हिंदी: मातृभाषा नहीं, राष्ट्र की आत्मा है

भारत विविध भाषाओं, संस्कृतियों और प्रांतों का देश है, जिसकी एकता का आधार उसकी सांस्कृतिक जड़ों में निहित है। इस विशाल विविधता को जोड़ने वाली सबसे सशक्त डोरी हिंदी है। हिंदी केवल संवाद की भाषा नहीं, वह जनमानस की अभिव्यक्ति, आत्मीयता और संस्कृति की संवाहक है। यह भाषा भारत को एक सूत्र में पिरोती है—बिना किसी भेदभाव के। दुर्भाग्यवश, हम इसे केवल उत्तर भारत की भाषा समझने की भूल करते हैं, जबकि हिंदी पूरे देश की आत्मा है। यह भाषा गांव से लेकर महानगर तक, कक्षा से लेकर संसद तक, लोकगीतों से लेकर सिनेमा तक, हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। लेकिन इस सबके बावजूद, हमने इसे पूर्ण राष्ट्रभाषा का गौरव नहीं दिया।
आज जब विश्व तकनीक, बाजार और संचार के युग में आगे बढ़ रहा है, हिंदी स्वयं को लगातार नए आयामों में ढाल रही है। डिजिटल दुनिया में हिंदी का बोलबाला है—ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया, विज्ञापन, मोबाइल एप्स और ग्राहक सेवा में हिंदी प्रमुख रूप से अपनाई जा रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी अब हिंदी में संवाद को व्यापारिक सफलता की कुंजी मान रही हैं। यह प्रमाण है कि हिंदी न केवल भावों की भाषा है, बल्कि आधुनिक युग के व्यापार और वाणिज्य की भी सर्वोत्कृष्ट साधन बन चुकी है। इसके बावजूद कुछ लोग आज भी हिंदी को हीन दृष्टि से देखते हैं, केवल इस कारण कि वह अंग्रेज़ी जैसी "विदेशी चमक" नहीं रखती। जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी ही वह शक्ति है, जिससे हम वैश्विक स्तर पर आत्मनिर्भर और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बन सकते हैं।
हिंदी ज्ञान के अभाव ने देश के लाखों युवाओं को आत्मविश्वास से वंचित किया है। कितने ही छात्र, अधिकारी या नेता ऐसे रहे हैं जो जनता से जुड़ नहीं पाए क्योंकि वे हिंदी में संवाद नहीं कर सके। वे अपनी बात कहने से डरते हैं, अवसर खो देते हैं, और जीवन की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था और नीति निर्माता हिंदी को प्राथमिकता देते, तो यह असमानता न होती। स्वतंत्र भारत के पहले दिन ही यदि पं. जवाहरलाल नेहरू लाल किले से यह घोषणा करते—"हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा रहेगी", तो आज कोई असामाजिक तत्व हिंदी के विरोध की हिम्मत न करता।
“लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।”
आज समय की मांग है कि हम अपनी भाषाई शक्ति को पहचानें। हमें क्षेत्रीय राजनीति, स्वार्थ और विदेशी भाषा-प्रेम से ऊपर उठकर हिंदी को उसका वह गौरव दिलाना होगा जो वह सदियों से заслужित करती है। हमें उस युगपुरुष की प्रतीक्षा है, जो लाल किले से यह घोषणा कर सके—
“हे माँ भारती! आज से हिंदी ही तेरे माथे की बिंदी बनकर सदैव चमकेगी।”
वह दिन भारत के इतिहास का स्वर्णिम दिन होगा, जब पूरा देश भाषा के नाम पर बँटे बिना एक माला में पिरो दिया जाएगा, और हिंदी विश्वगुरु भारत की पहचान बनेगी। हिंदी को अपनाना केवल सांस्कृतिक कर्तव्य नहीं, यह राष्ट्र की आत्मा से जुड़ने का सशक्त संकल्प है—जिसे अब हमें पूरे गर्व के साथ स्वीकारना चाहिए।