रविवार, 1 जून 2025

🌳 कदंब का पेड़: संस्कृति, सौंदर्य और संवेदना का प्रतीक🌧️

कदंब का वृक्ष: श्रीकृष्ण, संस्कृति और आध्यात्मिक छांव
कदंब का वृक्ष

कदंब का वृक्ष केवल एक वनस्पति नहीं, भारतीय संस्कृति, स्मृति और अध्यात्म का जीवंत प्रतीक है। जब आषाढ़ की पहली बारिश धरती को भिगोती है, कदंब के पीले-नारंगी फूल गोल गुच्छों में खिल उठते हैं—मानो सृष्टि का मौन संगीत सुनाते हों।

इस वृक्ष का श्रीकृष्ण से गहरा नाता है। ब्रजभूमि की गलियों में यह वृक्ष वह स्थान है जहाँ कृष्ण अपनी मुरली बजाते हैं और गोपियाँ मंत्रमुग्ध होकर झूम उठती हैं।

“कदंब तरु में बैठ गोविंदा, बंसी बजावत धीर।” — सूरदास

यह दृश्य केवल कविता नहीं, चेतना है। जहाँ पेड़, परमात्मा और प्रेम एक साथ स्पंदित होते हैं।

कदंब वृक्ष भारतीय भक्ति साहित्य और लोककथाओं में प्रेम और प्रतीक्षा का सजीव प्रतीक है। विद्यापति की एक पंक्ति गूंजती है—

“अलि कहि जात कदंब तरु लाग्यो, कहाँ गवनु मोरे सांवरिया।”

जहाँ यह वृक्ष प्रेमिका की पीड़ा का मौन साक्षी बन खड़ा होता है। लोकगीतों में यह झूले और रास की छवि बनकर, नंदलाल की बाल लीलाओं में खिल उठता है—

“कदंब की डाली पे झूला झुलायो री, नंदलाल...”

रवींद्रनाथ ठाकुर ने इस वृक्ष में आत्मा की गहराई और फूँक की शांति देखी। यह वृक्ष एक परंपरा, एक भाव है।

परंतु यह केवल साहित्य नहीं, चिकित्सा विज्ञान का हिस्सा भी है। आयुर्वेद में इसकी छाल त्वचा रोग, बुखार और पाचन रोगों के लिए उपयोगी मानी जाती है। इसका वानस्पतिक नाम *Neolamarckia cadamba* है और यह तेज़ी से बढ़ता है, ऑक्सीजन प्रचुर मात्रा में देता है और भूमि कटाव को रोकता है।

आज के डिजिटल युग में जब हम स्क्रीन से संस्कृति को देख रहे हैं, कदंब हमें धरती से जुड़ने का संदेश देता है। इसकी छांव में बैठना आत्मा को विश्राम देता है, स्मृतियों को ताज़ा करता है और श्रीकृष्ण की बाँसुरी की गूंज में विलीन कर देता है।

यह वृक्ष केवल वृक्ष नहीं, कृष्ण की लीला, भक्तों की आस्था और हमारे सनातन जीवन का आधार है। आधुनिक पीढ़ी को यदि अपनी जड़ों से जोड़ना है, तो कदंब को मन, बग़ीचे और लेखनी में स्थान देना ही होगा।

आइए, इस कदंब की छांव में बैठें—जहाँ आत्मा को विश्रांति मिले, और जीवन को कृष्ण का संगीत।

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