शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

चौरचन: मिथिला का चंद्र-पर्व

चौरचन: मिथिला का चंद्र-पर्व

आइए सीखे, पर्यावरण चेतना अपनी परंपरा से..!

📖 अनुमानित पठन समय: 5 से 6 मिनट | 📝 लेखक: श्री. अरविंद बारी, शिक्षक, प्रशिक्षक और हिंदी सेवी।
चौरचन - मिथिला का यह अनूठा पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि आधुनिक युग में पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है।

मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर में असंख्य लोकपर्व अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं। इन पर्वों का स्वरूप केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं, बल्कि वे जीवन की सामाजिकता, पारिवारिकता और कृषि-आधारित व्यवस्था से भी गहराई से जुड़े हुए हैं। इन्हीं पर्वों में भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला चौरचन विशेष स्थान रखता है। इसे स्थानीय बोलचाल में "चौठ-चंद" कहा जाता है।

यह पर्व चंद्रमा की आराधना का उत्सव है, परंतु इसके भीतर छिपी जीवन-दृष्टि, दार्शनिक गहराई और समाजशास्त्रीय महत्ता इसे मात्र अनुष्ठान न बनाकर जीवन का उत्सव बना देती है। मानो आकाश से झरती चाँदनी ही मानवता के लिए एक शीतल संदेश बनकर उतरती हो।

🌾 कृषि और परंपरा से जुड़ा पर्व

चौरचन का उद्भव मिथिला की कृषि-प्रधान जीवनशैली में हुआ। जब वर्षा ऋतु के बाद धान की फसलें हरियाली से लहलहा उठती हैं और चंद्रमा अपनी शीतल आभा से धरती को आलोकित करता है, तब किसान उसे स्थिरता और समृद्धि का प्रतीक मानते हैं। वैदिक साहित्य में चंद्रमा को "अन्न और औषधि का स्वामी" कहा गया है।

पारंपरिक रीति-रिवाज: इस पर्व पर आँगन में चौकपूरी (अल्पना) बनाई जाती है, मिट्टी के पात्र में चंद्र-प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है तथा मौसमी अन्न-फल, खीर, मालपुआ, दही-चावल जैसे पकवान अर्पित किए जाते हैं।

परिवारजन सामूहिक रूप से भोजन ग्रहण कर रिश्तों की डोर को और भी प्रगाढ़ बनाते हैं। यह केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि "एकता में बल है" की कहावत को साकार करता हुआ सामाजिक मिलन भी है।

🧘‍♂️ दार्शनिक दृष्टिकोण

दार्शनिक दृष्टि से यह पर्व हमें जीवन की उस गूढ़ सच्चाई का बोध कराता है कि मनुष्य का अस्तित्व प्रकृति की लय के बिना अधूरा है। चंद्रमा की शीतलता केवल खगोलीय घटना नहीं, बल्कि मानवीय मन की शांति का प्रतीक है।

यह हमें सिखाता है कि जीवन में संघर्ष और विश्रांति, श्रम और फल, इच्छा और संयम का संतुलन ही वास्तविक सुख की कुंजी है। यही कारण है कि चौरचन केवल पूजा का दिन नहीं, बल्कि "मनुष्य और प्रकृति के सहजीवन" का महापर्व है।

👨‍👩‍👧‍👦 सामाजिक बंधन और साझेदारी

चौरचन एकता, साझेदारी और पारिवारिक सामंजस्य का जीवंत उदाहरण है। जब पूरा परिवार आँगन में एकत्रित होकर पूजा करता है, पकवान बनाता है और गीत गाता है, तब यह अनुभव "साझा जीवन" का सजीव रूपक बन जाता है।

समाजशास्त्र की दृष्टि से यह पर्व हमें सिखाता है कि भोजन और उत्सव का मूल्य केवल व्यक्तिगत उपभोग में नहीं, बल्कि उसमें है जहाँ वह समाज को जोड़ने का सेतु बने। इस पर्व में बुज़ुर्गों से लेकर बच्चों तक सबकी समान भूमिका होती है।

🌱 पर्यावरण चेतना का संदेश

आधुनिक संदेश: जब मानवता जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के संकट से जूझ रही है, तब चौरचन हमें पर्यावरणीय चेतना का मार्ग दिखाता है।

मौसमी व स्थानीय अन्न का प्रयोग "सस्टेनेबल फूड प्रैक्टिस" का आदर्श है, वहीं घर-आँगन की सफाई और चौक बनाना स्वच्छता और पर्यावरण-संरक्षण की शिक्षा देता है।

भविष्य की दिशा: यदि चंद्र अर्घ्य के साथ वृक्षारोपण या पौधों की देखभाल का अनुष्ठान भी जोड़ा जाए, तो यह पर्व न केवल परंपरा का सम्मान करेगा, बल्कि भविष्य के लिए पर्यावरण-संरक्षण का दीप भी जलाएगा।

सच कहा जाए तो चौरचन मिथिला की सांस्कृतिक स्मृति ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकृति-सम्मत जीवन का संकल्प है—एक ऐसा संकल्प, जिसमें आस्था और विज्ञान, दोनों हाथ मिलाते प्रतीत होते हैं।

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📚 संदर्भ

  1. ऋग्वेद एवं अथर्ववेद – चंद्रमा का महत्व।
  2. रामवृक्ष बेनीपुरी: लोकपर्व और संस्कृति
  3. United Nations Report on Sustainable Practices, 2022।

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