मंगलवार, 26 अगस्त 2025

बाजार में भावना की मोल-भाव

विदेशी कंपनियों का भावनात्मक जाल: भारतीय त्योहारों का व्यावसायीकरण और शोषण

विदेशी कंपनियों का भावनात्मक जाल: भारतीय संस्कृति और त्योहारों का शोषण

आज के बाजार में बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां भारतीय त्योहारों का व्यावसायीकरण कर रही हैं। वे हमारी संस्कृति, परंपराओं और त्योहारों को अपनी विज्ञापन कहानियों में पिरोकर हमें भावुक बनाती हैं और फिर उसी भावुकता का फायदा उठाकर मुनाफा कमाती हैं। यह कोई संयोग नहीं, बल्कि सोची-समझी रणनीति है। हमें लगता है कि हम अपनी संस्कृति का जश्न मना रहे हैं, पर असल में हम उनके उत्पादों के उपभोक्ता बन रहे हैं—यही भावनात्मक मार्केटिंग का शोषण है।1

भारतीय जीवन में त्योहारों का महत्व गहरा है—दिवाली की रोशनी, होली के रंग, रक्षाबंधन की डोर, दुर्गा पूजा का उत्साह। विदेशी ब्रांड इन्हीं प्रतीकों और पारिवारिक मिलन की कहानियों का इस्तेमाल करते हैं ताकि लगे कि खुशी का स्रोत उनका उत्पाद ही है। कथानक में नॉस्टैल्जिया, परिवार की एकता और “घर वापसी” जैसे फ्रेम बार-बार दोहराए जाते हैं, जिससे उपभोक्ता मान ले कि बिना ब्रांड के त्योहार अधूरा है।2

ये कंपनियां क्षेत्रीय भाषाओं, स्थानीय रीति-रिवाजों और पारिवारिक मूल्यों का सतही प्रयोग करके “अपनापन” रचती हैं, जबकि वास्तविक उद्देश्य त्योहारों के मौसम में बढ़े उपभोग को कैश करना है। नतीजतन, त्योहार जो परंपरागत रूप से आत्मिक जुड़ाव का समय थे, अब शॉपिंग और ब्रांड-प्रमोशन के अवसर में बदलते जा रहे हैं—यह विदेशी कंपनियों का शोषण है जो हमारी संस्कृति को बाज़ारी ढांचे में कैद करता है।3

आर्थिक असर के साथ सांस्कृतिक क्षरण भी होता है: सादगी और सामूहिकता की जगह दिखावा और अनावश्यक खर्च हावी होते हैं; परिवार बजट से बाहर जाते हैं और बाद में पछतावा बढ़ता है। भावनात्मक हेरफेर समाज में भौतिकवाद को सामान्य बनाता है, जिससे स्थानीय कारीगरों और छोटे व्यापारियों पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।4

समाधान स्पष्ट है: विज्ञापनों की कहानी बनाम वास्तविक जरूरत के बीच फर्क समझें; खरीद से पहले “जरूरत, बजट, टिकाऊपन” का तीन-प्रश्न परीक्षण अपनाएँ; स्थानीय/भारतीय उत्पादों को प्राथमिकता दें; त्योहारों का असली आनंद—परिवार, सादगी और सामूहिकता—फिर से केंद्र में लाएँ। जागरूक समाज ही ब्रांडों को अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर कर सकता है। हमारी भावनाएं हमारी हैं—मुनाफे का साधन नहीं।5


संदर्भ

  1. Chakraborty, S. (2023). Cultural Exploitation in Advertising. Economic & Political Weekly.
  2. Kumar, A. (2022). Emotions and Marketing in India. Journal of Consumer Behaviour Studies.
  3. Singh, R. (2021). Festivals and Commercialization. Indian Journal of Cultural Studies.
  4. Sharma, P. (2023). Impact of Emotional Marketing on Indian Consumers. Marketing Review India.
  5. Indiantelevision.com (2024). Advertising Trends in Indian Festivals.

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