होती - 'कलात्मक नक्काशी से सजी, लखनऊ के कुशल कारीगरों के हाथों गढ़ी हुई।' लखनऊ, जो अपनी नफासत, तहज़ीब और दस्तकारी के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ सदियों से 
    चाँदी के जूते बनाए जाते रहे हैं। यह परंपरा अब विलुप्ति की कगार पर है, लेकिन कुछ समर्पित शिल्पकार इसे अब भी जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।


    लखनऊ की शाही दस्तकारी: चाँदी के जूतों का इतिहास

    सिंड्रेला की कहानी में जूती केवल एक वस्त्र नहीं, बल्कि पहचान, सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक थी। पश्चिमी लोककथाओं में यह जूती काँच की थी, लेकिन अगर यह कथा भारतीय संदर्भ में देखी जाए, तो लखनऊ का चाँदी के जूते बनाने का पारंपरिक शिल्प इससे जुड़ता हुआ प्रतीत होता है। लखनऊ, जो अपनी नजाकत, तहज़ीब और बेजोड़ कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है, वहां सदियों से नगीने जड़े, हाथ से बनाए गए चाँदी के जूते एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा रहे हैं।

    हाफिज मोहम्मद अशफाक और आफिया: एक अनमोल विरासत के संरक्षक

    आज इस कला के बहुत कम कारीगर बचे हैं, लेकिन लखनऊ के हाफ़िज मोहम्मद अशफाक और उनकी बेटी आफिया इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। अशफाक साहब दशकों से चाँदी की जूतियाँ बना रहे हैं, और अब उनकी बेटी आफिया भी इस हुनर को सीख रही हैं। उनका मानना है कि यह सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर है, जिसे बचाना आवश्यक है। चाँदी के जूते बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल होती है। पहले चाँदी को पिघलाकर उसकी पतली चादर बनाई जाती है, फिर उस पर हाथ से बारीक नक्काशी की जाती है। इस प्रक्रिया में कई दिन लगते हैं, और हर जोड़ी जूती एक अनोखी कृति होती है।

    आधुनिकता के प्रभाव और कला का संघर्ष

    फैशन के दौर में आज चाँदी के जूतों की माँग पहले जैसी नहीं रही। चमड़े, प्लास्टिक और मशीन से बने जूतों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है। पहले जहाँ नवाबों, राजाओं और धनिकों के लिए ये जूतियाँ बनाई जाती थीं, अब इनकी माँग केवल विशेष डिजाइनरों या संग्राहकों तक सीमित रह गई है। इसके अलावा, सस्ते विकल्पों और मशीन निर्मित उत्पादों के कारण यह हस्तकला विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई है। हालांकि, कुछ संगठनों और फैशन डिजाइनरों ने इस कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। अगर इसे वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया जाए, तो यह न केवल भारत की हस्तकला को पहचान दिला सकता है, बल्कि उन कारीगरों को भी नई संभावनाएँ दे सकता है जो इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोते आए हैं।

    निष्कर्ष

    लखनऊ की चाँदी की जूतियाँ केवल एक फैशन स्टेटस नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। यह शिल्प नवाबी दौर से जुड़ा हुआ है और लखनऊ की विशिष्टता को दर्शाता है। हफीज मोहम्मद अशफाक और आफिया जैसे कारीगर अपने हुनर और समर्पण से इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन बाजार की प्रतिस्पर्धा और बदलते फैशन के कारण यह कला संकट में है। यदि इस अनूठी कला को उचित संरक्षण और प्रोत्साहन मिले, तो यह केवल लखनऊ ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भारत की सांस्कृतिक पहचान को नया आयाम दे सकती है। जैसा कि सिंड्रेला की जूती ने उसकी तकदीर बदली, वैसे ही लखनऊ के चाँदी के जूते इस परंपरा को पुनर्जीवित करने का अवसर प्रदान कर सकते हैं।

    शुक्रवार, 14 मार्च 2025

    गंगा-जमुनी तहज़ीब: एकता के अनमोल रंग

    गंगा-जमुनी तहज़ीब: एकता के अनमोल रंग

    देवा शरीफ़ मस्जिद, बाराबंकी में होली के दीवानों ने दी एकता की मिशाल  
    भारत की मिट्टी में गंगा और यमुना की धाराओं की तरह दो संस्कृतियाँ सदियों से साथ बहती आई हैं - हिंदू और मुस्लिम। इन दोनों का संगम ही इस देश की आत्मा को संजीवनी देता है। भारत केवल एक भूखंड नहीं, बल्कि एक ऐसी साझा विरासत का प्रतीक है जहाँ मंदिरों की घंटियाँ और मस्जिदों की अज़ानें एक साथ गूँजती हैं, जहाँ दीयों की रोशनी ईद की चाँदनी से मिलकर समूचे वातावरण को नूरानी बना देती है।

    "मस्जिद ढाए, मंदिर ढाए, ढाए जो कछु दास,
      पर कभी न छोड़िए, तोड़े जो भाव विश्वास।"
                                                                 — कबीर

    किन्तु यह भी सत्य है कि हाल के वर्षों में इन आपसी रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाने की कोशिशें की गई हैं। कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर राजनीति होती है, तो कभी त्योहारों के दौरान संदेह और शंकाओं के बादल घिरने लगते हैं। परंतु जो लोग इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीते आए हैं, उनके लिए धर्म की सीमाएँ उतनी ही बेमानी हैं जितनी नदियों के लिए उनके तटों की दीवारें। बचपन में होली पर जब मोहल्ले के हर बच्चे के चेहरे पर रंग लगा होता था, तब कोई यह नहीं पूछता था कि यह हाथ किस धर्म के हैं। नमाज से पहले रंग खेलकर मियांइन टोला के बच्चे भी अपने हिंदू दोस्तों के साथ उसी मस्ती में डूबे रहते थे।

    "खेलें हम होली ग़ैरों के संग, 
    जैसे खेलें अपने के संग।"
                                               — अमीर खुसरो

    उधर दिवाली की रात जब घर-घर दिए जलते थे, तो कई मुस्लिम परिवार अपने हिंदू मित्रों के साथ मिठाइयाँ बाँटते और उनके घरों में जाकर दीयों की रोशनी में शामिल होते।

    मेरे पतिराम दादा अक्सर हमें कहानी सुनाया करते थे कि कैसे 1947 के दंगों के दौरान हमारे गाँव के हाफ़िज़ साहब ने मंदिर में छिपे हिंदू परिवारों को अपने घर ले जाकर शरण दी थी। बदले में कुछ वर्षों बाद जब उनके बेटे का निकाह था, तो पूरे गाँव ने मिलकर बारात का स्वागत किया, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम। इस भाईचारे की भावना को कोई राजनीतिक साजिश खत्म नहीं कर सकती।

    भारत का इतिहास गवाह है कि यहाँ ताजमहल जितना ही महत्वपूर्ण खजुराहो के मंदिर भी हैं। कबीर की दोहों में जितना हिंदू दर्शन समाया है, उतना ही इस्लामी सूफ़ीवाद भी।

    "मोको कहां ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास रे,
    ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास रे।"
    — कबीर

    अमीर खुसरो ने हिंदवी में ऐसे गीत रचे जो आज भी दोनों समुदायों में समान रूप से गाए जाते हैं।

    "छाप तिलक सब छीन ली, मोसे नैना मिलाइके।"
    — अमीर खुसरो

    अगर हम बॉलीवुड की बात करें, तो मोहम्मद रफ़ी के गाए भजन और लता मंगेशकर के गाए नात दोनों ही दिल को छू लेते हैं। राही मासूम रज़ा ने 'महाभारत' की पटकथा लिखी, तो प्रेमचंद ने 'ईदगाह' के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता को जीवंत किया। यह बताता है कि हमारी साझा संस्कृति किसी एक मज़हब की जागीर नहीं, बल्कि सभी की धरोहर है।

    हमारी गलियों में अब भी चाय की दुकानों पर हिंदू और मुस्लिम बुज़ुर्ग एक साथ बैठकर गप्पें लड़ाते हैं। अब भी शादी-ब्याह के मौकों पर दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आते हैं। आज भी जब कोई मुसीबत आती है, तो सबसे पहले पड़ोसी ही काम आता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो।

    पर सवाल यह उठता है कि क्या हम अपनी इस साझी विरासत को बचा पाएँगे? क्या हम अपने बच्चों को यह सिखा पाएँगे कि उनका धर्म इंसानियत से ऊपर नहीं? यदि हमें अपनी संस्कृति को संजोना है, तो हमें उन ताकतों को पहचानना होगा जो हमें बाँटने की कोशिश कर रही हैं।

    "मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना,
    हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा।"
                                                      — इक़बाल

    हमें यह स्वीकार करना होगा कि नफरत की राजनीति किसी एक धर्म को नहीं, बल्कि पूरे समाज को नुकसान पहुँचाती है। भारत की असली पहचान इसकी विविधता में छिपी है। यह वह देश है जहाँ कृष्ण की बांसुरी की धुन और बुल्ले शाह के कलाम एक साथ सुने जाते हैं। जहाँ गुरु नानक की वाणी और रहीम के दोहे एक ही धरती से उपजे हैं।

    "रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय,
         टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए।"
                                                              — रहीम

    यह वह देश है जहाँ किसी अनाथ बच्चे को पनाह देने के लिए यह नहीं देखा जाता कि वह किस धर्म का है। अगर हमें अपने देश को सही मायनों में आगे बढ़ाना है, तो हमें अपनी जड़ों से जुड़ना होगा। हमें फिर से उसी बचपन की मासूमियत को अपनाना होगा, जहाँ दोस्ती धर्म से बड़ी थी और मोहब्बत मज़हब से ऊपर। तभी हम इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को हमेशा जीवित रख पाएँगे।

    "सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा,
    हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलिस्तां हमारा।"
                                                                     — इक़बाल
    आप सभी को इंडीकोच की और से होली की हार्दिक शुभ कामना 💐 

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