देवा शरीफ़ मस्जिद, बाराबंकी में होली के दीवानों ने दी एकता की मिशाल |
किन्तु यह भी सत्य है कि हाल के वर्षों में इन आपसी रिश्तों में दूरियाँ बढ़ाने की कोशिशें की गई हैं। कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर राजनीति होती है, तो कभी त्योहारों के दौरान संदेह और शंकाओं के बादल घिरने लगते हैं। परंतु जो लोग इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीते आए हैं, उनके लिए धर्म की सीमाएँ उतनी ही बेमानी हैं जितनी नदियों के लिए उनके तटों की दीवारें। बचपन में होली पर जब मोहल्ले के हर बच्चे के चेहरे पर रंग लगा होता था, तब कोई यह नहीं पूछता था कि यह हाथ किस धर्म के हैं। नमाज से पहले रंग खेलकर मियांइन टोला के बच्चे भी अपने हिंदू दोस्तों के साथ उसी मस्ती में डूबे रहते थे।
उधर दिवाली की रात जब घर-घर दिए जलते थे, तो कई मुस्लिम परिवार अपने हिंदू मित्रों के साथ मिठाइयाँ बाँटते और उनके घरों में जाकर दीयों की रोशनी में शामिल होते।
मेरे पतिराम दादा अक्सर हमें कहानी सुनाया करते थे कि कैसे 1947 के दंगों के दौरान हमारे गाँव के हाफ़िज़ साहब ने मंदिर में छिपे हिंदू परिवारों को अपने घर ले जाकर शरण दी थी। बदले में कुछ वर्षों बाद जब उनके बेटे का निकाह था, तो पूरे गाँव ने मिलकर बारात का स्वागत किया, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम। इस भाईचारे की भावना को कोई राजनीतिक साजिश खत्म नहीं कर सकती।
भारत का इतिहास गवाह है कि यहाँ ताजमहल जितना ही महत्वपूर्ण खजुराहो के मंदिर भी हैं। कबीर की दोहों में जितना हिंदू दर्शन समाया है, उतना ही इस्लामी सूफ़ीवाद भी।
अमीर खुसरो ने हिंदवी में ऐसे गीत रचे जो आज भी दोनों समुदायों में समान रूप से गाए जाते हैं।
अगर हम बॉलीवुड की बात करें, तो मोहम्मद रफ़ी के गाए भजन और लता मंगेशकर के गाए नात दोनों ही दिल को छू लेते हैं। राही मासूम रज़ा ने 'महाभारत' की पटकथा लिखी, तो प्रेमचंद ने 'ईदगाह' के माध्यम से हिंदू-मुस्लिम एकता को जीवंत किया। यह बताता है कि हमारी साझा संस्कृति किसी एक मज़हब की जागीर नहीं, बल्कि सभी की धरोहर है।
हमारी गलियों में अब भी चाय की दुकानों पर हिंदू और मुस्लिम बुज़ुर्ग एक साथ बैठकर गप्पें लड़ाते हैं। अब भी शादी-ब्याह के मौकों पर दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आते हैं। आज भी जब कोई मुसीबत आती है, तो सबसे पहले पड़ोसी ही काम आता है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो।
पर सवाल यह उठता है कि क्या हम अपनी इस साझी विरासत को बचा पाएँगे? क्या हम अपने बच्चों को यह सिखा पाएँगे कि उनका धर्म इंसानियत से ऊपर नहीं? यदि हमें अपनी संस्कृति को संजोना है, तो हमें उन ताकतों को पहचानना होगा जो हमें बाँटने की कोशिश कर रही हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि नफरत की राजनीति किसी एक धर्म को नहीं, बल्कि पूरे समाज को नुकसान पहुँचाती है। भारत की असली पहचान इसकी विविधता में छिपी है। यह वह देश है जहाँ कृष्ण की बांसुरी की धुन और बुल्ले शाह के कलाम एक साथ सुने जाते हैं। जहाँ गुरु नानक की वाणी और रहीम के दोहे एक ही धरती से उपजे हैं।
यह वह देश है जहाँ किसी अनाथ बच्चे को पनाह देने के लिए यह नहीं देखा जाता कि वह किस धर्म का है। अगर हमें अपने देश को सही मायनों में आगे बढ़ाना है, तो हमें अपनी जड़ों से जुड़ना होगा। हमें फिर से उसी बचपन की मासूमियत को अपनाना होगा, जहाँ दोस्ती धर्म से बड़ी थी और मोहब्बत मज़हब से ऊपर। तभी हम इस गंगा-जमुनी तहज़ीब को हमेशा जीवित रख पाएँगे।
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