मंगलवार, 19 अगस्त 2025

बाजारीकरण और विज्ञापन में छिपा है, मिलावट का जहर!

मिलावट की समस्या और समाज पर उसका प्रभाव | Indicoach

मिलावट की समस्या और समाज पर उसका प्रभाव

बाज़ारीकरण की आंधी में उपभोक्ता चमचमाते विज्ञापनों और बड़े-बड़े ब्रांडों के मोहपाश में जकड़ा हुआ है। हर पैकेट, हर बोतल, हर विज्ञापन में "100% शुद्ध", "प्राकृतिक", "ताजा", "ऑर्गेनिक" "स्वास्थ्यवर्धक" जैसे शब्द गूँजते हैं, परंतु जब प्रयोगशालाओं की रिपोर्ट सामने आती है तो सच चौंकाने वाला होता है। मसाला उत्पादों में एथिलीन ऑक्साइड1 पाए गए हैं, जिन्हें 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' की अंतर्राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान एजेंसी ने *मानव के लिए कैंसरकारी* माना है। ब्रिटेन और हांगकांग में इन मसालों की जाँच और प्रतिबंध उपभोक्ताओं के लिए आँखें खोलने वाला संकेत है।

डब्बाबंद और परिष्कृत खाद्य के माध्यम पहुंचता जहर
परिवारों में डब्बाबंद और परिष्कृत खाद्य के माध्यम से पहुंचता जहर

फल-सब्ज़ियों की स्थिति भी अलग नहीं। बाज़ार में चमकीले, आकर्षक दिखने वाले आम, केले और सेब अकसर कैल्शियम कार्बाइड2 या एथिफ़ोन से पकाए जाते हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह साबित हो चुका है कि इससे आर्सेनिक और फॉस्फ़ोरस जैसी अशुद्धियाँ निकलती हैं, जो पाचन और श्वसन तंत्र को भारी नुकसान पहुँचाती हैं। बच्चों के स्नैक्स (नमकीन, चिप्स, बिस्कुट और मिठाइयों में Rhodamine-B3 जैसे ख़तरनाक रंग पाए जाने की घटनाएँ बताती हैं कि आकर्षक रंगों की आड़ में हम पर गंभीर स्वास्थ्य संकट मंडरा रहा है।

"शुद्ध शहद" और "पवित्र दूध" जैसे दावों का हाल और भी गंभीर है। 2020 की एक व्यापक जाँच में अनेक बड़े ब्रांडों के शहद में उच्च तकनीकी शर्करा-सिरप (चीनी का सीरा) की मिलावट सामने आई4, जिसे सामान्य घरेलू परीक्षण से पकड़ना संभव ही नहीं था। इसी प्रकार दूध और तेलों के नमूनों में शैंपू, डिटर्जेंट, यूरिया और हाइड्रोजन पेरॉक्साइड तक पाए गए5, जबकि यह हृदय रोगों के प्रमुख कारक ट्रांस-फ़ैट6 को नियंत्रित करने के लिए भारत ने 2% की सीमा निर्धारित की है। इन तथ्यों से साफ़ है कि उपभोक्ता जिस पर सबसे अधिक भरोसा करता है, वही कभी-कभी उसके स्वास्थ्य पर सबसे बड़ा प्रहार करता है।

वास्तविकता यही है कि मिलावट केवल जेब पर भार नहीं डालती बल्कि जीवन की साँसों पर भी चोट करती है। विज्ञापनों में दिखने वाले मुस्कुराते परिवार और चमकते उत्पाद असल में अस्पताल के बिस्तरों तक की यात्रा का कारण बन रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि उपभोक्ता भ्रामक विज्ञापन की चमक पर नहीं, बल्कि वैज्ञानिक जाँच और प्रमाणिक आंकड़ों पर विश्वास करना सीखे। अब प्रश्न यही उठता है, क्या हम स्वाद और ब्रांडिंग के बहकावे में अपने स्वास्थ्य को दाँव पर लगाते रहेंगे, या एक जागरूक उपभोक्ता बनकर हर ख़रीद से पहले यह पूछेंगे: "दावा नहीं, तथ्य (डेटा) कहाँ है?"

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