🌟 क्या रात को कभी पेड़ों पर सितारों को उतरते देखा है? 🌟
एक बरसाती शाम, जब मायरा अपने माता-पिता और दादाजी के साथ आँगन में बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रही थी, अचानक उसकी नज़र खिड़की की ओर गई। बाहर का नज़ारा किसी जादुई सपने-सा था! पेड़ों की टहनियों पर नन्हे-नन्हे प्रकाश बिंदु टिमटिमा रहे थे, मानो सारे तारे धरती पर उतरकर पत्तियों पर झपकियाँ ले रहे हों। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान झुककर धरती को गले लगाने आया हो, और अपने तारे उपहार में दे गया हो! मायरा की आँखें चमक उठीं।
"दादाजी, ये कोई जादू है न?" उसने उत्साह से पूछा।
दादाजी मुस्कराए और मायरा के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले, 'बिटिया, ये जो टिमटिमाती रोशनी तुम देख रही हो न, ये किसी जादू नहीं, बल्कि ये जुगनू हैं, जो प्रकृति के छोटे-छोटे दीये के सामान हैं! फिर उन्होंने विस्तार में बताया, 'जुगनू, इन्हें अंग्रेज़ी में fireflies कहा जाता है, दरअसल ये बीटल की एक खास प्रजाति के कीट होते हैं। लेकिन इनकी सबसे अनोखी बात यह है कि ये खुद रोशनी पैदा करते हैं — और वो भी बिना कोई गर्मी दिए!
'इसी तरह हर शाम दादाजी मायरा को कोई न कोई जानकारी बताया करते थे। बातों-बातों में शाम कब बीत जाती, पता ही नहीं चलता।
मायरा की उत्सुकता सातवें आसमान पर थी उसने पूछा, "लेकिन ये जुगनू चमकते कैसे हैं दादाजी?" उन्होंने प्यार से समझाया, "ये जुगनू अपनी जीवदीप्ति से चमकते हैं। इसे बायोल्यूमिनेसेंस के नाम से जाना जाता है, यानी एक तह की 'जीव-ज्योति'। इनके शरीर में एक खास तरह का एंज़ाइम होता है, जिसका नाम है लूसिफेरेज़। ये एंज़ाइम एक और पदार्थ लूसिफ़िन को ऑक्सीजन(हवा) के साथ मिलाकर ठंडी चमकदार रोशनी बनाता है — जैसे किसी जादुई लैम्प में चमक भर दी गई हो! वे इस चमक से अपने दोस्तों को बुलाते हैं, जैसे तू अपने दोस्तों को आवाज़ देती है!"
मायरा ने हँसते हुए कहा, "तो ये जुगनुओं के पास प्राकृतिक फोन की तरह हैं!" दादाजी ने ठहाका लगाया, "बिल्कुल, प्रकृति का फोन!" नर जुगनू मादा को आकर्षित करने के लिए चमकते हैं। हर प्रजाति का अपना चमकने का अंदाज होता है — रुक-रुक कर, लगातार या खास संकेतों में।
अगली शाम, दादाजी और मायरा, छाता थामे, जंगल की पगडंडी पर निकल पड़े। बारिश की हल्की फुहारें और मेंढकों की टर्र-टो चारों ओर गूँज रही थी। अंधेरे में कुछ ही कदम चले थे कि जंगल में कुछ दूर पर छोटे-छोटे प्रकाश बिंदु झिलमिलाते दिखाई दिए। मायरा की आँखें चमक उठीं। वह ताली बजाकर उछलने लगी, और बोली - "दादाजी, वहाँ देखिए!
जंगल में जादू!" दादाजी मुस्कुराए, "हाँ, बेटी, ये जुगनुओं का जादू है।" 'चलो, आज तुम्हें 'जुगनू महोत्सव' का जादू दिखाते हैं।' दादाजी ने मुस्कुराते हुए कहा। "हमारे गाँव की कहावत है, 'जुगनू की चमक में रात के कई राज छिपे हैं।'
हर साल मई-जून में पश्चिमी घाट के गाँवों — भंडारदरा, पुरुषपुर, भोर्गिरी, माथेरान, सतारा और खंडाला — में जुगनू रातों को अपनी चमक से रोशन करते हैं। मानसून की नमीं और अंधेरा उनकी चमक को और निखारता है, खासकर जब वे प्रजनन के लिए झिलमिलाते हैं। इन जादुई रातों को देखने दूर-दूर से पर्यटक उमड़ते हैं। भोर्गिरी के जंगल और गुफाएँ, जहाँ जुगनुओं की रोशनी तारों-सा आलम रचती है, विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।
पर्यटन संगठन यहाँ कैंपिंग, नाइट वॉक और ट्रेक का आयोजन करते हैं, जो प्रकृति के बीच जुगनुओं की चमक को और अविस्मरणीय बनाते हैं। यह जुगनू महोत्सव न केवल स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देता है, बल्कि इन नन्हे प्राणियों और उनके प्राकृतिक आवास के संरक्षण का संदेश भी फैलाता है।"
जंगल में कुछ और आगे बढ़ते हुए, मायरा ने देखा कि वहाँ कई लोग इकट्ठा थे। उसके जैसे कई बच्चे तंबुओं में बैठे रंग-बिरंगे चित्र बना रहे थे, कुछ बड़े जुगनुओं की कहानियाँ सुना रहे थे।
"दादाजी, ये सब क्या है?" मायरा ने पूछा। दादाजी ने बताया, "बेटी, यही है, 'जुगनू महोत्सव' है। यहाँ लोग रात भर सैर करते हैं, जुगनुओं की चमक देखते हैं, और उनके बारे में सीखते हैं। उधर देखो, वो विशेषज्ञ बता रहा है कि जुगनू नम जगहों पर रहते हैं और साफ पानी उनके लिए ज़रूरी है।"
मायरा ने उत्साह से कहा, "दादाजी यह सब मुझे भी सीखना है! क्या यहाँ कुछ खेल-कूद भी होते हैं?"
दादाजी ने आँखें मटकाते जबाब दिया, "हाँ क्यों नहीं, चित्रकला, कथा-कथन, और जुगनू प्रश्नोत्तरी होती है यहाँ! पिछले साल मैंने भी एक कहानी सुनाई थी, जिसे सुनकर सबने खूब तालियाँ बजाई थीं।"
मायरा चहकते हुए बोली, "दादाजी, अगली वर्ष के लिए मैं भी एक कहानी लिखूँगी!" चारों ओर जुगनुओं की चमक और बच्चों की हँसी से जंगल गूँज रहा था।
जैसे-जैसे रात गहराने लगी, दादाजी और मायरा जंगल से बाहर निकलने लगे। रास्ते में मायरा ने गौर किया कि महोत्सव के इलाके से दूर, गाँव के किनारों और खुले खेतों में जुगनू कहीं कम थे। वह कुछ पल ठिठक गई।
"दादाजी, यहाँ इतने कम जुगनू क्यों हैं? वहाँ जंगल में तो कितने सारे थे!"
दादाजी ने गंभीर होकर कहा, "बेटी, जुगनू अब खतरे में हैं। प्रकृति में मानवी हस्तक्षेप बढ़ा है; जंगल कट रहे हैं, नदियाँ प्रदूषित हैं, और तो और रासायानिक उर्वरकों और कीटनाशकों से वातावरण विषाक्त हो चला है। इससे इन जुगनुओं का घर, उनका भोजन, उनकी रोशनी — सब खतरे में हैं। मोबाइल टॉर्च, गाड़ियों की तेज़ रोशनी और इंसानी दखल से जुगनू परेशान हो जाते हैं। यदि यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा, तो अगली पीढ़ियाँ इस प्रकृति के जादू देखने से वंचित रह जाएँगी।"
मायरा की आँखें नम हो गईं। उसने धीरे से कहा, 'दादाजी, ये जुगनू इतने प्यारे और खूबसूरत हैं... इन्हें खोना बड़ा ही दुखद होगा! "हम इन्हें कैसे बचा सकते हैं दादाजी?" उसने बड़ी विनम्रता से पूछा।
दादाजी ने मुस्कुराकर कहा, "छोटे-छोटे कदम बढाकर, बेटी। पेड़ लगाओ, कचरा न फैलाओ, और अपने दोस्तों को जुगनुओं की कहानी सुनाओ। सभी से हम महोत्सव में यही वादा लेते हैं।"
मायरा ने गहरी साँस ली और कहा, "मैं स्कूल में 'जुगनू क्लब' बनाऊँगी। हम सब मिलकर इन नन्ही रोशनियों की रक्षा करेंगे।"
दादाजी ने उसका माथा चूमा, "शाबाश मेरी बच्ची। तू सिर्फ जुगनुओं की नहीं, उम्मीद की भी रौशनी है।"
मायरा हर शाम आँगन में बैठती और जुगनुओं को देखकर कहती, "मैं तुम्हारी चमक को कभी फीका नहीं पड़ने दूँगी!" गाँव से लौटते समय मायरा ने दादाजी का हाथ थामा और बोली, "जब तक मैं हूँ, जुगनुओं की चमक कभी नहीं बुझने दूँगी।" दादाजी की आँखों में गर्व की चमक भर आई।
अपने स्कूल जाकर मायरा ने अपने दोस्तों को 'जुगनू महोत्सव' की कहानी सुनाई। वहाँ पर उसने न केवल 'जुगनू क्लब' की स्थापना की, बल्कि अपने दोस्तों के साथ यह सपना भी संजोयाँ कि एक दिन वह उस जंगल को सदा हरा-भरा बनाए रखेगी, जहाँ जुगनू बिना किसी डर के चमक सकें।
अगली शाम वह दादाजी से वीडियो कॉल पर जब उसने अपने स्कूल की बात बताई तो वे गर्व से मुस्कुराते हुए बोले - "बेटी, तूने जुगनुओं का उत्सव अपने दिल में बसा लिया। अब उनकी चमक कभी मध्यम न होने देना।"
✨ तुम भी मायरा की तरह अपने स्कूल या मोहल्ले में ‘जुगनू क्लब’ बना सकते हो।🌿
💡 अपने क्लब का नाम सोचो!
🎨 एक पोस्टर बनाओ या एक कहानी लिखो – "मेरे जुगनू दोस्त"
🧠 जुगनू प्रश्नोत्तरी या नाइट-वॉक प्लान करो
🌱 पेड़ लगाओ और कचरा कम करने की शपथ लो
👉 मिसाल के लिए: पेड़ लगाना, जुगनुओं की कहानियाँ सुनाना, या रात में जुगनू देखने की सैर!
यह लेख पढ़कर मुझे बरबस बचपन की याद आ गई, जब हम शाम होते ही जुगनुओं के पीछे दौड़ना शुरू कर देते थे. पर आज ने वैसे गाँव रहे न वैसे जुगनू?
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