बुधवार, 29 नवंबर 2023

भारतीय भोजन पद्धति: सभ्यता, संस्कृति और परंपरा का अनूठा संगम

पत्तल में परोसा पारंपरिक भारतीय व्यंजन 
भारत एक विशाल, बहु-धर्मी और बहु-सांस्कृतिक देश है। दुनिया भर में भारतीय भोजन अपने चटक रंग, अनूठे स्वाद और विविधता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ भोजन ग्रहण पद्धति भी इसी विविधता का प्रतिबिंब है। भारतीय भोजन ग्रहण करने की पद्धति में कई अलग-अलग तत्व शामिल हैं, जिनमें भोजन का प्रकार, भोजन के साथ परोसे जाने वाले व्यंजन, भोजन की तैयारी, और भोजन के दौरान होने वाली परंपराएं शामिल हैं।

भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:

  • सांस्कृतिक महत्व: भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह परिवार और समुदाय के साथ एक साथ आने का एक अवसर प्रदान करती है। भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति में कई पारंपरिक परंपराएं शामिल हैं, जैसे कि भोजन के पहले हाथ धोना, भोजन के दौरान धन्यवाद देना, और भोजन के बाद हाथ धोना। ये परंपराएं भारतीय संस्कृति की विरासत को बनाए रखने में मदद करती हैं।
  • स्वास्थ्य संबंधी लाभ: भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति स्वस्थ आहार का एक अच्छा उदाहरण है। भारतीय भोजन में आमतौर पर सब्जियां, दालें, और साबुत अनाज होते हैं। ये सभी पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। भारतीय भोजन में आमतौर पर कम वसा और चीनी भी होती है।
  • पर्यावरणीय लाभ: भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है। भारतीय भोजन में आमतौर पर स्थानीय रूप से उत्पादित भोजन का उपयोग किया जाता है। इससे भोजन की परिवहन लागत कम होती है, जिससे प्रदूषण कम होता है। भारतीय भोजन में आमतौर पर कम मांस का उपयोग किया जाता है। मांस उत्पादन पर्यावरण के लिए हानिकारक होता है।

भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति के कुछ विशिष्ट तत्वों के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:

  • भोजन का प्रकार: भारतीय भोजन में आमतौर पर सब्जियां, दालें, और साबुत अनाज होते हैं। ये सभी पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। सब्जियां विटामिन, खनिज, और फाइबर का एक अच्छा स्रोत हैं। दालें प्रोटीन का एक अच्छा स्रोत हैं। साबुत अनाज कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत हैं।
  • भोजन के साथ परोसे जाने वाले व्यंजन: भारतीय भोजन में आमतौर पर कई अलग-अलग व्यंजन परोसे जाते हैं। ये व्यंजन अक्सर एक दूसरे के पूरक होते हैं। उदाहरण के लिए, एक सब्जी व्यंजन अक्सर एक दाल व्यंजन के साथ परोसा जाता है। यह एक संतुलित आहार प्रदान करता है।
  • भोजन की तैयारी: भारतीय भोजन आमतौर पर ताजे और मौसमी अवयवों से तैयार किया जाता है। यह भोजन को अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक बनाता है। भारतीय भोजन में आमतौर पर कम तेल और मसालों का उपयोग किया जाता है। यह भोजन को स्वस्थ बनाता है।
  • भोजन के दौरान होने वाली परंपराएं: भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति में कई पारंपरिक परंपराएं शामिल हैं। ये परंपराएं भोजन को एक अधिक आनंददायक और सांस्कृतिक अनुभव बनाती हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय भोजन ग्रहण करने से पहले हाथ धोना आमतौर पर माना जाता है। यह स्वच्छता और सम्मान का प्रतीक है।

भारतीय भोजन ग्रहण पद्धति एक समृद्ध और विविध परंपरा है। यह भारतीय संस्कृति, स्वास्थ्य, और पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा तरीका है जिससे हम अपने परिवार और समुदाय के साथ एक साथ आ सकते हैं, स्वस्थ भोजन कर सकते हैं, और पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं। 

अन्य स्रोत सामग्री

  1. भारतीय खान-पान: एक समृद्ध परम्परा

मंगलवार, 28 नवंबर 2023

पर्यावरण के साथी पक्षियों का अनोखा संसार

पक्षी प्रेमी 
पृथ्वी पर पक्षियों का एक विशाल संसार है। क्या अपने आस-पास अथवा घरों की खिड़कियों पर अथवा छत्तों की मुंडेर पर कभी किसी पक्षी के चहचहाने की आवाज कभी नहीं सुनी है? अगर ऐसा है तो आप पक्षियों के एक बहुत सुंदर संसार से अछूते हैं दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। ये पक्षी विभिन्न आकारों, रंगों और आवासों में रहते हैं। क्या आप जानते हैं कि सभी पक्षी हमारे लिए एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी निभाते हैं, और वह यह है कि वे पर्यावरण के रक्षक होते हैं।
पक्षी पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। वे परागण, बीज प्रसार, कीट-नियंत्रण और भोजन श्रृंखला में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पक्षी परागणकों के रूप में पौधों को प्रजनन में मदद करते हैं। वे बीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैलाने में भी मदद करते हैं, जिससे उन बीजों से नए पौधे नए स्थान उग सकते हैं। पक्षी कीटों के नियंत्रित में अहम भूमिका निभाते हैं, जो पौधों और अन्य जीवों के लिए हानिकारक हो सकते हैं। इसीलिए पक्षियों को 'किसानों का मित्र' कहा जाता है। पक्षी भोजन श्रृंखला बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मांसाहारी और शाकाहारी दोनों हो सकते हैं। मांसाहारी पक्षी अन्य छोटे जानवरों को खाते हैं, जो शिकारियों की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करता है। शाकाहारी पक्षी फलों, बीजों और अन्य पौधों को खाते हैं।
बात पक्षियों की हो तो भला कोई पक्षी प्रेमी 'सालिम अली' को कैसे भूल सकते हैं। डॉ सलिम अली का पूरा नाम डॉ. सालिम मुईनुद्दीन अब्दुल अली (12 नवंम्बर 1896 - 20 जुन 1987) था। वह एक भारतीय पक्षी विज्ञानी और प्रकृतिवादी थेऔर लोग उन्हें ‘भारत के बर्ड मैन’ के रूप में जानते हैं। पक्षियों के संरक्षण कार्यक्रमों और पक्षी विहारों के विकास के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें 1976 में  भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पीडीएम विभूषण' सम्मान से सम्मानित किया गया था। पक्षियों के साथ उनका व्यवहार बहुत दोस्ताना था, उनके पास चिडि़यों को बिना नुकसान पहुँचाए पकड़ने के बहुत से तरीक़े उनके पास थे। चिडि़यों को बिना घायल किये उन्हें पकड़ने की उनकी प्रसिद्ध ‘गोंग एंड फायर’ व ‘डेक्कन विधि’ आज भी पक्षी जगत में प्रयोग किया जाता है।

पक्षी पर्यावरण को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं। वे प्रदूषण को कम करने में भी मदद करते हैं। पक्षी कीटों को खाते हैं, जो प्रदूषण के स्रोत हो सकते हैं। पक्षी पेड़ों और अन्य पौधों को भी खाते हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने में मदद करते हैं।

पक्षी पर्यावरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन पक्षियों की आबादी घट रही है। इसका कारण प्रदूषण, आवास विनाश और शिकार हैं। हमें पक्षियों की रक्षा करने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। हम पक्षियों के लिए आवास बना सकते हैं, प्रदूषण को कम कर सकते हैं और शिकार को रोक सकते हैं।

पक्षी हमारे पर्यावरण के साथी हैं। हमें उनकी रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए।

पक्षियों के कुछ महत्वपूर्ण कार्य:
  • परागण: पक्षी पौधों के परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे अपने पंखों और चोंच से पौधों के पराग को एक फूल से दूसरे फूल में ले जाते हैं। इससे पौधे प्रजनन कर सकते हैं।
  • बीज फैलाव: पक्षी बीजों को फैलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे बीजों को अपने भोजन के साथ खाते हैं और उन्हें अन्य स्थानों पर ले जाते हैं। इससे नए पौधे उग सकते हैं।
  • कीट नियंत्रण: पक्षी कीटों को नियंत्रित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कीटों को खाते हैं, जिससे वे पौधों और अन्य जीवों को नुकसान नहीं पहुंचा पाते हैं।
  • भोजन श्रृंखला में भूमिका: पक्षी भोजन श्रृंखला में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मांसाहारी और शाकाहारी दोनों हो सकते हैं। मांसाहारी पक्षी अन्य छोटे जानवरों को खाते हैं, जो शिकारियों की आबादी को नियंत्रित करने में मदद करता है। शाकाहारी पक्षी फलों, बीजों और अन्य पौधों को खाते हैं।
  • प्रदूषण कम करने में मदद: पक्षी प्रदूषण को कम करने में भी मदद करते हैं। वे कीटों को खाते हैं, जो प्रदूषण के स्रोत हो सकते हैं। पक्षी पेड़ों और अन्य पौधों को भी खाते हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने में मदद करते हैं।
पक्षियों की रक्षा के लिए हम क्या कर सकते हैं?
  • पक्षियों के लिए आवास बनाएं: पक्षियों के लिए आवास बनाएं, जैसे पेड़ों, झाड़ियों और फूलों के बगीचों को लगाएं।
  • प्रदूषण को कम करें: प्रदूषण को कम करने के लिए कदम उठाएं, जैसे कार चलाने से कम करना और पुनर्चक्रण करना।
  • शिकार को रोकें: शिकार को रोकने के लिए कदम उठाएं, जैसे शिकार के लिए लाइसेंस की आवश्यकता करना और शिकार के मौसम को सीमित करना।
आइये हम भी पक्षी प्रेमी बनें, हम सभी पक्षियों की रक्षा करने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।

अन्य स्रोत सामग्री:-

ई (इलेक्ट्रोनिक) कचरा

जरा कल्पना कीजिए कि आप एक सुनसान समुद्र तट पर हैं। जहाँ की रेत में, आपको प्लास्टिक की बोतलें, मोबाइल के आवरण, संगणक की बटन, लैपटॉप की स्क्रीन, कलम के टुकड़े आदि अपशिष्ट का अंबार मिलता है। आप जानते हैं यह सामान्य कचरा नहीं है। इसे हम इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-कचरा के नाम से जानते हैं। ई-कचरा वह कचरा है जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के खराब हो जाने पर उनके कचरा हो जाने से पैदा होता है। इसमें पुराने मोबाइल फोन, टीवी, कंप्यूटर, और लैपटॉप आदि अन्य उपकरण शामिल हैं। ई-कचरा एक गंभीर समस्या है क्योंकि यह केवल पर्यावरण ही नहीं बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। यहाँ तक कि समय रहते यदि हम नहीं चेत पाए तो हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। 

ई-कचरा, यह एक ऐसी पर्यावरणीय आपदा है जो हमारे स्वास्थ्य और भविष्य दोनों को खतरे में डाल रही है।ऐसे इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जो खराब हो गए हों या ठीक से काम न कर रहे हों। इनमें उनके घटक, उपभोग्य वस्तुएं, पुर्जे और पार्ट्स भी शामिल हैं। जैसे - मोबाइल, फ्रिज़, एयर कंडीशनर, कंप्यूटर, टेलीविजन, वी.सी.आर., स्टीरियो, कॉपियर और फैक्स मशीन रोजमर्रा के इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद हैं। आदि। दरअसल में ई-कचरा द्वारा जहरीले रसायनों से होने वाले खतरे शामिल है। यह पर्यावरण के लिए एक नया बड़ा संकट पैदा कर सकता है। सन् 2016 में, दुनिया भर में 44.7 मिलियन टन ई-कचरा उत्पन्न हुआ था। उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ ने ई-कचरा को उसके गंभीर परिणामों के चलते इसे ई-कचरे की सूनामी' का नाम दिया था। 

दिन-प्रतिदिन तकनीकी प्रगति इतनी तेज गति से हमारे सामने आ रही है कि बहुत से इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जो अभी भी ठीक काम करते हैं, उन्हें अप्रचलित माना जाता है। आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स का उपयोग करना और आसपास रहना सुरक्षित नहीं है। हालाँकि, अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक्स में बेरिलियम, कैडमियम, पारा और सीसा सहित कुछ प्रकार के जहरीले पदार्थ होते हैं, जो हमारी मिट्टी, पानी, हवा और वन्य जीवन के लिए गंभीर पर्यावरणीय जोखिम पैदा करते हैं। और तो और ई-कचरे को लैंड फील्ड की ढालूनों में दबाना भी खतरे से खाली नहीं है।लैंडफिल में व्याप्त सकल कीचड़ में सूक्ष्म अंशों में घुल सकते हैं। अंततः, जहरीले पदार्थों के ये निशान लैंडफिल के नीचे जमीन में जमा हो जाते हैं। इसे 'लीचिंग' के रूप में जाना जाता है। लैंडफिल में जितना अधिक ई-कचरा और धातुएं होंगी, भूजल में उतने ही अधिक विषाक्त पदार्थ दिखाई देंगे। इलेक्ट्रोनिक उत्पादों में लगने वाले धातु के नए स्रोतों के लिए भी खनन का एक दुष्प्रभाव है। उससे कई विषैले द्रव्यों का पर्यावरण में घुलने का खतरा है, जो प्राणी और वनस्पतियों के लिए अधिक खतरनाक हो सकते हैं। 

 सौभाग्य से, एक सिद्ध समाधान उपलब्ध है। ई-कचरे का पुनर्चक्रण कई उपयोगी उद्देश्यों को पूरा कर सकता है।

बिजली और बैटरी से चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जैसे कंप्यूटर, मोबाइल फ़ोन, टीवी, वाशिंग मशीन

अन्य सहायक सामाग्री -

  1. ई-कचरा - दुष्परिणाम और प्रबंधन 
  2. अपशिष्ट प्रबंधन: एक चुनौती या अवसर?
  3. ई-कचरा : बढ़ता खतरा और प्रबंधन (विडिओ)

अपशिष्ट प्रबंधन: एक चुनौती या अवसर?

अपशिष्ट का उत्पादन एक गंभीर समस्या है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा है। सामान्य बोलचाल में इसे 'कचरा' के नाम से जानते हैं। अपशिष्ट का अर्थ है, किसी भी पदार्थ का प्राथमिक उपयोग करने के बाद जो बच जाता है, वह 'अपशिष्ट' कहलाता है। हमारे आस-पास जो कुछ भी अनुपयोगी है वह 'अपशिष्ट' है। कचरा ठोस, तरल या गैसीय अवस्था में हो सकता है। सरकारी आंकड़ों की माने तो भारत में हर साल करीब 6 करोड़ 20 लाख टन और हर दिन एक लाख 70 हज़ार टन कचरा पैदा होता है। आम तौर पर स्थानीय एजेंसियां कचरे से निपटने के लिए उन्हें शहरों के आप-पास के ढलावों में भर दिया जाता है। कचरे से निपटने के लिए हमें उसके पुनर्चक्रण की आवश्यकता होती है। 'पुनर्चक्रण' अपशिष्ट को नए उत्पादों में बदलने की प्रक्रिया है। हम अब तक केवल 25% कचरे को ही रिसाइकल कर पा रहे हैं। यह अपशिष्ट के उत्पादन को कम करने और संसाधनों का संरक्षण करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है

अपशिष्ट की समस्या आधुनिक जीवन शैली, बढ़ते शहरी करण एवं औद्योगीकरण से जनित समस्या हैं। ऐसा नहीं है कि प्राचीन काल के हमारे समाज में अपशिष्ट नहीं होता था। किन्तु होने वाला कचरा पुनर्चक्रण के अनुकूल होता था। लोग प्रकृति कि गोद में रहते, प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करते और होने वाला कचरा पुनः प्रकृति में अपघटित हो जाता था। अतः उस समय लोग सुखी थे। आज की स्थिति इसके विपरीत है, कहने के लिए हम विकास कर रहे हैं। लेकिन देखा जाय तो अपशिष्ट प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से हमारे स्वास्थ्य एवं कल्याण को कई तरह से प्रभावित कर रहा है। चाहे वो आम जीवन में प्लास्टिक का उपयोग हो या कृषि में रासायनिक खाद व कीटनाशकों के इस्तेमाल से होने वाली समस्या। आज हम अपनी प्रगति अपने स्वयं के स्वास्थ्य और आने वाली पीढ़ी के भविष्य के साथ खिलवाड़ की कीमत पर कर रहे हैं।  

'अपशिष्ट प्रबंधन' आज के समय में बहुत ही महत्वपूर्ण हो गया है। हम सभी मिलकर अपशिष्ट प्रबंधन की चुनौतियों को दूर कर सकते हैं और अपशिष्ट प्रबंधन के अवसरों का लाभ उठा सकते हैं। अपशिष्ट के कई स्रोत हैं, जिसमें घरेलू, वाणिज्यिक, औद्योगिक और कृषि शामिल है। अपशिष्ट का उचित प्रबंधन न होने से न केवल हमारी धरती बल्कि आकाश में वायु प्रदूषण और समुद्र की गहराइयों तक जल प्रदूषण की समस्या सिर उठा रही है। अपशिष्ट हमारे पारस्थितिक तंत्र को ही नहीं खराब करता है बल्कि यह समाज पर आर्थिक बोझ भी डालता है। अतः समय रहते यदि इसका उचित प्रबंधन न किया गया तो निकट भविष्य में इसके और भी गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं। 

प्लास्टिक अलग करती सफाईकर्मी
संयुक्त राष्ट्र संघ की सिफारिश को माने तो हमें कचरों के ढ़ेर से निपटने के लिए 'शून्य अपशिष्ट' की नीति अपनाने की आवश्यकता है। अर्थात् कचरा फैलाना बंद करना चाहिए। लेकिन यह कितना व्यावहारिक है? हम आप अच्छी तरह जानते हैं। अतः कचरे से निबटने 'अपशिष्ट प्रबंधन' ही एकमात्र और अंतिम उपाय है। इसके लिए हमें अपशिष्ट संग्रहण, उसकी छंटाई और पुनर्चक्रण के लिए एक बुनियादी ढाँचा बनाने की आवश्यकता होती है। यह एक बहुत ही मंहगी और जटिल प्रक्रिया है। इसकी शुरुवात हमें अपने घर /ऑफिस से करनी होगी। हम अपने कचरे को इकट्ठा करते समय ही कचरे के अलग-अलग प्रकार में छांटकर संग्रह करें। जैसे - सूखा कचरा, गीला कचरा, जैविक कचरा, बायो-मेडिकल कचरा, ई-(इलेक्ट्रॉनिक) कचरा,  पुनर्चक्रण योग्य कचरा, हरा कचरा और खतरनाक कचरा आदि। प्लास्टिक के अत्यधिक उपयोग और लंबे समय से प्लास्टिक के निपटान समाधानों की उपेक्षा के कारण न केवल भारत बल्कि कई अन्य देशों को भी प्लास्टिक से बढ़ते पर्यावरणीय नुकसान के कारण इसे सीमित करने के लिए कानून अपनाने पड़े हैं।

आज के आधुनिक जीवन शैली में जहाँ हम दिन प्रतिदिन प्रगति की ओर अग्रसर हैं। वहीं अपने पीछे रोजाना ढ़ेर सारे प्लास्टिक और इलेक्ट्रोनिक कचरे को फैला रहे हैं। जिसके प्रबंधन में चुनौती के साथ साथ नए अवसर भी तलासे जा रहे हैं। जहाँ प्लास्टिक कचरे का पुरर्चकरण कर नए प्लास्टिक उत्पाद, पर्यायी ईंधन और सड़क निर्माण के क्षेत्र में काम हो रहा है। वहीं जनता में साफ-सफाई व कचरा प्रबंधन के प्रति जागरूकता अभियान कार्यक्रम अपनाए जा रहे हैं। इसी राह पर चलकर भारत का प्राचीन शहर इंदौर अपने आप में अपनी साफ-सफाई और चमचमाती सड़कों के लिए दुनिया भर में नाम कर रहा है। हमें भी बस एक पहल करने की आवश्यकता है। जल्द ही हम इस क्षेत्र में भी अवश्य जीत हासिल करेंगे।  

अन्य स्रोत सामग्री -
  1. विकिपीडिया 
  2. अपशिष्ट प्रबंधन-दृष्टि आईएएस
  3. शून्य अपशिष्ट - यूएनओ


मंगलवार, 21 नवंबर 2023

छठ पर्व की छटा निराली - स्वास्थ्य और संस्कृति का संगम

छठ महापर्व पर सूर्य को अर्घ्य देती महिला  
उत्तर भारत के बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में छठ के पर्व को विशेष महत्व दिया जाता है। यह पर्व इसलिए भी खास है क्योंकि इस दिन लोग किसी मंदिर में जाकर पूजा-पाठ नहीं करते, बल्कि प्रकृति की गोद में आराधना करते हैं। दरअसल छठ के पर्व में सूर्य देव को बहुत महत्व दिया जाता है। इसकी शुरुआत सुबह सूर्य देव के जलाभिषेक से होती है और समापन भी इसी तरह से होता है। हमारे ग्रंथों में भी सूर्य को सुबह जल चढ़ाने को विशेष बताया गया है। लेकिन ये सिर्फ परंपरा है या इसके पीछे कुछ विज्ञान भी है। धूप से मिलने वाले विटामिन-D के बारे में तो हम जानते हैं लेकिन क्या धूप के और भी फायदे हैं? आज का विज्ञान सूर्य की रौशनी और हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इसके असर के बारे में क्या कहता है, आइए इस ब्लॉग में समझने की प्रयास   करते हैं

विटामिन-डी
विटामिन-डी को 'सनशाइन विटामिन' भी कहा जाता है। क्योंकि ये धूप से मिलता है और कुछ चुनिंदा विटामिन में से है, जिन्हें हमारा शरीर खुद बना सकता है। लेकिन एक विडंबना ये भी है कि फ्री में बनने वाले इस विटामिन की भी हमारे देश के लोगों में कमी है। टाटा 1mg के एक सर्वे में देखा गया कि 76% भारतीय विटामिन-डी की कमी से ग्रस्त हैं। दिन के आधे घंटे में बन जाने वाला ये विटामिन भी आज हम लोगों में कम है। शायद इसी लिए हमारे पूर्वज सूर्य को इतनी अहमियत देते थे। सूर्य की पूजा के पीछे चाहे जो कारण रहे हों। लेकिन आज विज्ञान भी ये मानता है कि सूरज कि रोशनी हमारे लिए कितनी जरूरी है।
कैल्शियम हमारी हड्डियों के लिए कितना जरूरी है। कैल्शियम की कमी से हड्डियां कमजोर हो जाती हैं और कमजोर हड्डियों में फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है। हल्की सी चोट और हड्डी चटकी, लेकिन इससे बचने में धूप हमारी मदद कर सकती है। दरअसल, धूप से बनने वाला विटामिन-डी कैल्शियम को सोखने में अहम भूमिका निभाता है। और उन्हें मजबूत बनाता है। कितना भी कैल्शियम खा लें, बिना विटामिन-डी के उसे अब्सॉर्ब करना मुश्किल हो जाता है।

बैक्टीरिया हमारे चारों तरफ हैं। इनमें से ज्यादातर तो हमें कुछ खास नुकसान नहीं पहुंचाते लेकिन कुछ हमें बहुत बीमार बना सकते हैं। फिक्र मत कीजिए अपने घर की खिड़की खोल के जरा धूप अंदर आने दीजिए और इन बीमार करने वाले बैक्टीरिया को मार भगाइए। धूप बैक्टीरिया भी खत्म करती है। यूनिवर्सिटी ऑफ ओरेगॉन में इस बारे एक रिसर्च हुई, जिसमें देखा गया कि एक अंधेरे कमरे में बैक्टीरिया 12% थे। लेकिन जब उस कमरे में धूप आने दी गई तो बैक्टीरिया की आबादी घटकर 6% हो गई।

धूप हड्डियों और विटामिन-डी को तो दुरुस्त रखती ही है। ये ब्लड प्रेशर भी घटाती है। ये जानकारी यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ हैम्पटन में हुई एक रिसर्च में सामने आई। रिसर्च में पता चला कि धूप में रहने से नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) गैस हमारी स्किन के जरिए ब्लड वेसेल्स में पहुंच जाती है। ब्लड वेसेल्स को सिकुड़ने से रोक कर ब्लड प्रेशर कम करने में मदद करती है। हाई ब्लड प्रेशर से हार्ट डिजीज और किडनी डिजीज का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में धूप ब्लड प्रेशर काबू में रख कर, इन बीमारियों का खतरा भी कम कर सकती है।

आपने कभी ध्यान दिया है कि कुछ लोग बिना घड़ी देखे सही समय पर जग जाते हैं। इसके पीछे भी एक विज्ञान है। वह है हमारे शरीर की जैविक-घड़ी। दरअसल, हम आँखों से देखकर तो दिन-रात का अंदाजा लगाते हैं। हमारे शरीर में कोशिकाएं भी दिन और रात के बारे में जानकारी रखती हैं और उसी हिसाब से काम करती हैं।लेकिन आजकल रात में फोन की स्क्रीन और तेज लाइटों से हम अपने दिमाग को कंफ्यूज कर देते हैं। और हमारा स्लीप साइकिल बिगड़ जाता है। फिक्र मत कीजिए धूप इसे सही करने में भी हमारी मदद कर सकती है।नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिसर्च में देखा गया कि सुबह की रोशनी में रहने से दिमाग में मेलाटोनिन नाम का एक केमिकल निकलता है, जो हमारी नींद सुधारने में मदद करता है।

हमारे ग्रंथों में भी सुबह सूर्य की आराधना को खास अहमियत दी गई है और बताया गया है कि सुबह में सूर्य नमस्कार कई बीमारियों को दूर रखता है।अमेरिकन नेशनल हेल्थ एंड न्यूट्रिशन मैगजीन में छपी एक स्टडी के मुताबिक विटामिन-डी की कमी का एंग्जायटी और मूड से सीधा कनेक्शन है। ‘काम योर माइन्ड विथ फूड‘ की लेखिका, न्यूट्रिशनिस्ट और साइकिएट्रिस्ट डॉ. उमा नायडू बताती हैं कि इस दिशा में हुए कई शोध ये इशारा करते हैं कि विटामिन-डी डिप्रेशन और एंग्जायटी के खिलाफ भी असरदार है। विटामिन-डी दिमाग में न्यूरो-स्टेरॉइड नाम के केमिकल की तरह काम करता है और एंग्जायटी से लड़ने में मदद करता है।कुछ लोगों को मौसम बदलने के साथ भी डिप्रेशन होता है। मेडिकल साइंस की भाषा में इसे ‘सीजनल इफेक्टिव डिसॉर्डर’ कहते हैं। लोग इसके शिकार सर्दियों में ज्यादा होते हैं, इसलिए इसे विंटर डिप्रेशन भी कहा जाता है।

अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिसर्च में ये भी देखा गया कि दिन में पर्याप्त रौशनी और धूप वाली जगह में रहकर इस तरह के डिप्रेशन से बचा जा सकता है। मतलब धूप सिर्फ ‘कोई मिल गया’ फिल्म के जादू के लिए नहीं जरूरी, ये हमारे लिए भी बड़ी फायदेमंद है। तो देर किस बात की खिड़की खोलिए और थोड़ा जगमगाती धूप अंदर आने दीजिए।

साभार - दैनिक भाष्कर

रविवार, 12 नवंबर 2023

यह राह नहीं है आसाँ : भविष्य चुनने में अभिभावक की भूमिका

करियर चुनना एक चुनौती 
अभिभावक अपने बच्चों के लिए सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होते हैं। वे बच्चों के जीवन के शुरुआती वर्षों से ही उनके विकास और सीखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चों का लालन-पालन, शिक्षा, स्वास्थ्य, और शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अभिभावकों का योगदान अद्वितीय होता है। मानव का जीवन पथ किसी मनमोहक बगीचे में घूमने जैसा आसान नहीं होता, बल्कि वह पथरीली राह की ऊबड़-खाबड़ जमीन पर तपती धूप में पैदल चलने के संघर्ष जैसा भी हो सकता है। चूकि अभिभावकों ने उन संघर्षो के अनुभव किया है अतः वे कभी नहीं चाहते कि उनकी संतानों को उन समस्याओं का सामान करना पड़े। अतः वे अपने अनुभवों से अपनी संतानों को उनका भविष्य चुनने में मदद करना चाहते हैं, लेकिन यह मदद अभिभावकों की इच्छाओं को थोपने के रूप में नहीं होनी चाहिए। अभिभावक अपने अनुभवों से अपनी संतानों को विभिन्न विकल्पों के बारे में जानकारी दे सकते हैं, उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में सफल होने के लिए आवश्यक कौशल और ज्ञान विकसित करने में मदद कर सकते हैं, और उन्हें अपने निर्णयों के संभावित परिणामों के बारे में सोचने में मदद कर सकते हैं। हालांकि, अंततः यह निर्णय बच्चे को लेना चाहिए कि वह अपना भविष्य कैसे चुनना चाहता है।

अभिभावकों के अनुभव उनके बच्चों के लिए एक अमूल्य संसाधन हो सकते हैं। अभिभावक अपने बच्चों को अपने स्वयं के जीवन में किए गए विकल्पों के बारे में बता सकते हैं, और उन्हें यह समझने में मदद कर सकते हैं कि इन विकल्पों के क्या परिणाम हुए। वे अपने बच्चों को विभिन्न क्षेत्रों में सफल होने के लिए आवश्यक कौशल और ज्ञान विकसित करने में भी मदद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक अभिभावक जो एक डॉक्टर है, वह अपने बच्चे को चिकित्सा क्षेत्र में कैरियर बनाने के बारे में जानकारी दे सकता है। वह अपने बच्चे को विज्ञान और गणित में मजबूत होने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है, जो चिकित्सा क्षेत्र में सफल होने के लिए आवश्यक कौशल हैं।

अभिभावक अपने बच्चों को अपने निर्णयों के संभावित परिणामों के बारे में सोचने में भी मदद कर सकते हैं। वे अपने बच्चों को यह समझने में मदद कर सकते हैं कि विभिन्न विकल्पों के क्या फायदे और नुकसान हैं। उदाहरण के लिए, एक अभिभावक अपने बच्चे को यह समझने में मदद कर सकता है कि एक डॉक्टर बनने के लिए बहुत अधिक अध्ययन और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। वह अपने बच्चे को यह भी समझने में मदद कर सकता है कि एक डॉक्टर के रूप में काम करने के लिए लंबे घंटे और तनावपूर्ण स्थिति हो सकती है।


हालांकि, यह महत्वपूर्ण है कि अभिभावक अपने बच्चों पर अपनी इच्छाओं को थोपने से बचें। अभिभावकों को यह याद रखना चाहिए कि उनके बच्चे अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिनके अपने अलग-अलग सपने और लक्ष्य हैं। अभिभावकों को अपने बच्चों को यह महसूस करने की अनुमति देनी चाहिए कि वे अपने भविष्य के बारे में अपने स्वयं के निर्णय ले सकते हैं।

आजकल की संताने इतनी काबिल हैं कि वे अपना भविष्य चुनने में स्वतंत्रता से विचार करने के काबिल हैं। वे विभिन्न विकल्पों के बारे में जानकारी तक पहुंच सकते हैं और अपने लिए सबसे अच्छा विकल्प चुन सकते हैं। हालांकि, अभिभावकों का मार्गदर्शन और समर्थन अभी भी महत्वपूर्ण है। अभिभावक अपने बच्चों को अपने निर्णयों के बारे में सोचने और उन्हें लेने में मदद कर सकते हैं।

अभिभावक अपने बच्चों को निम्नलिखित तरीके अपना भविष्य चुनने में मदद करने के लिए सकते हैं:-

  • बच्चों को विभिन्न विकल्पों के बारे में जानकारी देकर।
  • बच्चों को विभिन्न क्षेत्रों में सफल होने के लिए आवश्यक कौशल और ज्ञान विकसित करने में मदद करें।
  • अपने बच्चों को अपने निर्णयों के संभावित परिणामों के बारे में सोचने में मदद करें।
  • अपने बच्चों को यह महसूस करने दें कि वे अपने भविष्य के बारे में अपने स्वयं के निर्णय ले सकते हैं।

अभिभावकों और संतानों के बीच एक खुली और ईमानदार बातचीत भविष्य के चुनाव के लिए महत्वपूर्ण है। अभिभावकों को अपने बच्चों से उनके सपनों और लक्ष्यों के बारे में पूछना चाहिए। उन्हें अपने बच्चों को यह महसूस कराना चाहिए कि वे उनके समर्थन और मार्गदर्शन पर भरोसा कर सकते हैं।

रविवार, 5 नवंबर 2023

आम नहीं ख़ास कहें हुज़ूर!

आम
आम एक ऐसा फल है जो अपने आप में ही खास है। इसे किसी अन्य फल से तुलना करने की आवश्यकता नहीं है। जो अपने विशेष रंग, सुगंध और अप्रतिम स्वाद के लिए जाना जाता है। यह भारत में सबसे लोकप्रिय फलों में से एक है। एक ऐसा फल है जो आम लोगों को भी खुशी और आनंद देता है। आम भारतीय संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। जिसका उल्लेख हमारे धार्मिक ग्रंथों, इतिहास और साहित्य में कई बार उल्लिखित हुआ है। अपने मूल रूप से यह भारत में ही उत्पन्न हुआ था। इतिहास की माने तो इसे सिकंदर महान के सैनिकों ने इसे पहली बार सिंधु नदी के आस-पास देखा था। आम के पेड़ों का उल्लेख संस्कृत के महाकवि कालिदास और अरबी-फ़ारसी के मशहूर शायर 'अमीर खुसरो' जैसे प्राचीन भारतीय लेखकों के कार्यों में भी मिलता है। आम के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत और मध्य युगीन कई अन्य विदेशी यात्रियों के संस्मरणों में भी मिलता है। मुगल सम्राट बाबर ने अपने आत्मवृत्त 'बाबरनामा' में आम के बारे में कहा है कि 'यह भारत का सबसे स्वादिष्ट फल है।' इसी प्रकार शाहजहां से लेकर अकबर तक लगभग सभी मुगल सम्राट आम के मुरीद थे। आम भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण विषय रहा है। कई कवियों और लेखकों ने आम के बारे में कविताएँ और कहानियाँ लिखी हैं। आम का उल्लेख हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में साहित्य में किया गया है। रामायण और महाभारत में भी आम का उल्लेख मिलता है। 

आम का निर्यात 
आम एक मौसमी फल है और आम का मौसम गर्मियों में होता है। भारत समेत दुनिया भर में आम की कई किस्में उगाई जाती हैं, जिनमें दशहरी, सफेदा, लंगड़ा, केसर, कलमी, देशी और हापुस (अल्फ़ान्सो) आदि शामिल हैं। भारत दुनिया का सर्वाधिक आम उत्पादक देश है। उसके बाद चीन और थाईलैंड हैं। भारत में आम की 1500 से ज़्यादा किस्में पाई जाती हैं। हर किस्म का स्वाद, आकार, और रंग अलग-अलग होता है। आम को कई तरह से खाया जा सकता है। इसे कच्चा या पका दोनों तरीके से खाया जा सकता है। इससे मिठाइयाँ, चटनी, अचार और मुरब्बा आदि व्यंजनों को बनाया जा सकता है। उत्तर भारत में जहाँ आम के पना बनाया जाता है, वहीं आम का उपयोग भारत भर में कई तरह के पारंपरिक व्यंजनों में किया जाता है। आम एक पौष्टिक फल भी है। यह विटामिन-सी, पोटेशियम और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों का एक अच्छा स्रोत है। दुनिया भर में भारत आम का सबसे बड़ा निर्यातक है। लगभग 50 हजार करोड़ रुपयों का निर्यात भारत हर वर्ष करता है।

आम एक तो वैसे ही सबसे खास होता है, उस पर से अगर अवध प्रांत का हो तो फिर बात ही क्या कहने? ब्रिटिश काल के अंतिम दौर के अवधी कवि पुष्पेन्दु जैन लिखते हैं कि - 

‘लखनऊ का सफेदा और लंगड़ा बनारस का यही दो आम जग में उत्तम कहायो है। 
लखनऊ के बादशाह दूध से सिचायो वाको, वाही के वंशज सफेदा नाम पायो है। 
या से लड़न को बनारस से धायो एक, बीच में ही टूटी टांग, लंगड़ा कहायो है। 
कहै पुष्पेन्दु वाने जतन अनेक कीने, तबहूं सफेदे की नजाकत न पायो है।’

मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी आम के ऐसे दीवाने थे कि आम के मौसम में आम के सिवा कुछ और बात करना उन्हें कतई पसन्द नहीं था। 

‘नाम न कोई यार को पैगाम भेजिए। 
इस फस्ल में जो भेजिए, बस आम भेजिए।’

आज के दौर के लोकप्रिय शायर 'मुनव्वर राणा' भी आम की दीवानगी में कहते हैं, 

‘इंसान के हाथों की बनाई नहीं खाते, 
हम आम के मौसम में मिठाई नहीं खाते।’ 

आम जैसे रसीले फल के लिए लेखकों और कवियों की भाषा के शब्द कम पड़ जाते हैं। लखनऊ के आस-पास तो आम के किस्से आम हैं। लखनऊ से महज 30 किलोमीटर 'मलीहाबाद' को आम की राजधानी के रूप में जाना जात है। यहाँ के लगभग दो हज़ार से ज़्यादा बाशिंदे कई पीढ़ियों से पिछले सैकड़ों सालों से आम की 700 से अधिक क़िस्मों की पैदावार सैकड़ों बगीचों में उगाते आ रहे हैं। 'पद्मश्री हाजी कलीमुल्लाह खान' ने यहाँ के आम की मिठास को दुनिया भर में पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई है। वे बताते हैं कि 'हमारे गांवों में आज भी ये रिवाज है कि पड़ोसी के यहाँ से आए बरतन खाली नहीं वापस किए जाते। उनमें कुछ न कुछ रखकर ही भिजवाया जाता है।' इसी बहाने पड़ोसियों के एक दूसरे के अलग-अलग रसीले आमों का स्वाद चखने का मौका जो मिलता है, क्योंकि लोग एक दूसरे को आम भेजते हैं। मलीहाबाद के आम खाने के उस्ताद अब्दुल कदीर खां से किसी ने पूछा कि आप एक बार में कितने आम खाते हैं? तो खां साहब ने जवाब दिया-एक दाढ़ी । मतलब ये है कि वे उकड़ूं बैठ जाते थे और आम अपने सामने रख लेते थे। फिर जब तक आम की गुठलियों और छिलकों का ढेर बड़ा होते होते उनकी दाढ़ी को छू नहीं लेता, वे आम खाते रहते थे।

यह बात हुई आम खाने की। मगर मलीहाबाद में ही एक ऐसे भी शख़्स हुए हैं जो आम खाने के लिए नहीं बल्कि आम छीलने के लिए दूर दूर तक मशहूर थे। उनका नाम था मुशीर खां। आम छीलने में उन्हें ऐसी महारथ हासिल थी कि कुएं की जगत पर बैठकर जब मलीहाबादी दशहरी छीलते थे तो मजाल क्या कि छिलका बीच से टूट जाए। इतना महीन छिलका छीलते थे कि छिलका गोल-गोल घूमता हुआ कुएं के पानी में छू जाता था। मगर ये तब की बात थी जब हमारे यहां कुएं बहुत हुआ करते थे और उनमें पानी भी खूब होता था। अब तो कुएं छोड़िए आंख का पानी भी मरता जा रहा है।’

आम पर इन तमाम रसों के जरिए जो कुछ भी कहा गया है उससे कहने वालों की ही शान बढ़ी है। आम तो उनके कहने से पहले भी राजा था, कहने के दौर में भी राजा रहा और हमेशा राजा ही बना रहेगा। मंडियों, बाजारों और बड़े बड़े माॅल से लेकर फुटपाथों के ठेलों तक हर गरीब-अमीर के लिए सुलभ आमों को खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन आम के बागों में बैठ कर आम की दावतों का लुत्फ लेना तो वाकई परम आनंद पाना है। इसीलिए अवध में आम की दावतें अब भी होती हैं और खाने वाले तथा खिलाने वाले दोनों को ही तृप्त करती हैं।

(ध्यानार्थ - यह आलेख छात्रों के स्तर और उपयोगिता के आधार पर परिवर्धित करके पुनः साझा किया गया है।)

मूल लेखक - गोविंद पंत राजू

साभार - सत्याग्रह डॉट कॉम

अन्य सहायक सामग्री :-

  1. औरंगजेब और आम - जनसत्ता
  2. दुनिया को भारत का नायाब तोहफ़ा ‘आम

खादी और गांधी : देश का गौरव

        भारतीय विरासत में खादी एक महत्वपूर्ण वस्तु है जो हम सभी के लिए गौरव का विषय है। खादी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास का प्रतीक रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में खादी के कपड़े के प्रमाण मिले हैं। यह माना जाता है कि खादी का उत्पादन और उपयोग भारत में हजारों सालों से होता आ रहा है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि 'जब दुनिया वनवासी जीवन जी रही थी हमने सभ्यता के विकास के साथ ही वस्त्र और आभूषण पहनना सीख लिया था।' 

खादी का आधुनिक इतिहास महात्मा गांधी के साथ जुड़ा हुआ है। गांधीजी ने खादी को आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का प्रतीक माना। तब से खादी और गांधी एक दूसरे की पूरक से हो गए हैं। उन्होंने लोगों से खादी पहनने और उसका समर्थन करने का आह्वान किया। गांधीजी के प्रयासों से खादी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया। भारत में खादी का उत्पादन और विपणन 'खादी और ग्रामोद्योग आयोग' (KVIC) द्वारा किया जाता है। KVIC एक सांविधिक निकाय है जो खादी और ग्रामोद्योग के विकास और प्रचार के लिए जिम्मेदार है। खादी भारत की संस्कृति और परंपरा का पहचान बन चुका है। खादी आज देश की पहचान ही नहीं अपितु खादी के उत्पादों की उपयोगिता, उनका देश की अर्थव्यवस्था में योगदान आदि देश के गौरव की बात करता है।

राष्ट्रपिता गांधी और खादी - 

गांधी जी और चरखा
        महात्मा गांधी ने खादी को ने न केवल आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का प्रतीक माना था बल्कि देश की आजादी में एक हथियार के रूप में प्रयोग किया। उन्होंने लोगों से खादी पहनने और उसका समर्थन करने का आह्वान किया। गांधीजी के प्रयासों से खादी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गई। आज, खादी भारत की एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। खादी के उत्पादों का उत्पादन और विपणन लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करता है। खादी भारत की पहचान का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

खादी के उत्पाद - 

खादी भी एक प्रकार का कुटीर उद्योग है जो हाथ से काते गए और बुने गए सूत से कपड़ा बनाता है। यह एक प्राकृतिक कपड़ा होता है, जो पहनने में स्वास्थ्यवर्धक होता है। यह आराम दायक होने के साथ ही सर्दी के मौसम में गर्माहट और गर्मी में ठंडक प्रदान करता है। खादी के उत्पादों का उपयोग घरेलू और औद्योगिक दोनों क्षेत्रों में किया जाता है। खादी के कपड़े, पर्दे, गद्दे, तकिये, दरी, चटाई, आदि घरेलू उपयोग में आते हैं। खादी के कपड़े से बने कुर्ता-पायजामा, सदरी, सूट, मिरजई, सलवार-कुर्ता, धोती, साड़ी, टोपी, आदि पहने जाते हैं। खादी के कपड़ों के अलावा ग्रामोद्योग से संबन्धित बर्तन, खिलौने, कुटीर उद्योग के साबुन, तेल, शैम्पू, मोमबत्ती, आचार, पापड़, शहद, जूते और झोला इत्यादि भी बाजार में खादी भंडार में उपलब्ध रहते हैं। कुटीर और ग्रामोद्योग भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये छोटे और मझोले दर्जे के उत्पादक होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। हम कुटीर और ग्रामोद्योगों को बढ़ावा देकर, भारत सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आय के अवसरों को बढ़ावा दे सकते हैं। यह भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने में भी मदद कर सकता है। खादी का देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान है। खादी के उत्पादों के उत्पादन और विपणन से लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। खादी के निर्यात से देश को विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है। खादी का उत्पादन और विपणन देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है।

खादी देश की पहचान - 

खादी भारत की पहचान है। यह भारत की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है। खादी का उपयोग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रतीक भी था। गांधीजी ने खादी को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया था। गांधीजी का मानना था कि खादी का उपयोग करके हम भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर सकते हैं। गांधीजी भारत के राष्ट्रपिता हैं। उन्होंने भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया। गांधीजी ने खादी को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में विकसित किया। उन्होंने खादी को भारत की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता का आधार माना। इस प्रकार गांधीजी के प्रयासों से ही खादी भारत की पहचान बन गई। 

खादी के संरक्षण और विकास के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं:- 

    • खादी के उत्पादों के गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए।
    • खादी के उत्पादों के विपणन के लिए नए तरीकों को विकसित किया जाना चाहिए।
    • खादी के उत्पादों को अधिक किफायती बनाया जाना चाहिए।
    • खादी के उद्योग को सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

इन सुझावों के कार्यान्वयन से खादी के उत्पादों की मांग बढ़ेगी और खादी का उद्योग और अधिक विकसित होगा। इससे देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी।

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बुधवार, 1 नवंबर 2023

"मुहावरे/लोकोक्तियाँ: भाषा की गहराइयों का खजाना"

    मुहावरों और लोकोक्तियाँ हमारी भाषा का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इनके प्रयोग से हम अपनी भाषा को और भी प्रभावी ढंग से समझ पाते हैं। इनको यदि हम साहित्यिक धरोहर कहें तो कोई आश्चर्य की बात न होगी। इनसे व्यक्ति की भाषिक कौशल का परिचय भी मिलता है। इस ब्लॉग पोस्ट में, हम मुहावरों और लोकोक्तियों के महत्व, उपयोग, और उनके साहित्यिक महत्व पर भी चर्चा करेंगे। इसे और विस्तार से समझने से पहले आइये 'बरसात की एक रात' - (1981) का यह गीत सुनते हैं।


    इस गीत में कई मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग इस गाने के प्रभाव को चार चाँद लगा देता है। यह गीत  व्यक्ति विशेष की स्थिति को इन मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से प्रकट करता है। :-

मुहावरे 

  • खुल गया पोल, (पोल खुलना) 

अर्थ -  सत्य प्रकट हो जाना, वास्तविक या भेद खुल जाना, राज खुलना 

वाक्य प्रयोग - कोरोना की भयावहता को देखकर सरकारी व्यवस्था की पोल खुल गई।

  • शेर को ललकारा (शेर बनाना)  

अर्थ - अपने से ज़्यादा ताक़तवर से छेड़छाड़ करना, अनियंत्रित होना

वाक्य प्रयोग - रोहन से बात करना शेर को ललकारने से कम नहीं है। 

  • शंख बजाना 

अर्थ - महान काम शुरू करना 

वाक्य प्रयोग - परीक्षा की तैयारी के लिए कल से ही शंख बाजा लेना अच्छा रहेगा।  

  • बाज़ी हारना

अर्थ - शर्त हार जाना, पराजित (हार) हो जाना, 

वाक्य प्रयोग - मैच के लिए बड़ी मेहनत करने के बाद भी हमारी टीम उनसे बाजी हार गई। 

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लोकोक्तियाँ (कहावतें) 

  • कौवा हंस की चाल चला

अर्थ - नकल के चक्कर में मूर्खता कर नुकसान उठाना

वाक्य प्रयोग -रमेश कुछ दिन विदेश क्या रह कर आया उसके तो तौर-तरीके ही बदल गए, इसे कहते हैं कौवा चला हंस की चाल।  

  • जिसका काम उसकी को साजे और करे ठेंगा (डंडा) बाजे

अर्थ - जो व्यक्ति जिस काम में निपुण हो वही उसे अच्छी तरह कर सकता है। 

वाक्य प्रयोग - शिवम मोबाइल बनाने के चक्कर में अपने ही हाथ पर चोट लगा लिया। बेहतर होता कि किसी मैकेनिक से बनवा लेटा। यह तो वही बात हुई कि जिसका काम उसी को साजे, और करे तो .... । 

  • छोटा मुँह और बड़े बोल (छोटा मुँह, बड़ी बात)

अर्थ - उम्र में छोटा होकर भी बातें बड़ो जैसी करना है।

वाक्य प्रयोग - रमेश को उसके पिताजी पढ़ा ही रहे थे कि वह अपने पिताजी को ज्ञान देने शुरू कर दिया,  यह तो छोटा मुंह, बड़ी बात है। 

  • चुल्लू भर पानी में डूब मारना 

अर्थ - अत्यंत शर्मनाक स्थिति में होना

वाक्य प्रयोग - कोमल को लोग शरीफ़ समझते थे, लेकिन उसकी गलती पकड़े जाने पर उसकी स्थिति चुल्लू भर पानी में डूब मरने की हो गई थी। 

इस गीत में इन मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग किसी की स्थिति और भावनाओं को दर्शाने के लिए किया गया है, और इसके द्वारा किसी व्यक्ति की मनःस्थिति को व्यक्त किया जा रहा है।

लोकोक्तियाँ और मुहावरे का सांस्कृतिक प्रभाव - 

    लोकोक्तियाँ (कहावतें) और मुहावरे (मुहावरे) का कई समाजों में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक महत्व है। वे किसी समुदाय की भाषा, संचार और सांस्कृतिक पहचान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहाँ लोकोक्तियाँ और मुहावरे के कुछ सांस्कृतिक प्रभाव दिए गए हैं:-

  • परंपराओं और ज्ञान का संरक्षण: लोकोक्तियाँ और मुहावरे अकसर पारंपरिक ज्ञान और मूल्यों को धारण करते हैं। वे पीढ़ियों से चले आ रहे हैं और किसी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत और ज्ञान को संरक्षित करने में मदद करते हैं।
  • प्रभावी संचार: ये अभिव्यक्तियाँ संक्षिप्त और अर्थ से भरपूर हैं, जो उन्हें प्रभावी संचार के लिए उपयोगी बनाती हैं। वे जटिल विचारों और भावनाओं को कुछ शब्दों में व्यक्त करने में मदद करते हैं, जिससे भाषा की समृद्धि बढ़ती है।
  • सांस्कृतिक पहचान: ये अभिव्यक्तियाँ अकसर किसी विशिष्ट संस्कृति या क्षेत्र के लिए अद्वितीय होती हैं। वे उस संस्कृति के इतिहास, विश्वास और मूल्यों को प्रतिबिंबित करते हैं, इसकी विशिष्ट पहचान में योगदान करते हैं।
  • मौखिक परंपरा: लोकोक्तियाँ और मुहावरे का प्रयोग अकसर मौखिक कहानी कहने, लोककथाओं और गीतों में किया जाता है। वे आख्यानों में गहराई और स्वाद जोड़ते हैं, जिससे वे आकर्षक और प्रासंगिक बन जाते हैं।
  • हास्य और बुद्धि: कई मुहावरे और कहावतें हास्यप्रद और मजाकिया हैं। इन्हें अकसर हास्य और व्यंग्य में उपयोग किया जाता है, जिससे संस्कृति की भाषा और अभिव्यक्ति में मनोरंजन का तत्व जुड़ जाता है।
  • सामाजिक और नैतिक मार्गदर्शन: इन अभिव्यक्तियों में अकसर नैतिक और नैतिक पाठ शामिल होते हैं, जो व्यक्तियों को व्यवहार करने और निर्णय लेने के तरीके के बारे में मार्गदर्शन करते हैं। वे सलाह और नैतिक मानकों के सामूहिक स्रोत के रूप में कार्य करते हैं।
  • साहित्यिक और कलात्मक कृतियाँ: लेखक, कवि और कलाकार अकसर इन अभिव्यक्तियों से प्रेरणा लेते हैं। वे गहराई और प्रामाणिकता पैदा करने के लिए अपने कार्यों में लोकोक्तियाँ और मुहावरे को शामिल करते हैं।
  • सांस्कृतिक बंधन: इन अभिव्यक्तियों का उपयोग किसी संस्कृति के सदस्यों के बीच अपनेपन और संबंध की भावना को बढ़ावा देता है। वे एक साझा भाषा बनाते हैं जो सांस्कृतिक बंधनों को मजबूत करती है।
  • शिक्षण उपकरण: युवा पीढ़ी को सांस्कृतिक मूल्य और ज्ञान प्रदान करने के लिए लोकोक्तियाँ और मुहावरे का उपयोग शिक्षण उपकरण के रूप में किया जाता है। वे बच्चों को उनकी विरासत और परंपराओं के बारे में शिक्षित करने में मदद करते हैं।
  • अंतर-सांस्कृतिक समझ: विभिन्न संस्कृतियों की कहावतों और मुहावरों के बारे में सीखने से उन संस्कृतियों की बेहतर समझ हो सकती है। यह सांस्कृतिक अंतर को पाटने और अंतर सांस्कृतिक संचार को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।

संक्षेप में, लोकोक्तियाँ और मुहावरे केवल भाषाई अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं बल्कि किसी संस्कृति की पहचान, संचार और परंपराओं के अभिन्न अंग हैं। वे एक समाज के सामूहिक ज्ञान और अनुभवों को साथ लेकर चलते हैं, जो उन्हें किसी संस्कृति को समझने और उसकी सराहना करने के लिए अमूल्य बनाते हैं।

अन्य स्रोत सामग्री

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