रविवार, 11 मई 2025

कहानी: "एक किरण उम्मीद की"

कहानी: "एक किरण उम्मीद की"| Hope Story in Hindi

आशा की खोज में निराश आरव.. 
कॉलेज का आखिरी साल था, और भविष्य की उमंगें बिना डोर की पतंग की भांति अल-मस्त हवे में तैर रही थीं। जहाँ हर कोई अपने जीवन में आने वाले सुनहरे सपनों के महल बुन रहा था, वहीं आरव के लिए ये सब कुछ बेमानी सा था। उसका दिल किसी और ही अनजान उदासी से भरा हुआ था। अब न पढ़ाई में कोई मन लगता, न दोस्तों की हँसी-ठिठोली में कोई सुकून मिलता, और तो और खुद से अपना कोई रिश्ता भी न बचा था। वह रोज़ क्लास के बाद कॉलेज के बगीचे के एक सुनसान कोने में चला जाता; वह कोना, जहाँ पेड़ों की घनी छाँव और चुप्पी ही उसकी हमसफ़र थीं। वहीं वह घंटों खामोश बैठा रहता, मानो दुनिया की हर आवाज़ उससे कोसों दूर हो। उसका किसी से कोई वास्ता न हो। बस वो और उसका अकेलापन ही उसके साथी थे।  

सवालों को निगल लेती थी, बल्कि हर सपने, हर इच्छा को भी अपने अंधेरे में समेट लेती थी। यह शून्यता कोई साधारण उदासी नहीं थी; यह एक ऐसी खामोशी थी जो उसके दिल की धड़कनों को भी धीमा कर देती थी। वह खुद से सवाल करता, "क्या मैं वाकई इस दुनिया के लिए बना हूँ? क्या मेरे होने से किसी की ज़िंदगी में कोई फर्क पड़ता है?" हर बार जवाब में एक ऐसी खामोशी होती जो उसके सवालों को और भारी बना देती। यह खामोशी सिर्फ़ बाहर की नहीं, बल्कि उसके भीतर की थी, जैसे उसका मन एक बियाबान और अनंत रेगिस्तान सा बन चुका हो, जहाँ न कोई रास्ता था, न कोई मंज़िल। वह सोचता, शायद उसका वजूद इस विशाल दुनिया में एक भटके हुए कण की तरह है — नज़रअंदाज़, अनचाहा, और बेमानी सा...।

एक दोपहर, उसी सुनसान कोने में, आरव की नज़र एक अनजान शख्स पर पड़ी। एक बूढ़ा आदमी, जिसकी कमर समय के बोझ से झुक चुकी थी, सफेद दाढ़ी में उम्र की कहानियाँ छिपी थीं, और काँपते हाथों से वह मिट्टी खोदकर एक छोटा सा पौधा लगा रहा था। उसकी आँखों में एक अलग सी चमक थी, मानो वह मिट्टी में सिर्फ़ पौधा नहीं, बल्कि कोई सपना उगा रहा हो। अगले दिन वह फिर वहीं आया। फिर अगले दिन भी..। आरव के मन में सवाल कुलबुलाने लगे, इतनी उम्र में, इतनी मेहनत, आखिर क्यों? क्या वजह है कि यह बूढ़ा हर दिन एक नया पौधा लगाता है?

जिज्ञासा ने आखिरकार उसकी चुप्पी तोड़ी। एक दिन, हिम्मत जुटाकर वह बूढ़े आदमी के पास गया और धीमी आवाज़ में पूछा, "अंकल, आप ये सब क्यों करते हैं? इतनी मेहनत, इतना समय... इस सबका क्या फायदा?"

बूढ़े ने काम रोककर उसकी ओर गौर से देखा। उनकी मुस्कान में एक गहरी शांति थी, जैसे कोई साधु किसी तीर्थ की बात कर रहा हो। उन्होंने कहा —

"बेटा, हर पौधा जो मैं लगाता हूँ,

  वो मेरे लिए एक नई उम्मीद है।

  कोई इसकी छाँव में सुकून पाएगा,

  कोई इसके फूलों को देख मुस्कुराएगा,

  कोई इसके फलों को चखकर प्रसन्न होगा,

  और कोई इन्हें देख, ज़िंदगी को एक और मौका देकर अपने को फिर आजमाएगा।

  ये पौधे ईश्वर के प्रति मेरी प्रार्थनाएँ हैं — इस दुनिया के लिए, तुम जैसे नौजवानों के लिए।"


आरव के लिए ये जवाब एक पहेली की तरह था। उसने कभी इस तरह नहीं सोचा था। उस दिन के बाद, वह रोज़ उस कोने में आने लगा, न सिर्फ़ अपनी चुप्पी के लिए, बल्कि उस बूढ़े अंकल की बातों को सुनने के लिए। बूढ़े ने अपना नाम 'मनोहर' बताया । वह पहले स्कूल में शिक्षक थे, उनके बच्चे बड़े होकर विदेश चले गए। पत्नी के देहांत और सेवानिवृत्ति के बाद एकाकी और अवसाद से तिल-तिल मरने के बजाय उन्होंने पेड़-पौधों को ही अपना साथी बना लिया। अब उनके पास कहानियों का खज़ाना था। छोटी-छोटी, पर दिल को छूने वाली कहानियाँ।

एक वे बातों-बातों में बताने लगे —  

"एक बीज था, जो पत्थरों के बीच फँस गया था। उसे देख सबने कहा, ये कभी न उगेगा। लेकिन उसने हार न मानी।    वर्षा आई, पहले अंकुर फूटा, फिर धीरे-धीरे, अपनी जड़ों से पत्थरों को चीरकर, एक दिन वह विशाल पेड़ बन गया।"

 

फिर वह मुस्कुराकर बोले, हम सबकी ज़िंदगी भी ऐसी ही है, बेटा! जीवन की मुश्किलें 'पत्थर' हैं, और तुम वो 'बीज'।"

कभी वह चिड़िया की कहानी सुनाते, जो तूफान में भी अपनी धुन में गाती रही, मानो कह रही हो कि बुरा वक्त भी गीतों को नहीं रोक सकता। कभी नदी की बात करते, जो हर पत्थर को गले लगाकर, उसे चूमकर आगे बढ़ती रही। आरव सुनता, और उसके भीतर कुछ पिघलने लगता। उसकी आत्मा में एक हल्की सी हलचल होने लगी, जैसे कोई सोया हुआ सपना जाग रहा हो।

एक दिन, उसकी सहपाठी समीरा उसी कोने में आ पहुँची। वह आरव को अकेले बैठे देख पूछ बैठी, "तुम हमेशा अकेले क्यों रहते हो, आरव? क्या बात है?" उसकी आवाज़ में एक अपनापन था, जो आरव को पहले कभी नहीं महसूस हुआ। वह चुप रहा, लेकिन समीरा न रुकी। "मैं जानती हूँ, यह पल कैसा होता है। मैं भी उस अंधेरे से गुज़र चुकी हूँ, जब ज़िंदगी बेकार सी लगती है, जब हर सवाल का जवाब ख़ुद को ही निगल जाने में मिलता है।"

आरव ने पहली बार किसी के सामने अपने दिल का बोझ उतारा। उसने अपनी सारी उलझनें, अपनी हर असफलता, और अपना खोया वो आत्मविश्वास, सब बयान कर दिया। समीरा ने उसकी बातें ध्यान से सुनीं, और फिर हल्के से मुस्कुराई। "तुम जानते हो, मैं भी एक वक्त में खुद को खत्म करना चाहती थी। लेकिन एक दोस्त ने मुझसे कहा—अगर आज हार मान ली, तो कल क्या होगा, ये तुम कभी जान ही न पाओगे। उसने मुझे एक सवाल दिया—'क्या तुम कल की सुहानी सुबह को देखना नहीं चाहती?' और उस सवाल ने मुझे रोक लिया।"

उस रात, आरव ने बहुत देर तक समीरा की बातों को सोचता रहा। मनोहर अंकल की कहानियाँ और समीरा का सवाल उसके ज़हन में गूंजने लगे। पहली बार उसे लगा कि शायद कहानी में उसका किरदार अभी खत्म नहीं हुआ है। शायद अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है।

अगली सुबह, वह कॉलेज के बगीचे जा पहुंचा। मनोहर अंकल को देखकर उसने कहा, "अंकल, क्या आप मुझे एक पौधा दे सकते हैं? मैं भी कुछ उगाना चाहता हूँ।" उस दिन विवेक की आँखों में अंकल ने नई चमक देखी। उन्होंने आरव को एक छोटा सा पौधा थमाया। आरव ने अपने हाथों से मिट्टी खोदी, उस पौधे को प्यार से रोपा, और उसका नाम रखा - "उम्मीद"।

उस दिन से, आरव की ज़िंदगी में एक नया रंग आया। वह हर सुबह अपने पौधे को पानी देता, उसकी हर नई पत्ती को देखकर मुस्कुराता। धीरे-धीरे, वह अपनी पढ़ाई में वापस लौटा। उसकी मुस्कान लौट आई। वह अब सिर्फ़ अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जीने लगा। वह दोस्तों से बातें करने लगा, उनकी बातें सुनने लगा, और उनके लिए वही बनने लगा जो मनोहर अंकल उसके लिए थे - 
"एक सहारा, एक उम्मीद"

एक दिन, उसने अपने पौधे के पास एक छोटा सा बोर्ड लगाया। उस पर लिखा था —
"यदि तुम टूटे हुए हो, अकेले हो, थके हुए हो—तो बैठो यहाँ कुछ देर। 
             ये पौधा तुम्हें वो दे सकता है, जो तुमने खो दिया है—उम्मीद।"

और उस कोने में, जो कभी सिर्फ़ आरव की उदासी का ठिकाना था, अब लोग आते। कोई किताब लेकर, कोई अपने ख्यालों में खोया हुआ, और कोई बस उस पौधे को देखने। हर कोई वहाँ से कुछ न कुछ लेकर जाता—
"एक हल्की सी मुस्कान, एक नया ख्याल, या फिर एक नई उम्मीद।"

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