चलो न, कहीं घूम आते हैं…
पॉडकास्ट (मोनोलॉग) · “चलो न, कहीं घूम आते हैं”
कभी-कभी मन बड़ा अजीब होता है। कहता है - “कुछ मत सोचो… बस निकल चलो।” मगर हम? हम उल्टा करते हैं - सब सोचते हैं, और कहीं नहीं जाते।
आज सुबह मैं खिड़की के पास खड़ा था। सड़क पर हवा चल रही थी… और पत्ते ऐसे उड़ रहे थे जैसे किसी ने उन्हें कहा हो - “चलो न, कहीं घूम आते हैं…!”
तभी मुझे लगा… क्या हम इंसान पत्तों से भी कम आज़ाद हो गए हैं? हमारी ज़िंदगी कैलेंडर में फँस गई है - मीटिंग, असाइनमेंट, जिम्मेदारियाँ। लेकिन मन फिर भी धीमे से कहता है - “चलो न, कहीं घूम आते हैं…!”
कहीं दूर नहीं, बस थोड़ा अलग
जगह बहुत बड़ी नहीं होनी चाहिए। वही पुराना पार्क, जहाँ बचपन में हँसते थे… या मोहल्ले वाली चाय की दुकान, जहाँ हर कप एक कहानी देती है।
कभी यूँ ही सड़क पर टहलना - बिना किसी लक्ष्य के। दुनिया अचानक खूबसूरत दिखती है… जब आप जल्दी में नहीं होते।
हम सोचते हैं घूमने के लिए पैसे चाहिए… असल में चाहिए बस एक बहाना।
यात्रा बाहर की नहीं, भीतर की भी होती है
घूमना एक एहसास है। दुनिया से नहीं, खुद से मिलने का तरीका।
समुद्र की लहरें कहती हैं - ज़िंदगी आती है, जाती है, पर हर बार कुछ नया थमा जाती है। पहाड़ बताते हैं - आपकी समस्या जितनी भी बड़ी हो, दुनिया उससे बड़ी है।
अंत में… बस इतना
तो आज अगर कोई कहे - “चलो न, कहीं घूम आते हैं…!” तो जगह मत पूछिए। बस कहिए - “हाँ, चलो।”
शायद आप कोई पहाड़, कोई समुद्र न देखें… लेकिन बहुत संभव है कि आप खुद को देख लें।
और कभी-कभी अपने आप से मिल लेना भी एक खूबसूरत यात्रा होती है।
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