भोजन, आभूषण और परिधान : हमारी संस्कृति की पहचान

भारत विविधताओं का देश है, जहाँ हर प्रांत, हर भाषा और हर परंपरा अपने भीतर एक अनोखी छवि समेटे हुए है। किसी भी समाज की असली पहचान उसकी जीवनशैली और रीति-रिवाजों से होती है, जिनमें भोजन, आभूषण और परिधान का विशेष स्थान है। ये केवल हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले साधन नहीं हैं, बल्कि हमारे अतीत, हमारी परंपरा और हमारी सांस्कृतिक धरोहर के जीवित प्रतीक भी हैं।

भारतीय संस्कृति में भोजन को सदैव पवित्र माना गया है। हमारे शास्त्रों में अन्न को ब्रह्म स्वरूप कहा गया है—"अन्नं ब्रह्म"। यही कारण है कि यहाँ भोजन को केवल स्वाद या स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि संस्कार और अनुष्ठान के रूप में देखा जाता है। उत्तर भारत में गेहूँ आधारित रोटियाँ, परांठे और दाल-सब्ज़ी की परंपरा है, तो दक्षिण भारत में चावल, सांभर, इडली और डोसा प्रमुख हैं। बंगाल में मछली और मिठाइयाँ, पंजाब में सरसों का साग और मक्के की रोटी तथा महाराष्ट्र में पूरनपोली क्षेत्रीय विशेषताओं को दर्शाते हैं। त्यौहारों पर विशेष पकवानों की परंपरा तो भारतीय समाज की आत्मा है—दीपावली पर लड्डू, होली पर गुजिया, ईद पर सेवइयाँ और क्रिसमस पर केक न केवल स्वाद के लिए बनाए जाते हैं, बल्कि ये विभिन्न धर्मों और समुदायों के बीच एकता और भाईचारे का भी संदेश देते हैं। यह विविधता भारतीय संस्कृति की गहराई और उसकी व्यापकता को प्रमाणित करती है¹

यदि भोजन हमारे संस्कारों का परिचायक है, तो आभूषण हमारे सौंदर्य और परंपरा का प्रतीक हैं। प्राचीन काल से ही भारतीय स्त्रियाँ आभूषणों से सुसज्जित होकर अपनी गरिमा को बढ़ाती रही हैं। सोने-चाँदी के गहनों से लेकर कौड़ियों और पीतल के आभूषण तक, हर स्तर के आभूषणों में केवल चमक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संदेश भी छिपा होता है। विवाह, जन्मोत्सव और त्योहारों पर आभूषण धारण करना शुभ माना जाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि आभूषण केवल महिलाओं तक सीमित नहीं रहे; प्राचीन भारत में पुरुष भी मुकुट, बाजूबंद और अंगूठियाँ पहनते थे। गहने सिर्फ धातु और रत्नों का मेल नहीं हैं, बल्कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होने वाली धरोहर हैं—माँ-बेटी, दादी-नातिन के बीच गहनों का भावनात्मक आदान-प्रदान केवल आभूषण नहीं, बल्कि आत्मीयता और परंपरा का प्रवाह है²

भारतीय परिधान भी इसी प्रकार हमारी सांस्कृतिक पहचान के दर्पण हैं। हमारे वस्त्र केवल शरीर ढकने का साधन नहीं, बल्कि वे हमारी भौगोलिक परिस्थितियों और सामाजिक परंपराओं का आईना हैं। साड़ी, धोती, कुर्ता-पायजामा, लहँगा-चोली, शेरवानी जैसे वस्त्र भारतीयता के प्रतीक हैं। राजस्थान के रंग-बिरंगे परिधान, कश्मीर का फेरेन, दक्षिण की साड़ियाँ और उत्तर की पगड़ी अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं और गर्व को व्यक्त करते हैं। विवाह और पर्व-त्योहारों पर इन परिधानों का महत्व और भी बढ़ जाता है। यद्यपि आधुनिक युग में पाश्चात्य परिधानों का प्रभाव बढ़ा है, फिर भी पारंपरिक वेशभूषा का आकर्षण आज भी अडिग है—जब कोई युवती साड़ी पहनती है या कोई युवक कुर्ता-पायजामा धारण करता है, तो उसमें केवल वस्त्र का सौंदर्य नहीं झलकता, बल्कि भारतीयता की आत्मा भी प्रकट होती है³

अतः भोजन, आभूषण और परिधान हमारी संस्कृति की आत्मा के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं। ये केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते, बल्कि हमारी पहचान को सजीव रखते हैं और हमें अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। भारत की विविधता में जो एकता दिखाई देती है, उसमें इन तीनों का अहम योगदान है। जब हम पारंपरिक भोजन का स्वाद लेते हैं, विरासत में मिले गहनों को संजोते हैं और अपनी परंपरागत वेशभूषा धारण करते हैं, तब हम केवल अपनी जीवनशैली को समृद्ध नहीं करते, बल्कि अपनी संस्कृति की शाश्वत ज्योति को भी प्रज्वलित करते हैं—यही कारण है कि कहा जाता है, "भोजन, आभूषण और परिधान, हमारी संस्कृति की हैं पहचान।"

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संदर्भ

  1. शर्मा, विजय. भारतीय संस्कृति और परंपराएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019. ↩︎
  2. पांडेय, राधेश्याम. भारतीय आभूषण: इतिहास और समाज, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2017. ↩︎
  3. त्रिपाठी, माधुरी. भारतीय वेशभूषा और विविधता, साहित्य भवन, प्रयागराज, 2020. ↩︎