🌈 खिलौनेवाला 🎈
गांवों और कस्बों में खिलौनेवाले का आना किसी मेले से कम नहीं होता था। उसके टोकरे में लकड़ी के घोड़े, मिट्टी की गाड़ियां, रुई के भालू, रंग-बिरंगी सीटियाँ और कभी-कभी हाथ से बने छोटे ढोलक होते। बच्चे अपने छोटे हाथों से उन्हें टटोलते और आंखों में चमक लिए माँ की ओर देखते — "माँ, ये वाला ले दो ना!"। माँ मुस्कुराकर मोलभाव करती और खिलौनेवाला स्नेह से कहता — "ले लीजिए बहनजी, बच्चे के लिए है, दो रुपये कम कर दिए।"
यह लेन-देन केवल पैसे का नहीं था, अपनत्व का था। खिलौनेवाला बच्चों के नाम पहचानता था, कभी किसी के जन्मदिन पर खास गुड़िया लाता, कभी त्योहार पर रंगीन चकरी। वह केवल खिलौने नहीं बेचता था, वह बच्चों के सपनों को आकार देता था।
लेकिन अब यह आवाज़ धीरे-धीरे हमारे शहरों से, फिर कस्बों से, और अब गांवों से भी गायब होती जा रही है। अपार्टमेंट संस्कृति, ऑनलाइन शॉपिंग और ब्रांडेड खिलौनों की चमक ने उस साधारण लेकिन आत्मीय खिलौनेवाले को दरकिनार कर दिया है। अब बच्चे खिलौने स्क्रीन पर देखते हैं, ऑर्डर करते हैं और कुरियर से पैकेट आते हैं — पर उसमें न खिलौनेवाले की मुस्कान है, न कहानी।
आज का बच्चा "मेड इन चाइना" के रंगीन खिलौनों से खेलता है, पर उनके पीछे न कोई किस्सा है, न आत्मा। पहले हर खिलौने में उस व्यक्ति का श्रम और सादगी होती थी जिसने उसे अपने हाथों से बनाया था। लकड़ी की महक, रंग की खुशबू और उस बेचने वाले की विनम्र आवाज़ — यह सब मिलकर खिलौनों को जीवंत बना देती थी।
सवाल यह नहीं कि दुनिया आगे बढ़ रही है; सवाल यह है कि इस प्रगति की दौड़ में हम क्या पीछे छोड़ रहे हैं? जब खिलौनेवाले का जाना हमें सामान्य लगने लगे, तो समझिए – हमने बचपन की आत्मीयता को तकनीक के बदले गिरवी रख दिया है।
शायद किसी दिन फिर किसी गली में कोई पुकार उठे — "खिलौने ले लो…"। बच्चे खिड़की से झांकें और माँ से पूछें — "माँ, ये कौन है?"
माँ हल्की मुस्कान के साथ कहे — "बेटा, ये वही है जो हमारे बचपन को हंसी देता था।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके बहुमूल्य कॉमेंट के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।