यह पंक्ति आज के डिजिटल युगतकनीक और इंटरनेट का समय में चमकती स्क्रीन के पीछे की उस गहरी सच्चाई को उजागरप्रकट करना, सामने लाना करती है, जो सोशल मीडिया के असंख्य मंचों पर हम रोज़ अपनी झलक तलाशते हैं, पर हर मंच एक टुकड़ा हमें थोड़ा और खंडितटुकड़ों में बंटा हुआ करता दिखाई देता है। आज जब हर व्यक्ति अपनी 'ऑनलाइन पहचान' के सौ रूप गढ़ चुका है, तब यह सवाल और भी तीखा हो गया है कि क्या वाकई वह जुड़ा हुआ है, या सिर्फ वर्चुअलआभासी, नकली संवादों के बीच धीरे-धीरे अकेला होता जा रहा है।
सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्सप्रभावशाली व्यक्ति, जो सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हैं—जिनके करोड़ों फॉलोवर्स हैं, जिनकी हर तस्वीर पर लाखों दिल धड़कते हैं—वास्तव में इस आभासीकाल्पनिक, वास्तविक नहीं दुनिया के सबसे बड़े एकाकी यात्री बन चुके हैं। बाहरी सफलता की चमक जितनी तेज़ है, भीतर की तन्हाई उतनी ही गहरी। उन्हें हर दिन "परफेक्ट" दिखना होता है, नई रील, नई पोस्ट, नया कंटेंट देना होता है—क्योंकि एल्गोरिदमसोशल मीडिया की गणना प्रणाली और दर्शकों की चाहतें कभी नहीं थमतीं। मगर यह निरंतरता धीरे-धीरे मानसिक थकान, असुरक्षा और अवसाद में बदल जाती है। अध्ययन बताते हैं कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग अकेलेपन, चिंता और उदासी से जुड़ा हुआ है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, लोकप्रियता का दबाव और निरंतर प्रदर्शन की अपेक्षा, कंटेंट क्रिएटर्स में मानसिक असंतुलन के जोखिम को कई गुना बढ़ा देती है।
भारत में इन्फ्लुएंसर उद्योग तेजी से फैल रहा है—2020 में जहां लगभग दस लाख इन्फ्लुएंसर्स थे, वहीं 2024 तक यह आंकड़ा चालीस लाख से अधिक हो चुका है। लेकिन इस विकास के साथ बढ़ी है 'डिजिटल बर्नआउटतकनीक के अत्यधिक उपयोग से थकावट' की समस्या। लाखों लोगों की प्रशंसा के बीच वे अपनी ही पहचान खोने लगते हैं। स्क्रीन पर मुस्कराहट अनिवार्य है, लेकिन कैमरा बंद होते ही वही चेहरा अक्सर शून्यता में घूरता रह जाता है। एक अध्ययन में पाया गया कि यदि सोशल मीडिया का उपयोग घटाकर प्रति प्लेटफॉर्म दस मिनट प्रतिदिन कर दिया जाए, तो अवसाद और अकेलेपन के लक्षण तीन हफ्तों में घटने लगते हैं। यह आंकड़ा इस बात का प्रमाण है कि जुड़ाव की अधिकता हमेशा संतोष नहीं लाती; कभी-कभी यह आत्मविस्मृतिस्वयं को भूल जाना का कारण बन जाती है।
कई लोकप्रिय चेहरों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि वे अवसाद, नींद की कमी, और आत्म-संदेह जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। कुछ ने तो अपने कमरे में अकेले जीवन समाप्त करने का रास्ता भी चुना—यह त्रासदीदुखद घटना इस बात की याद दिलाती है कि सोशल मीडिया पर मौजूद करोड़ों "फॉलोवर्स" किसी के भी वास्तविक साथी नहीं बन सकते। वे प्रशंसक हैं, हमदर्द नहीं। वे लाइक कर सकते हैं, पर साथ नहीं दे सकते। यह एक ऐसी दुनिया है, जहाँ हर कोई जुड़ा दिखता है पर भीतर से अलग-थलग है।
असल संकट यह है कि सोशल मीडिया ने आत्म-मूल्यअपने बारे में विचार और महत्व का पैमाना बदल दिया है। अब आत्मविश्वास का आधार अपनी प्रतिभा नहीं, बल्कि दूसरों की प्रतिक्रिया बन चुका है। जो व्यक्ति खुद के मूल्य को लाइक्स और व्यूज़ में तौलने लगता है, वह अंदर से धीरे-धीरे खोखला होता जाता है। आत्म-स्वीकृति के अभाव में वह बाहरी स्वीकृति की तलाश में अपने सच्चे स्वरूप से दूर चला जाता है। इसी द्वंद्वदुविधा, मन की उलझन में जन्म लेती है वह तन्हाई—जो शोर के बीच भी मौन रहती है, और रौशनी के बीच भी अंधेरी लगती है।
नए प्रशंसकों के लिए यह जरूरी है कि वे इस चमक के पीछे की सच्चाई को पहचानें। हर पोस्ट, हर मुस्कराहट, हर हैशटैग के पीछे एक इंसान है—थका हुआ, डरा हुआ, या शायद उम्मीद से भरा हुआ। सोशल मीडिया की दुनिया सिर्फ प्रेरणा का मंच नहीं, एक गहरी जिम्मेदारी भी है। यदि हम किसी इन्फ्लुएंसर को पसंद करते हैं, तो उसकी इंसानियत को भी स्वीकारें—उसकी कमजोरियों को, उसकी थकान को, उसके सच को। क्योंकि हर चमकीले फ्रेम के पीछे एक धुंधली कहानी होती है, जो कहती है—"एक में भी तन्हा थे, सौ में भी अकेले हैं।"
यह लेख उस सच्चाई का आईना है, जो हमें दिखाता है कि कनेक्शन की अधिकता भी कभी-कभी सबसे बड़ी दूरी बन जाती है। आभासी दुनिया का यह शोर भले ही हमें "वायरल" बना दे, पर आत्मा को शांत नहीं कर सकता। इसलिए शायद अब समय है कि हम अपने जीवन के कुछ आइनों को समेटें—और एक बार फिर अपने असली चेहरे से मिलने की कोशिश करें।
💭 विचारणीय प्रश्न
मुख्य कारण: सोशल मीडिया पर मिलने वाली लोकप्रियता और लाइक्स वास्तविक मानवीय संबंध नहीं होते। इन्फ्लुएंसर्स को लगातार 'परफेक्ट' दिखना होता है, जो उनकी असली पहचान को छिपा देता है। करोड़ों फॉलोवर्स होने के बावजूद, वे अपने सच्चे मन की बात किसी से नहीं कर पाते। यह बाहरी चमक और आंतरिक खालीपन का द्वंद्व है।
डिजिटल बर्नआउट: यह सोशल मीडिया और तकनीक के अत्यधिक उपयोग से होने वाली मानसिक और भावनात्मक थकान है। लगातार कंटेंट बनाने, एल्गोरिदम को खुश रखने, और दर्शकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव व्यक्ति को अंदर से खोखला कर देता है। भारत में इन्फ्लुएंसर्स की संख्या 2020 में 10 लाख से बढ़कर 2024 में 40 लाख हो गई है, जिससे यह समस्या और बढ़ी है।
बदलाव: पहले लोग अपनी प्रतिभा, कौशल और आंतरिक गुणों से अपना मूल्य तय करते थे। अब लाइक्स, कमेंट्स, फॉलोवर्स और व्यूज़ ही आत्मविश्वास का आधार बन गए हैं। यह बाहरी स्वीकृति पर निर्भरता व्यक्ति को अपने असली स्वरूप से दूर कर देती है और मानसिक अस्थिरता का कारण बनती है।
शोध के अनुसार: हाँ, अध्ययनों से पता चला है कि यदि सोशल मीडिया का उपयोग प्रति प्लेटफॉर्म केवल 10 मिनट प्रतिदिन कर दिया जाए, तो मात्र 3 हफ्तों में अवसाद और अकेलेपन के लक्षणों में कमी आने लगती है। यह साबित करता है कि डिजिटल दूरी बनाना मानसिक शांति के लिए जरूरी है।
प्रतीकात्मक अर्थ: यह सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स का प्रतीक है। हर प्लेटफॉर्म पर व्यक्ति अपनी एक अलग छवि बनाता है—Instagram पर अलग, Facebook पर अलग, Twitter पर अलग। यह खंडित पहचान व्यक्ति को अपने असली स्वरूप से दूर कर देती है। भले ही सौ जगह हों, पर हर जगह वह अकेला और तन्हा ही रहता है।
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