मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

कला और संस्कृति

    
        कला और मानव जीवन का एक अटूट संबंध रहा है, कला का हमारे जीवन के हर पहलू पर गहराई तक प्रभाव पड़ता है। मानव को जब भी अवकाश मिला उसने अपनी भावनाओं को विभिन्न कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। यही कारण है कि कलाओं को हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्वीकार किया जाता है। इनके अध्ययन से पता चलता है कि 'कलाएँ मानव की पहचान ही नहीं बल्कि वे हमारे विचारों, भावनाओं, और अनुभवों को साझा करने की क्षमता रखती हैं।' कला का उद्गम मानव उत्पत्ति और विकास के साथ जुड़ा है। ये हमें हमारे पूर्वजों की सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और धार्मिक समृद्धि और साहस का संदेश सुनाती है। आधुनिक काल में, कलाएँ न केवल विचारशीलता को प्रोत्साहित करती है, बल्कि वह सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय को भी प्रेरित करती है। 

यह लेख 'कला और मानव जीवन' के बारे में है, जिसका उद्देश्य है इस महत्वपूर्ण और गहराई से जुड़े संबंध को समझाना। इस लेख में, हम देखेंगे कि कला कैसे मानव जीवन की समृद्धि, समाजिक संबंध, और सामूहिक अभिवृद्धि की दिशा में नेतृत्व करती है। हम इसे उदाहरणों के साथ समझेंगे और इसके उपयोग से कैसे हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है, इसका भी विश्लेषण किया जाएगा। इससे हमें कला के महत्व को समझने में मदद मिलेगी और इसके असीम गुणों का महत्व को समाझा जा सकेगा जो हमारे जीवन को समृद्ध और अर्थपूर्ण बनाते हैं।

"कला" एक व्यापक शब्द है, जिसका अर्थ है - 'सृजनात्मक अभिव्यक्ति'। इसमें मानव के सोचने, अनुभव करने, और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के विभिन्न माध्यम हो सकते हैं। कला का उद्देश्य आमतौर पर जीवन के अनुभवों, विचारों, और भावनाओं को साझा करना होता है।

कला के उद्गम का संबंध मानव की प्राचीन सभ्यता से है, आदिम सभ्यताओं की संस्कृति और समाज में चित्रकला, मूर्तिकला, गायन, नृत्य, और अन्य कलाओं का महत्वपूर्ण योगदान था। इन कलाओं की विकास यात्रा का प्रारंभ  आदि मानव समुदायों की सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक आवश्यकताओं से हुआ। इन कलाओं के माध्यम से लोग अपनी भावनाओं को, धार्मिक और ऐतिहासिक कथाओं को, और सामाजिक संदेशों को साझा करते थे।  अपनी विकास यात्रा में कलाएं कई रूपों में प्रकट हुई। आधुनिक कला भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत होती है, जैसे कि चित्रकला, मूर्तिकला, छायाचित्र, चलचित्र, संगीत, नृत्य और नाटक आदि। आज कला न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक संदेश का वाहक भी है। इसका विकास धीरे-धीरे लगातार हुआ है और इसमें विभिन्न क्षेत्रों का प्रभाव है। इस विकास यात्रा को हम तीन मुख्य भागों में बाँट सकते हैं।  

सिंधु सभ्यता कालीन मूर्तिकला 
  • प्राचीन काल: यह उद्गम काल था। प्राचीन मानव समुदायों में, कला धार्मिक और सामाजिक आयोजनों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। मानव की आदिम जीवन शैली में उसकी संस्कृति और धर्म के साथ-साथ कलाओं का उद्गम हुआ था। प्राचीन काल के कलाकार अपनी पहचान जताने के लिए विभिन्न रूपों में विभिन्न आकृतियों, ध्वनियों, नृत्य, संगीत, भित्तिचित्र अथवा मूर्तियों आदि का उपयोग करते थे। इस प्रकार विभिन्न समुदायों और समाज में अपनी-अपनी कलाओं का विकास किया। 
ताजमहल - मध्ययुगीन कला का नमूना 
  • मध्य काल: कलाओं के विकास की दृष्टि से मध्ययुग काल को संचरण काल कहा जा सकता है।  इसमें भारतीय और पश्चिमी कलाओं का मिश्रित विकास हुआ। राजाश्रय में कला और कलाकारों को विकास के अच्छे अवसर मिले। यह काल दृश्य और दृक्-श्रव्य कलाओं के विकास का स्वर्णिमकाल रहा। इस काल में चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, पाक-कला, साहित्य, संगीत, नृत्य और रंगमंच के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ। 
फिल्मांकन - आधुनिक कला का नमूना 
  • आधुनिक काल: आधुनिक काल में भी कला के क्षेत्र में निरंतर विकास होता रहा है। उन्नत तकनीक, प्रचार-प्रसार के नए माध्यमों का प्रयोग और नित नवीन सामाजिक परिवर्तनों ने कला विकास के क्ष्रेत्र को नई दिशा प्रदान की। आधुनिक कला अब बहु-आयामी हो गई है, जिसमें पुरातन कलाओं के साथ छायांकन और फिल्मांकन (चलचित्र) जैसी नवीन तकनीकी कलाएं भी शामिल हुई हैं। कला का विकास न केवल समाज की धार्मिक और सामाजिक आवश्यकताओं को प्रतिबिम्बित करता है, बल्कि यह मानवता के उत्थान-पतन, धारणा और अवधारणाओं के साथ संबंधित है।

कला के प्रकार 

दृश्य कला और श्रव्य कला दोनों ही कलाओं के विभाग होते हैं, लेकिन उनमें अंतर होता है। यहां इस अंतर को समझाया गया है:-

  1. दृश्य कला (Visual Arts): दृश्य कला उन कलाओं को कहते हैं जो देखने में सुख देती हैं। इसमें  चित्रकारी, रेखांकन, मूर्ति बनाना, छायाचित्र खींचना, फिल्म-बनाना आदि शामिल होते हैं। इसमें कलाकार रंग, रूप, आकार, और संरचना के माध्यम से अपने विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। इनमें सांस्कृतिक, सामाजिक, या नैतिक संदेश भी छुपे होते हैं जो दर्शकों को समझाने का काम करते हैं।
  2. श्रव्य (प्रदर्शन) कला (Performing Arts): श्रव्य कला वह कलाएं हैं जो सुनने और देखने में आनंद देती हैं, जैसे - संगीत कला, नृत्यकला, नाट्य-कला, काव्य-कला आदि। इसमें कलाकार अपने शरीर, आवाज, और अभिनय के माध्यम से कहानी को सामने लाते हैं और दर्शकों को एक अनुभव प्रदान करते हैं। इसमें समय, स्थान, और दृश्य का प्रयोग किया जाता है जो जीवंत या रिकॉर्डेड रूप में हो सकता है।

सार्वजनिक रूप से, दृश्य कला और श्रव्य कला दोनों का महत्व बहुत है। ये कलाएँ मानव समाज में संवेदनशीलता, समाजिक समर्थन, और सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देती हैं। दृश्य कला रंग, रूप, और स्वरूप की भावना को अभिव्यक्त करती है। यह चित्रकला, नक्शा, आदि के माध्यम से किया जा सकता है। बच्चों को वाणिज्यिक कला के माध्यम से उनकी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता मिलती है, जिससे उनका सोचने का तरीका विकसित होता है।

  • संगीत कला (Musical Arts):

संगीत कला के अंतर्गत किसी गीत या कविता आदि को गाना ही गायन कहलाया जाता है। इसके लिए किसी गायक गायिका की आवश्यकता पड़ती है, जो गीत के शब्दों को अपने मुख के माध्यम से उच्चारित कर गायन करता है। गायन भाषा की सीमा से बंधा होता है। गायन में किसी गीत कविता को गाया जाता है, जो कि किसी भी भाषा में हो सकती है। जबकि वादन वाद्य यंत्रों की सहायता से प्रस्तुत किया जाता है। वादन के लिए व्यक्ति को संबंधित वाद्य यंत्र बजाने में निपुण होना चाहिए। एक साथ कई वाद्ययंत्रों को बजाना ही वादन कहलाता है। वादन भाषा की सीमा से नहीं बना होता। वाद्य यंत्रों द्वारा उत्पन्न ध्वनि-ताल को किसी भी भाषा का व्यक्ति समझ सकता है।

  • रंगमंच कला (Performing Arts):

रंगमंच कला एक जानकारी की अभिव्यक्ति है जो नृत्य, नाटक, और नाट्य के माध्यम से होती है। इसके माध्यम से, बच्चे अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं, साथ ही उनका आत्मविश्वास और संवेदनशीलता भी बढ़ता है।

  • साहित्यिक कला (Literary Arts):

साहित्यिक कला में शब्दों का उपयोग किया जाता है जैसे कि कविता, कहानी, निबंध, आदि। इसके माध्यम से, बच्चे विचारों को अभिव्यक्त करते हैं और भाषा कौशल को सुधारते हैं।

  • रचनात्मक कला (Creative Arts):

रचनात्मक कला विभिन्न कलाओं को मिलाकर एक नया काम बनाने में मदद करती है। इसमें अभिव्यक्ति की अनंत रूप और रचनात्मकता का महत्व है। यह विभिन्न प्रकार की कलात्मक गतिविधियों का वर्णन करता है जो बच्चों को विभिन्न माध्यमों में अपनी कल्पना, रचनात्मकता और विचारों को व्यक्त करने की अनुमति देता है।

अन्य अध्ययन सामग्री : - 

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

कंबाला महोत्सव : कृषक सांस्कृतिक उत्सव का संगम

कंबाला भैंसों की एक साहसिक दौड़ प्रतियोगिता है जो तटीय कर्नाटक जिलों में लोकप्रिय है। 'कंबाला' को हिंदी में 'भैंसों की दौड़ या भैंसेगाड़ी की दौड़' कह सकते हैं। इसमें कीचड़ भरे मैदान में भैंस दौड़ती हैं। कंबाला ग्रामीणों के लिए एक शानदार खेल और मनोरंजन कार्यक्रम है और पर्यटकों और फोटोग्राफरों के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। यह दौड़ कीचड़ से भरे दो समानांतर ट्रैक पर होने वाली रोमांचक दौड़ होती है। इस कार्यक्रम के दौरान राज्य की राजधानी में 'संपूर्ण तटीय कर्नाटक संस्कृति’ की झलक देखने को मिलती है। यह दौड़ कर्नाटक की 700 वर्षों से अधिक पुरानी सांस्कृतिक धरोहर है। कंबाला कार्यक्रम धान की कटाई के बाद शुरू होते हैं, जो आमतौर पर अक्टूबर के महीने में होता है। नवंबर से मार्च के बीच तुलुनाडु (कर्नाटक के दक्षिणी जिलों में जो तुलु भाषी क्षेत्र हैं) के विभिन्न हिस्सों में कंबाला कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। तटीय कर्नाटक के 45 से अधिक विभिन्न गाँव हर साल कंबाला दौड़ मनाते हैं। कुछ लोकप्रिय स्थलों में फ़्रेम मैंगलोर, मूडुबिदिरे, पुत्तूर, कक्केपाडावु, कुलुरु, सुरथकल, उप्पिनंगडी, दोस्त आदि प्रमुख हैं। इस आयोजन में प्रतिवर्ष 2 से 3 लाख आगंतुक आते हैं।

कंबाला महोत्सव में भैंसों की दौड़ (छवि स्रोत-भारतीय पर्यटन मंत्रालय) 

इस क्षेत्र में भैंसों के मालिक और किसान अपनी भैंसों का बहुत ख्याल रखते हैं और उनमें से सबसे अच्छी भैंसों को कंबाला में दौड़ के लिए अच्छी तरह से खिला-पिलाकर सेवा करते हैं; उन्हें सजाने के लिए उनके शरीर और सींगों पर तेल लगाते हैं। उनके पालन-पोषण का विशेष ख्याल रखते हैं। भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि कंबाला भैंसों को नुकसान न पहुँचाया जाए, उन्हें किसी प्रकार से प्रताड़ित न किया जाए या उनके साथ बुरा व्यवहार न किया जाए। 

साभार - नवभारत टाइम्स
कंबाला दौड़ में भैंसों को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति को धावक (जॉकी) कहते हैं। धावक वह व्यक्ति होता है जो भैंसों के साथ दौड़ता है। इन भैंसों को दौड़ के समय नियंत्रित करना कोई आसान कार्य नहीं है, इसे केवल एथलेटिक युवा ही भैंस जैसे विशाल जानवर को संभालने का जज़्बा रखते हैं। धावकों भैंसों को दौड़ाते समय लकड़ी के तख्ते पर खड़े होते हैं जिसे 'हलेज' के नाम से जाना जाता है, यह दोनों भैंसों को एक साथ बाँधें रखने वाले सेटअप से जुड़ा होता है जिसे 'नेगिलू' कहा जाता है। नेगिलू के लिए हलेज आधार होता है। दोनों एक दूसरे से जुड़े होते हैं।  कंबाला धावक भैंसों को चाबुक या रस्सियों से नियंत्रित करता है। दौड़ के दौरान धावक जितना संभव हो सके भैंसों को दौड़ाकर कीचड़ युक्त पानी उड़ाता चलता है, जिससे दर्शकों को दौड़ देखने में मनोरंजन और आनंद की अनुभूति होती है। 

कंबाला स्थल सैकड़ों भैंसों और उनकी देखभाल करने वाली टीमों का घर होता है, ठीक उसी तरह जैसे गाड़ियों की दौड़ में रेसिंग कार और उनके चालक दल होते हैं। भैंसों की दो टीमें अपने धावक के साथ दो समानांतर रेस गलियारों में फिनिश लाइन की ओर दौड़ती हैं। यह दौड़ पूरे दिन चलती है और विजेता अगले राउंड के लिए सागल होते रहते हैं। सबसे पहले फिनिश लाइन पर पहुंचने के अलावा, ऊपर दिए गए लक्ष्य तक पानी उड़ाने के लिए भी पुरस्कार दिए जाते हैं जिसे 'कोलू' के नाम से जाना जाता है। कंबाला भैंस दौड़ प्रतियोगिता के दौरान भैंसों को आमतौर पर जोड़े में ही दौड़ाया जाता है, जिन्हें हल और रस्सियों से एक साथ बाँधा जाता है। कंबाला दौड़ की लंबाई लगभग 150 मीटर की होती है। जिसे अच्छी भैंसें 12 सेकंड से भी कम समय में यह दौड़ पूरी कर पाती हैं। 

यदि आप भी कंबाला का कार्यक्रम देखने के शौकीन हैं तो स्थानीय मीडिया और कुछ निजी वेबसाइटों पर से इसकी जानकारी पढ़ सकते हैं। अगर आपको सर्दियों और गर्मियों के महीनों में कर्नाटक के तटीय शहरों जैसे मंगलुरु, उडुपी, मूडाबिदिरे में जाने का अवसर मिले, तो आप अपने स्थानीय मेज़बान अथवा होटल के कर्मचारी से निकटतम या अगले कंबाला कार्यक्रम के बारे में अवश्य पूछें इससे आपको अपने नजदीकी कंबाला दौड़ तक पहुँचने में मदद मिलेगी, जहाँ आप दौड़ का आनंद ले सकेंगे। अधिकतर कंबाला कार्यक्रम मुफ़्त होते हैं और कई घंटों अथवा रात भर चलते हैं। 

पारिजात (हरसिंगार) : एक औषधीय पौधा

पारिजात का फूल 
        विश्व के नामी फूलों की भारतीय धरोहर में, हरसिंगार का विशेष स्थान है। यह एक अद्वितीय फूल है जो अपनी सुंदरता, आरोग्यदायी गुणों और रहस्यमयता के लिए प्रसिद्ध है। हरसिंगार को विभिन्न नामों से जाना जाता है - पारिजात, प्राजक्ता, शेफाली, शिउली, पार्दक, पगडमल्लै, मज्जपु, पविझमल्लि, गुलजाफरी, नाइट जेस्मिन और सिंघार इत्यादि। शास्त्रों में इसे 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है, इसीलिए इस पौधे का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है।यह एक सुंदर और मनमोहक सुगंध वाले फूल के साथ-साथ कई आयुर्वेदिक औषधीय गुणों से भरपूर है।

हरसिंगार के फूल सफ़ेद रंग के होते हैं और इनमें नारंगी रंग का तना होता है। इन फूलों में पांच से सात पंखुड़ियां होती हैं। यह फूल रात के समय खिलने के लिए प्रसिद्ध है, जिसके कारण इसे 'निशागंधा' भी कहा जाता है। हरसिंगार के पौधों का उनकी पत्तियों के साथ विशेष संबंध है, जो रात्रि के समय फूलों के साथ खुलती हैं और सूर्योदय के साथ ही मुरझाने लगती है। इस प्रक्रिया के कारण इसे लोग अधिक पसंद करते हैं। चलिए, हम इसके रहस्यों से उजागर करने के लिए इस फूल को जानने निकलते हैं और उसके विस्तार से अध्ययन करते हैं।

इसका वानस्पतिक नाम 'निक्टेन्थिस आर्बोर्ट्रिस्टिस' है। है, और यह भारत के उत्तरी भागों, जैसे कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, एवं पूर्वी भारत में पाया जाता है। इसके अलावा, बांग्लादेश, नेपाल, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस आदि देशों में भी हरसिंगार की खेती की जाती है। जनश्रुति के अनुसार इसकी उत्पत्ति समुद्र-मंथन से हुई थी। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से एक हरसिंगार का पौधा भी है। यह पौधा देवताओं को मिला था। जिसे इंद्र ने अपनी वाटिका में लगाया था। मान्यता के अनुसार नरकासुर के वध के पश्चात इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण को हरसिंगार के पुष्प भेंट किये थे, जिसे उन्होंने देवी रुक्मिणी को भेंट किया था।

समुद्र मंथन

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार पौधे की चाह में सत्यभामा ने हठ किया, जिसके फल स्वरूप भगवान श्री कृष्ण जब हरसिंगार का पेड़ इंद्र देव से युद्ध में जीत कर स्वर्ग से धरती पर लेकर आ रहे थे तब देवराज इंद्र ने क्रोध में आकर पेड़ को श्राप दे दिया। माना जाता है कि इसी श्राप की वजह से हरसिंगार के फूल सिर्फ रात में ही खिलते हैं और इस पर फल भी कभी नही आते। हरसिंगार के पौधे में फूल आने का समय बारिश के बाद अगस्त माह से सर्दियों में दिसंबर माह तक होता है। केवल हरसिंगार ही एक ऐसा पौधा है जिसके पुष्प जमीन पर गिरे हुए होने के बाद ही भगवान को स्वीकार होते है। हरसिंगार के पुष्प गोधूलि बेला के बाद खिलते हैं जो प्रातः स्वयं ही पौधे से झड़ जाते हैं।

हरसिंगारअपने फूलों की मनमोहक खुशबू और आकर्षक रंग के कारण लोकप्रिय है। पूजा में उपयोग के साथ कई शारीरिक व्याधियों को दूर करने में उपयोगी है। इसके पत्ते, फूल और छाल का सभी का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसकी छाल बहुत कठोर होती है जो परतदार और भूरे रंग की दिखती है। इसका वृक्ष 10 से 15 फीट ऊँचा होता है। लेकिन इसे 12 से 14 इंच के गमले में भी आसानी से लगाया जा सकता है। हरसिंगार का पौधा छोटे या बड़े दोनों रूपों में विकसित हो सकता है। वसंत ऋतु हरसिंगार के पौधे को लगाने का सबसे बेहतर समय है। पौधे को घर, मंदिर या पार्क में लगाया जा सकता हैं। छत या बालकनी में जहाँ पर्याप्त धूप पौधे को मिल सके वहाँ इसे गमले में भी लगा सकते है। हरसिंगार के पौधे को सर्दियों के मौसम में लगाने से बचे।

पारिजात का पौधा 
     हरसिंगार का पौधा नर्सरी से लाकर या बीज से या कलम विधि से तैयार करके लगा सकते है। गमले में पौधा लगाने के लिए पौधे के आकार के अनुसार गमले का चुनाव करें। साथ ही यह भी सुनिश्चित करे की गमले से अतिरिक्त पानी निकलने की उचित व्यवस्था भी हो। गमले में पौधा लगाने के लिए 25% गॉर्डन की सूखी मिट्टी, 25% बलुई मिट्टी, 25% जैविक खाद, 15% छोटे आकार वाले ईट-मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े और 10% सरसों व नीम की खली को मिला कर मुलायम और भुरभुरी मिट्टी तैयार करके पौधा लगाना चाहिए। इसकी पौध के लिए चिकनी और कठोर मिट्टी का उपयोग न करें इससे पौधे मर जाते हैं। इसके बीज अंकुरित करने के लिए सीडलिंग ट्रे में 50-50% की मात्रा में मिट्टी और खाद अच्छी तरह से मिलाकर ट्रे भर दें। बीज को 2 सेमी गहराई बनाकर रखें। हल्की नमी बनाएं रखें। आंशिक धूप-छाया में रखें।

उगाने के बाद हरसिंगार के पौधे को दिन की  5 से 6 घंटे की धूप में रखें। समय-समय पर गोबर की खाद, मिट्टी की गुड़ाई करके, गमले में डाले, उसे ऊपर मिट्टी से ढक दें। मिट्टी सुखने से पहले गुड़ाई करें फिर पानी अवश्य दें। पौधे को घना करने के लिए समय समय पर 15 से 20 दिनों के अंतर में बसंत से जुलाई तक हल्की छंटाई करते रहिए। गर्मियो के दिन में 2 से 3 बार गमले में पानी डालें। सर्दियों में इस पौधे को नियमित रूप से पानी देने से बचें। पौधे को धूप में रखें और ठंडी हवा से बचाये।

पारिजात की पत्तियाँ
हरसिंगार का पौधा जलन-रोधी, सूजन-रोधी, एंटीऑक्सीडेंट तथा जीवाणु-रोधी गुणों से भरपूर होता है। इसके पत्तियों का रस कड़वा होता है और टॉनिक के रूप में काम करता है। इनका उपयोग बुखार, सर्दी-खांसी, कृमि-संक्रमण, अस्थमा आदि के इलाज के लिए किया जाता है। पत्तियो का काढ़ा पीने से कब्ज, कृमि-संक्रमण, गठिया के दर्द से आराम मिलता है। आप इसके फूल का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। हरसिंगार के पत्ते का पानी सूजन-दर्द, घावों, पेट के कीड़ों से राहत दिलाता है। इसका प्रयोग समस्या से राहत मिलने तक लगातार करते रहना चाहिए

मंगलवार के दिन हरसिंगार के पौधे को हनुमान जी के मंदिर के पास, किसी नदी के पास या सामाजिक स्थल पर लगाने से स्वर्ण दान के समान पुण्य प्राप्त होता है। हरसिंगार के पौधे को किसी शुभ मुहूर्त पर अपने घर के उत्तर दिशा या पूर्व दिशा में लगाएं, नियमित रूप से उसकी देखभाल करें। ऐसा करने से घर के सभी वास्तु दोष दूर होते है। देवी लक्ष्मी और श्री हरि को इसके फूल अति प्रिय है। जहाँ भी यह पौधा लगा होता है वहां माँ लक्ष्मी का वास माना जाता है।



बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

अवकाश के क्षण - खेल और कलाओं का उद्गम

दुनिया के हर व्यक्ति के पास कुछ पल ऐसे अवश्य होते हैं, जिनका उपयोग वह अपने विकास के लिए कर सके। जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। व्यस्तता के बीच थोड़ा अवकाश (खाली समय) मिलना स्वाभाविक है। अक्सर, लोग इस समय को व्यर्थ गँवा देते हैं, जिससे उनका जीवन नीरस और अर्थहीन हो जाता है। अवकाश का सदुपयोग आपको एक बेहतर जीवन जीने में मदद कर सकता है। यह आपको अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने, अपनी क्षमताओं को विकसित करने और एक खुशहाल और अर्थपूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाता है। यदि हम इसका सहीं संयोजन नहीं कर पाते हैं तो निश्चित ही हम अपने विकास के मार्ग अवरुद्ध कर रहें हैं। आज के भागदौड़ भरे जीवन में, अवकाश एक बहुमूल्य वस्तु बन गया है। काम, स्कूल, और अन्य जिम्मेदारियों के बीच, हमें अक्सर अपने लिए समय ढूँढना मुश्किल होता है। लेकिन क्या आप जानते हैं की जो कुछ थोड़ा अवकाश आपको मिल रहा है, उसका सदुपयोग कैसे करें? आज हम इस ब्लॉग में इसी को जानने का प्रयास करेंगे। 

"अपने अवकाश के क्षणों का सदुपयोग करना एक अनमोल उपहार पाने से कम नहीं है। यह हमें अपनी रुचियों का पीछा करने, नए कौशल सीखने, और अपने जीवन को समृद्ध बनाने का अवसर देता है।"

गुफाओं के भित्तिचित्र 
प्राचीन काल में भी मनुष्य अपने जीवन पर्यंत सदैव सक्रिय रहा करता था। उस समय उसे अपने जीवन को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए भोजन जुटाने तथा अपनी सुरक्षा के लिए कुछ न कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती थी। इसके अतिरिक्त अपने परिवार अथवा समुदाय के साथ खेलने, युद्धाभ्यास करने, कहानियाँ और चित्र बनाने आदि के लिए करता था। उसके दैनिक क्रियाओं में भोजन के लिए शिकार करना, मछली पकड़ना, फल इकट्ठा करना, खेती करना आदि था। वह अपने आश्रय के लिए पहले पेड़ों पर और कंदराओं (गुफाओं) में रहकर दीवारों पर चित्रकारी करना, हथियार, आभूषण, बच्चों के लिए खिलौने और कपड़े आदि बनाना शुरू कर दिया। कालांतर में वह इसी अवकाश का सदुपयोग कर कई कलाओं में सिद्धहस्त हो गया।

        अवकाश के क्षणों का उपयोग कर निम्नलिखित क्रियाओं का उपयोग किया गया।
  • प्रवास / यात्रा / घुमक्कड़ी
  • खेल और स्पर्धाएँ
  • कलाएँ
  • स्वयं की खोज
  • मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

    फ़िल्मों के आशिक : रोहित की कहानी

    फिल्म देखता रोहित

            रोहित एक 12 वर्षीय जिज्ञासु और होनहार बालक था। उसके माता-पिता दोनों ही कामकाजी थे, जिसके कारण वह बचपन से ही घर पर अकेला रहा करता था। अकेलेपन के कारण उसे खाली समय भी बहुत मिलता था। पहले तो वह अपने खिलौनों से खेलता था, पर धीरे-धीरे वह उनसे ऊबने लगा। एक दिन, रोहित टीवी पर मजबूरन एक फिल्म देख रहा था। वह फिल्म उसे इतनी पसंद आई कि उसने अगले दिन भी वही फिल्म देखी। धीरे-धीरे फिल्मों का शौक उसके अंदर पनपने लगा। 

    रोहित के मन में फिल्मों से अटूट लगाव होता गया। जब भी उसे समय मिलता, वह कोई न कोई नई-पुरानी फिल्म देखने लगता। फिल्मों के माध्यम से रोहित ने विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों और देशों के बारे में सीखा। उसने देखा कि कैसे लोग विभिन्न परिस्थितियों में भी हार नहीं मानते और अपने सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करते हैं। रोहित का मानना था कि फिल्में उसे आत्मविश्वास, साहस और निडरता सिखाती हैं। पहले उसे जिन चीजों से डर लगता था - अंधेरा, ऊंचाई, हार, चोट लगना, मृत्यु आदि; फिल्मों ने उसे इन डरों के आगे की दुनिया से परिचित कराया। रोहित सीखा कि कैसे फिल्मों के नायक डर का सामना करते हैं, चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, और अंत में विजय प्राप्त करते हैं। 

           अब, वह पहले से अधिक समझदार और आत्मविश्वास से भरा हुआ महसूस करने लगा। वह अब डर के आगे नहीं झुकता था, बल्कि चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहता था। रोहित ने अन्य बच्चों को भी अच्छी फिल्में देखने के लिए प्रेरित करना शुरू किया। उसने सोशल मीडिया पर "फिल्म प्रेमी बच्चों का क्लब" नामक एक समूह बनाया, जहाँ लोग अपनी देखी हुई फिल्मों का अनुभव और सीख साझा करते थे।

           समूह में रोहित की सक्रियता और प्रेरणादायक कहानियों ने बच्चों को खूब प्रभावित किया। वे भी रोहित की तरह आत्मविश्वास से भरे हुए महसूस करने लगे। रोहित ने बच्चों को सिखाया कि अवकाश के क्षणों का सही उपयोग कैसे किया जाता है। रोहित के लिए, फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं थीं, बल्कि जीवन जीने का एक तरीका थीं। एक दिन, रोहित के क्लब के एक सदस्य, रिया ने बताया कि उसे सार्वजनिक मंच पर बोलने से डर लगता है। रोहित ने उसे प्रेरित किया और उसे एक प्रेरक फिल्म दिखाई, जिसमें एक लड़की अपनी इसी कमजोरी पर विजय प्राप्त करती है। रिया फिल्म देखकर बहुत प्रभावित हुई और अगले दिन उसने स्कूल में एक कार्यक्रम में आत्मविश्वास से भाषण दिया। रोहित का क्लब बहुत लोकप्रिय हो गया। धीरे-धीरे क्लब में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी।

           इस घटना ने रोहित को बहुत खुशी दी। उसे एहसास हुआ कि फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन बदलने का भी साधन हो सकती हैं। रोहित ने अपना क्लब चलाना जारी रखा और बच्चों को प्रेरित करने के लिए नई-नई प्रेरणादायक फिल्मों के बारे में जानकारी साझा करता रहा। 

    तो यह थी कहानी रोहित की जो हमें सिखाती है कि अवकाश के क्षणों का सही उपयोग कैसे किया जाता है। रोहित ने अपने खाली समय का उपयोग एक स्वस्थ मनोरंजन के लिए किया था जिसने उसके जीवन की दिशा ही बादल दी। उसने अपने अनुभवों का प्रयोग न केवल खुद को बेहतर बनाने के लिए बल्कि दूसरों को प्रेरित करने के लिए भी किया। अंत में संदेश इतना ही कि 'फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं, जीवन जीने का तरीका भी सिखाती हैं।'

    आप भी इसी तरह के कोई न कोई शौक अवश्य रखते होंगे। अपने शौक को अपना जुनून बनाइए। जिससे आप न केवल अपनी बल्कि दूसरों की जीवन को भी महकाइए! उम्मीद है आपको लेख पसंद आया होगा। यदि अच्छा लगा हो तो अपनी राय नीचे कॉमेंट करना ना भूलें। 



    मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

    लेख और आलेख लेखन

    लेख किसे कहते हैं?

    लेख एक ऐसा लिखित कार्य है जिसमें लेखक अपने विचारों, ज्ञान और अनुभवों को व्यक्त करते हैं। इसमें विभिन्न विषयों पर लिखा जाता है, जो ज्ञान, संवेदनशीलता, और अभिव्यक्ति को बढ़ावा देते हैं। लेख में विचार, दृष्टिकोण, सिद्धांत या कुछ अन्य बातों को लेखक द्वारा व्यक्त किया जाता है।

    लेख विभिन्न विषयों पर लिखा जाता है, जैसे कि समाचार, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य, व्यापार, राजनीति, सामाजिक मुद्दे आदि। लेख विभिन्न साधनों के द्वारा प्रकाशित किया जा सकता है, जैसे अखबार, पत्रिका, ब्लॉग, इंटरनेट साइट आदि।

    लेख का मुख्य उद्देश्य व्यापक रूप से जागरूकता पैदा करना, समझ बढ़ाना, दूसरों को अपनी सोच विवरण दर्शाना, विचारों और अभिव्यक्ति कौशल का विकास करना और सामान्य जनता को सकारात्मक तरीके से प्रभावित करना होता है।

    आलेख किसे कहते हैं?

    आलेख एक लेखन विधा है जिसमें लेखक एक विषय के बारे में अपने विचार व्यक्त करता है और इसका उद्देश्य उन विचारों को समझाना और जागरूकता पैदा करना होता है। आलेख एक संबोधन होता है जिसमें लेखक उन लोगों को संदेश देता है जो उस विषय के बारे में अधिक जानना चाहते हैं।

    आलेख विषय के बारे में गहन जानकारी प्रदान करता है और उसमें विभिन्न तरह के तथ्य, संदर्भ और उदाहरणों का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, आलेख विषय के विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है और अपनी दृष्टिकोण दर्शाता है। इसके लिए, लेखक अपनी सोच और विचारों को व्याख्यात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है ताकि पाठक उन विचारों को अच्छी तरह से समझ सकें।

    आलेख एक अधिक विस्तृत, विशेष विषय पर लिखा जाता है जो उन लोगों के लिए उपयोगी होता है जो उस विषय के बारे में अधिक जानना चाहते हैं। इसका उद्देश्य जागरूकता पैदा करना होता है 

    लेख और आलेख में क्या अंतर हैं?

    लेख" और "आलेख" दोनों शब्दों का हिंदी में उपयोग होता है। दोनों का अर्थ लगभग समान होता है, लेकिन इनमें थोड़ा अंतर होता है।

    "लेख" शब्द एक विस्तृत लिखित कथन होता है जो आमतौर पर किसी विषय पर लिखा जाता है। इसमें विस्तारपूर्वक एक विषय या मुद्दे को उठाया जाता है, उसके बारे में विस्तार से विचार किया जाता है और उसके बारे में ज्ञान या तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं।

    वहीं, "आलेख" शब्द एक संक्षिप्त लिखित कथन होता है जो किसी विषय पर लिखा जाता है। इसमें एक विषय या मुद्दे के बारे में संक्षेप में लिखा जाता है और उसके बारे में व्याख्या दी जाती है। आमतौर पर, एक आलेख एक अधिक व्यक्तिगत दृष्टिकोण या विचारों को प्रतिबिंबित करता है जबकि लेख अधिक निष्पक्ष होता है।

    संक्षेप में, "लेख" एक विस्तृत और निष्पक्ष लिखित कथन होता है जो एक विषय या मुद्दे को उठाता है, जबकि "आलेख" एक संक्षिप्त लिख

    एक अच्छे आलेख में कुछ महत्वपूर्ण अंश होते हैं जो उसे संपूर्ण बनाते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण अंश निम्नलिखित हैं:

    1. शीर्षक: एक अच्छे आलेख का शीर्षक संवेदनशील होता है और पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है। इसलिए, शीर्षक को लेखक का ध्यान आकर्षित करने वाला होना चाहिए।
    2. परिचय: परिचय में आलेख का विषय और इसकी महत्ता का वर्णन होता है। एक अच्छे परिचय से पाठक का ध्यान आकर्षित होता है और वह आलेख के बारे में अधिक जानने को उत्सुक होता है।
    3. मुख्य भाग: आलेख का मुख्य भाग इसके बाकी भागों से अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसमें विषय की विस्तृत व्याख्या, उदाहरण और तथ्यों का समर्थन होना चाहिए। लेखक को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपनी बात को स्पष्ट और समझाया गया हो।
    4. निष्कर्ष: एक अच्छे आलेख का निष्कर्ष इसके महत्वपूर्ण अंशों में से एक होता है। यह उस बात का सार होता है जिसे आलेख ने बताया है। 

    रविवार, 11 फ़रवरी 2024

    अतुल्य भारत ! : पर्यटनसे बनता समृद्ध भारत

    "अतुल्य भारत" के रूप में जाना जाने वाला हमारा देश, एक ऐसा देश है जो अपनी असाधारण विविधता, प्राचीन इतिहास, जीवंत संस्कृति और लुभावने परिदृश्यों से अपने यहाँ आने वाले सैलानियों को सदा से ही आकर्षित करता रहा है। उत्तर की हिमाच्छादित पर्वत शृंखला से लेकर दक्षिण में ताड़ के पेड़ों से घिरे समुद्र तटों तक, और हलचल भरे शहरों से लेकर मन को सुकून देने वाले ग्रामीण अंचलों तक, भारत अनुभवों का एक बहुरूप दर्शक प्रदान करता है जो आगंतुकों को भवविभोर कर देता है।

    भारत के पर्वतीय स्थल 

    इस ब्लॉग पोस्ट में, हम अविश्वसनीय सुंदरता, परंपराओं और आकर्षणों की खोज के लिए एक यात्रा पर निकलेंगे जो भारत को वास्तव में गहन और परिवर्तनकारी अनुभव चाहने वाले यात्रियों के लिए एक जरूरी गंतव्य बनाती है।

    सांस्कृतिक चमत्कार:

    ताज महल: आगरा में प्रतिष्ठित ताज महल को देखकर आश्चर्यचकित हो जाइए, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल और दुनिया के नए सात आश्चर्यों में से एक है। सफेद संगमरमर का मकबरा वास्तुकला की उत्कृष्ट कृति और शाश्वत प्रेम का प्रतीक है।

    जयपुर का गुलाबी शहर: अपने शानदार महलों, हलचल भरे बाज़ारों और विस्मयकारी अंबर किले के साथ जीवंत गुलाबी शहर जयपुर का अन्वेषण करें। अपने आप को समृद्ध राजस्थानी संस्कृति और विरासत में डुबो दें।

    आध्यात्मिक यात्राएँ:

    वाराणसी: वाराणसी में भारत के आध्यात्मिक हृदय का अनुभव करें, जहां पवित्र गंगा नदी बहती है। मंत्रमुग्ध कर देने वाले गंगा आरती समारोह के साक्षी बनें, सूर्योदय के समय नाव की सवारी करें और पुराने शहर की संकरी गलियों का पता लगाएं।

    ऋषिकेश: विश्व की योग राजधानी, ऋषिकेश में सांत्वना और आध्यात्मिक ज्ञान की तलाश करें। योग और ध्यान रिट्रीट में भाग लें, पवित्र नदी के तट पर आत्मा-रोमांचक गंगा आरती में भाग लें और शांत आश्रमों का पता लगाएं।

    द्वीप यात्राएँ:

    अंडमान और निकोबार द्वीप समूह: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के प्राचीन सफेद रेतीले समुद्र तटों, क्रिस्टल-स्पष्ट फ़िरोज़ा पानी और जीवंत समुद्री जीवन का अन्वेषण करें। स्नोर्कल या मूंगा चट्टानों में गोता लगाएँ, एकांत समुद्र तटों पर आराम करें, और स्वदेशी लोगों की अनूठी जनजातीय संस्कृतियों की खोज करें।

    लक्षद्वीप द्वीप समूह: आश्चर्यजनक मूंगा द्वीपों के समूह, लक्षद्वीप द्वीप समूह की अछूती सुंदरता में डूब जाएँ। स्नॉर्कलिंग, स्कूबा डाइविंग और कायाकिंग जैसी जल गतिविधियों का आनंद लें, या शांत नीले पानी से घिरे धूप में डूबे समुद्र तटों पर आराम करें।

    प्राकृतिक चमत्कार:

    केरल बैकवाटर: एक पारंपरिक हाउसबोट में केरल के शांत बैकवाटर के साथ यात्रा करें, जो हरे-भरे परिदृश्य, धान के खेतों और नारियल के पेड़ों से घिरा हुआ है।

    रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान: रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में एक रोमांचक वन्यजीव सफारी पर जाएं, जो राजसी बंगाल बाघों के साथ-साथ वनस्पतियों और जीवों की कई अन्य प्रजातियों का घर है।

    पाक संबंधी प्रसन्नता:

    स्ट्रीट फूड पैराडाइज: भारत की जीवंत स्ट्रीट फूड संस्कृति का आनंद लें। हलचल भरे बाजारों और संकरी गलियों में समोसा, चाट और वड़ा पाव जैसे स्वादिष्ट स्नैक्स का आनंद लें।

    क्षेत्रीय व्यंजन: दक्षिण भारत की मसालेदार करी से लेकर उत्तर के समृद्ध मुगलई व्यंजनों तक, भारत के विविध क्षेत्रीय व्यंजनों का आनंद लें। बटर चिकन, बिरयानी, डोसा और मसाला चाय जैसे पारंपरिक व्यंजनों को आज़माना न भूलें।

    त्यौहार और उत्सव:

    दिवाली: रोशनी के त्योहार दिवाली का अनुभव करें, जहां पूरा देश दीयों, आतिशबाजी और रंगीन सजावट से जगमगाता है।

    होली: रंगों के त्योहार होली के उल्लासपूर्ण उत्सव में शामिल हों, जहां लोग बुराई पर अच्छाई की जीत का संकेत देने के लिए एक-दूसरे को जीवंत रंगों से सराबोर करते हैं।

    निष्कर्ष:

    भारत, अपने इतिहास, संस्कृति, आध्यात्मिकता और प्राकृतिक सुंदरता की समृद्ध टेपेस्ट्री के साथ, इसके विविध आश्चर्यों में डूबने की इच्छा रखने वाले यात्रियों के लिए एक अविस्मरणीय यात्रा प्रदान करता है। ताज महल जैसे वास्तुशिल्प चमत्कारों से लेकर वाराणसी में आध्यात्मिक अनुभवों तक, शांत बैकवाटर से लेकर रोमांचकारी वन्यजीव मुठभेड़ों तक, और मुंह में पानी लाने वाले व्यंजनों से लेकर जीवंत त्यौहारों तक, भारत एक ऐसा देश है जो आने वाले लोगों पर एक अमिट छाप छोड़ने में कभी असफल नहीं होता है। जब आप इस मंत्रमुग्ध कर देने वाले राष्ट्र की अविश्वसनीय गहराइयों का पता लगाएंगे तो चकित होने, चुनौती देने और रूपांतरित होने के लिए तैयार रहें।


    अन्य स्रोत सामग्री:- 

    शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

    भारतीय फिल्म और हिन्दी साहित्य : साहित्य और कला का संगम


    हिन्दी फिल्म और साहित्य के बीच संबंध ऐतिहासिक रूप से गहरा और प्रभावशाली रहा है। दोनों क्षेत्र एक दूसरे को प्रेरित करते हैं, उन्नति में सहायक होते हैं और आपसी संवाद में नए रंगों को लाते हैं। हिन्दी साहित्य ने हमेशा से हिन्दी फिल्मों को आलंबित किया है। कई विशेषज्ञों ने "साहित्य बज़ार" के रूप में समझा है, जो फिल्म उत्पादन को प्रेरित करता है और कथा निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिल्म निर्माता और निर्देशक आमतौर पर प्रसिद्ध कविताएं, कहानियाँ, या नाटकों से प्रेरित होते हैं। उन्होंने कभी-कभी किसी उपन्यास या कहानी को अपनी फिल्म की आधारशिला बनाया है।

    साहित्यिक धाराओं और किस्सों का अध्ययन करके, निर्देशक और लेखक नए और रोमांचक कथाओं का निर्माण करने के लिए प्रेरित होते हैं। उन्हें समाजिक, राजनीतिक, और मानवीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भी प्रेरित किया जाता है, जैसा कि साहित्य में होता है। फिल्म भी साहित्य से प्रभावित होती है। किसी विशेष उपन्यास या कहानी के आधार पर बनाई गई फिल्में उसकी विशेषता और आधुनिकता को साझा करती हैं। इसके अलावा, साहित्य की रचनाओं से लेकर उनके संदेशों और विचारों को फिल्मों के माध्यम से बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुंचाया जा सकता है।

    जब भी हिन्दी साहित्य और फिल्म के बीच एक संवाद स्थापित होता है, तो नए और अनूठे कला के रंग उत्पन्न होते हैं। यह जुगलबंदी समृद्धि, समाजिक परिवर्तन, और मनोरंजन के क्षेत्र में नए द्वार खोलती है। सार्वजनिक रूप से, हिन्दी फिल्म और साहित्य की यह जुगलबंदी भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करती है, और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करती है। इस जुगलबंदी का प्रभाव साहित्य और फिल्म के श्रोताओं के जीवन में महसूस किया जा सकता है, जिससे समाज में साहित्य और कला की महत्वपूर्ण भूमिका को और भी मजबूत किया जा सकता है।
    अन्य स्रोत सामग्री -

    1. प्रेमचंद और सिनेमा
    2. हिंदी साहित्य और सिनेमा में क्या संबंध है?
    3. सिनेमा के साथ भी रहा है प्रेमचंद का रिश्ता
    4. प्रेमचंद का साहित्य और सत्यजीत रे का सिनेमा
    5. भारतीय सिनेमा और साहित्य की रोचक जानकारियां
    6. मुंसीप्रमचंद का साहित्य समाज के आइने की तरह है

    चित्र वर्णन

    चित्र का अवलोकन करके उसमें वर्णित बातों को अपने शब्दों में लिखने को 'चित्र-वर्णन' कहते हैं। 

    अभ्यास 1) नीचे दिए गए चित्र को ध्यानपूर्वक देखकर उसे अपने शब्दों में वर्णित कीजिए। आपके वर्णन में निम्नलिखित बिन्दुओं को अवश्य शामिल करें - 

    • चित्र का मुख्य विषय
    • लोग क्या कर रहें हैं?
    • आपके कोई सुझाव 
    आपका लेखन 120 शब्दों से अधिक नहीं होना चाहिए। विषय वस्तु के लिए 3 अंक और उचित भाषा और वाक्य रचना के लिए 5 अंक देय होंगे। 

    शब्दावली - 
    उत्तर -  दिए गए चित्र में मोबाइल के दुष्प्रभावों को दर्शाया गया है। इसमें एक भारतीय संयुक्त परिवार है, जो किसी धार्मिक अथवा सांस्कृतिक आयोजन पर सहभोज (दावत) के लिए इकट्ठा हुआ है। यहाँ सभी उम्र के नारी-नर उपस्थित हैं। वे सभी कुर्सियों पर बैठे हैं। सभी ने भारतीय पारंपरिक पहनावे पहने रखे हैं। बूढ़े पुरुष ने कुर्ता-धोती और सदरी पह रखी है, महिलाएं भारतीय साड़ी पहनी हैं। युवक-युवतियाँ आधुनिक भारतीय पोशाकें पहने हैं। जबकि बच्चे भी पारंपरिक पोशाकों में हैं। मेज पर सभी के लिए पारंपरिक पकवान रखें हैं।
       आश्चर्य की बात तो यह है कि चित्र का दृश्य जहाँ भारतीय संस्कृति का बोध करता हैं वहीं सभी के हाथ में भ्रमणध्वनि (मोबाइल) डिजिटल युग का बोध करता है। सभी अपने-अपने भ्रमणध्वनियों पर सामाजिक मीडिया में ऐसे खोये हैं कि उन्हें आस-पास की दुनिया की चिंता की नहीं है। उनके सामने रखे ताजे और स्वादिष्ट भोजन का उन्हें भान तक नहीं है।
       इन सभी को मोबाइल और सामाजिक मीडिया की ऐसी लत लगी है कि संयुक्त परिवार में रहने के बावजूद इनमें आपसी प्रेम का रंच मात्र भी संस्कार नहीं रह गया है। बच्चे खेल-कूद और पढ़ाई की उम्र में जिस तरह से मोबाइलों में व्यस्त हैं शीघ्र ही यदि ये मानसिक रूप से बीमार हो जाय तो कोई आश्चर्य न होगा। इनके अभिभावक न केवल इनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर अरहे हियन बल्कि इनके भविष्य को भी चौपट कर रहे हैं। जिन्हें अपने बच्चों को समझाना चाहिए वे स्वयं मोबाइल में खोएँ हैं। निश्चित ही ये भी जल्द तनाव, अवसाद और कई मानसिक रोगों के शिकार हो सकते हैं। 
       भला! ये अपनी भावी पीढ़ी को क्या शिक्षा और संस्कार देंगे?   


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