जा पड़ोसी के चूल्हे से आग मांग ले...!

एक जमाना था जब गांव के लोग आपसी रिश्तों की गर्माहट में जीते थे। ८०–९० के दशक तक न तो इंटरनेट था, न टेलीविजन हर घर में पहुँच पाया था। गैस चूल्हा भी दुर्लभ था। उस समय जब बोरसी में आग बचाकर रखी जाती थी, तो पड़ोसी वहीं से अपनी चूल्ही जलाते थे।
गांव की अम्माएँ चिमटे में जलते कंडे पकड़े रहतीं — कोई भी बच्चा जाए तो मुस्कुराकर दे देतीं। आग मांगना अपमान नहीं, अपनापन था।
जब किसी के घर दूध, चीनी या चायपत्ती खत्म हो जाती तो मां बेझिझक कह देती — “जा बेटा, पड़ोसी से ले आ।” और हम फुदकते चले जाते थे। वहां कोई शर्म नहीं, बल्कि विश्वास था। किसी के घर हलवा या कचौरी बने तो उसका स्वाद सारे मुहल्ले में बंटता। किसी के खेत में मटर, गन्ना, या जामुन लगे हों तो बच्चों की टोली वहां पहुँच जाती — बिना डर, बिना दूरी।
आज सब कुछ है — अमीरी भी, दिखावा भी, लेकिन दिलों की दूरी बढ़ गई है। अब कोई दरवाज़ा बिना इंटरकॉम नहीं खुलता, कोई मुस्कुराता चेहरा बिना मोबाइल स्क्रीन नहीं दिखता।
कभी गांव में किसी के भी घर मेहमान आए, वह पूरे गांव का मेहमान होता। नानी या मामा के घर जाओ तो पूरा गांव उसी रिश्ते से पुकारता। वो रिश्तों की मिठास अब शहरों की चमक में खो गई है।
क्या कभी हम फिर कह पाएंगे — “जा बेटा, पड़ोसी के चूल्हे से आग मांग ले...”?
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