भीमाव्वा अम्मा का प्रेरणादायक संवाद
स्थान: राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली
अवसर: पद्मश्री सम्मान समारोह
संवाददाता: रेखा चौधरी, भारतीय संस्कृति संवाद
अतिथि: भीमाव्वा डोड्डाबलप्पा शिलेक्याथारा (96 वर्ष)
प्रश्न 1: भीमाव्वा अम्मा, आपको पद्मश्री सम्मान मिला है। आपको कैसा लग रहा है?
भीमाव्वा (मुस्कुराते हुए): बेटी, मैं कोई सम्मान की भूखी नहीं थी। लेकिन जब राष्ट्र खुद चलकर मेरी झुकी हुई पीठ को सहारा देता है, तो लगता है — मेरी कठपुतलियों ने सच में भारत की आत्मा को छू लिया। यह खुशी नहीं, यह तृप्ति है।
प्रश्न 2: आपने कठपुतलियों के माध्यम से रामायण और महाभारत को सजीव बनाए रखा। यह यात्रा कब और कैसे शुरू हुई?
भीमाव्वा: उस समय टीवी नहीं था, किताबें भी कम थीं। मैंने अपने पिता से सीखा — उँगलियों से कहानियाँ गढ़ना। राम, सीता, अर्जुन, द्रौपदी — सब मेरे साथ खेले, मेरे कठपुतलियों के मंच पर जीते। मैंने सिर्फ़ इतना किया कि हमारी संस्कृति की साँसों को मिटने नहीं दिया है।
प्रश्न 3: आपने कभी मंच, पुरस्कार या प्रचार की चाह नहीं रखी?
भीमाव्वा: नहीं बेटी, साधना प्रचार से नहीं, प्रेम से चलती है। मुझे जब बच्चों की आँखों में कौतूहल दिखता था, तो वही मेरा पुरस्कार होता था। अब यह जो पद्मश्री मिला है, तो लगता है — देश ने मेरी साधना को सुना, समझा और स्वीकार किया।
प्रश्न 4: आज राष्ट्रपति भवन में जब आपको सहारा देकर मंच तक लाया गया, वह क्षण कैसा था?
भीमाव्वा (आँखों में चमक और नमी): ऐसा लगा जैसे मेरी माँ ने मुझे बाँहों में भर लिया हो। यह केवल सम्मान नहीं था, यह भारत माता के घावों पर लगाया गया मरहम था।
प्रश्न 5: आज के युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
भीमाव्वा: अपनी जड़ों से जुड़े रहो। तकनीक सीखो, आगे बढ़ो, पर अपनी संस्कृति को छोड़कर मत जाना। क्योंकि जिस दिन यह परंपराएँ टूटेंगी, उस दिन यह आत्मा भी टूट जाएगी।
प्रश्न 6: क्या आपको लगता है भारत अब बदल रहा है?
भीमाव्वा (गंभीर होकर): हाँ, बेटी। अब वह भारत जाग रहा है जो शोर नहीं, संवेदना को पहचानता है। जहाँ अब सिंहासन से नहीं, झुर्रियों से इतिहास लिखा जा रहा है।
संवाददाता (अंत में):
भीमाव्वा जी, आपने उँगलियों से सिर्फ़ कठपुतलियाँ नहीं चलाईं, आपने भारत की आत्मा को जीवित रखा। आपके शब्द, आपकी साधना, और आपकी सादगी — हम सभी को प्रेरणा देती है।
भीमाव्वा (मुस्कराते हुए): मैं तो बस इतना चाहती हूँ — "जब कोई बच्चा मेरी कठपुतली देखे, तो वह भारत की कहानी सुन पाए।"
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