
जूतियाँ बनाता कारीगर
सिंड्रेला की कहानी तो आपको याद ही होगी? उस कहानी में एक विशेष जूती उसकी पहचान और भाग्य बदलने का माध्यम बनी थी। पश्चिमी दुनिया में सबसे अच्छी जूती काँच की थी, लेकिन अगर यह कथा भारतीय पृष्ठभूमि पर होती, तो वह जूती शायद चाँदी की होती - 'कलात्मक नक्काशी से सजी, लखनऊ के कुशल कारीगरों के हाथों गढ़ी हुई।' लखनऊ, जो अपनी नफासत, तहज़ीब और दस्तकारी के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ सदियों से चाँदी के जूते बनाए जाते रहे हैं। यह परंपरा अब विलुप्ति की कगार पर है, लेकिन कुछ समर्पित शिल्पकार इसे अब भी जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं।
लखनऊ की शाही दस्तकारी: चाँदी के जूतों का इतिहास
सिंड्रेला की कहानी में जूती केवल एक वस्त्र नहीं, बल्कि पहचान, सौभाग्य और प्रेम का प्रतीक थी। पश्चिमी लोककथाओं में यह जूती काँच की थी, लेकिन अगर यह कथा भारतीय संदर्भ में देखी जाए, तो लखनऊ का चाँदी के जूते बनाने का पारंपरिक शिल्प इससे जुड़ता हुआ प्रतीत होता है। लखनऊ, जो अपनी नजाकत, तहज़ीब और बेजोड़ कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है, वहां सदियों से नगीने जड़े, हाथ से बनाए गए चाँदी के जूते एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा रहे हैं।
हाफिज मोहम्मद अशफाक और आफिया: एक अनमोल विरासत के संरक्षक
आज इस कला के बहुत कम कारीगर बचे हैं, लेकिन लखनऊ के हाफ़िज मोहम्मद अशफाक और उनकी बेटी आफिया इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। अशफाक साहब दशकों से चाँदी की जूतियाँ बना रहे हैं, और अब उनकी बेटी आफिया भी इस हुनर को सीख रही हैं। उनका मानना है कि यह सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर है, जिसे बचाना आवश्यक है। चाँदी के जूते बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल होती है। पहले चाँदी को पिघलाकर उसकी पतली चादर बनाई जाती है, फिर उस पर हाथ से बारीक नक्काशी की जाती है। इस प्रक्रिया में कई दिन लगते हैं, और हर जोड़ी जूती एक अनोखी कृति होती है।आधुनिकता के प्रभाव और कला का संघर्ष
फैशन के दौर में आज चाँदी के जूतों की माँग पहले जैसी नहीं रही। चमड़े, प्लास्टिक और मशीन से बने जूतों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है। पहले जहाँ नवाबों, राजाओं और धनिकों के लिए ये जूतियाँ बनाई जाती थीं, अब इनकी माँग केवल विशेष डिजाइनरों या संग्राहकों तक सीमित रह गई है। इसके अलावा, सस्ते विकल्पों और मशीन निर्मित उत्पादों के कारण यह हस्तकला विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई है। हालांकि, कुछ संगठनों और फैशन डिजाइनरों ने इस कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। अगर इसे वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया जाए, तो यह न केवल भारत की हस्तकला को पहचान दिला सकता है, बल्कि उन कारीगरों को भी नई संभावनाएँ दे सकता है जो इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोते आए हैं।
निष्कर्ष
लखनऊ की चाँदी की जूतियाँ केवल एक फैशन स्टेटस नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। यह शिल्प नवाबी दौर से जुड़ा हुआ है और लखनऊ की विशिष्टता को दर्शाता है। हफीज मोहम्मद अशफाक और आफिया जैसे कारीगर अपने हुनर और समर्पण से इसे जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन बाजार की प्रतिस्पर्धा और बदलते फैशन के कारण यह कला संकट में है। यदि इस अनूठी कला को उचित संरक्षण और प्रोत्साहन मिले, तो यह केवल लखनऊ ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में भारत की सांस्कृतिक पहचान को नया आयाम दे सकती है। जैसा कि सिंड्रेला की जूती ने उसकी तकदीर बदली, वैसे ही लखनऊ के चाँदी के जूते इस परंपरा को पुनर्जीवित करने का अवसर प्रदान कर सकते हैं।
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