वाणी: नमस्कार श्रोताओं, आज हम 'इंडीकोच' के विशेष कार्यक्रम "संवाद: समाज के साथ" में आपको हम एक ऐसी शख्सियत से मिलवाने जा रहे हैं, जिन्होंने देशभर में हजारों महिलाओं की ज़िंदगियाँ बदली हैं। हमारे साथ हैं डॉ. सविता देशमुख (काल्पनिक नाम)। सविता जी, आपका स्वागत है।
डॉ. सविता: धन्यवाद वाणी। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आज आपके मंच से इस बेहद जरुरी विषय पर बात करने का मौक़ा मिल रह है।
वाणी: सविता जी, आज़ादी के बाद महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और सशक्तिकरण के लिए भारत सरकार ने कई अहम क़ानून बनाए हैं। लेकिन क्या आपको लगता है कि इन क़ानूनों का असर ज़मीनी हक़ीक़त में भी दिखाई देता है? क्या सचमुच आम महिला की ज़िंदगी में कोई ठोस बदलाव आया है?
डॉ. सविता: कानून अपने आप में परिवर्तन का साधन नहीं, बल्कि उसके लिए आधार तैयार करते हैं। हाँ, शिक्षा, संपत्ति के अधिकार, कार्यस्थल पर सुरक्षा, दहेज निषेध, घरेलू हिंसा से संरक्षण आदि कानून और POSH जैसे विधानों ने महिलाओं को अपनी बात कहने का साहस अवश्य दिया है। लेकिन सच्चा परिवर्तन तब होता है जब समाज उन कानूनों के पीछे की भावना को आत्मसात करे।
वाणी: तो क्या यह कहना उचित होगा कि हमारे समाज में आज भी स्त्री के प्रति सोच में वही रूढ़ियाँ और पूर्वाग्रह मौजूद हैं, जो उसकी तरक्की की राह में दीवार बनकर खड़े हैं?
डॉ. सविता: बिल्कुल सही कहा आपने। कई बार महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में जानती तो हैं, लेकिन सामाजिक दबाव या संसाधनों की कमी के कारण उनका प्रयोग नहीं कर पातीं। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी महिलाएं शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं। शहरी क्षेत्रों में भी, भले ही अवसर बढ़े हैं, लेकिन सामाजिक वर्जनाओं की दीवार पूरी तरह गिरी नहीं है — महिलाएं मेहनत करती हैं, परंतु निर्णय लेने वाले पदों तक उनकी पहुँच अब भी सीमित है।
वाणी: हाल के वर्षों में हमने देखा है कि महिलाएं नेतृत्व के क्षेत्र में आगे आई हैं — क्या आप इसे एक सकारात्मक बदलाव का संकेत मानती हैं?
डॉ. सविता: निस्संदेह, यह बदलाव न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि उम्मीद भी जगाता है। जब कोई गाँव की बेटी वैज्ञानिक बनती है या कोई गृहिणी सफल उद्यमी के रूप में उभरती है, तो वह सिर्फ़ अपनी नहीं, पूरे समाज की सोच को बदलती है।
लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि ऐसी सफलताएँ आज भी अपवाद हैं, नियम नहीं। हमें प्रयास करना होगा कि ये अपवाद भविष्य में सामान्य उदाहरण बनें — ताकि हर महिला को अपनी क्षमताओं को पूरी तरह जीने का अवसर मिल सके।
वाणी: इस बदलाव में युवाओं की क्या भूमिका आप देखती हैं? विशेष रूप से स्कूल और कॉलेजों में पढ़ने वाली इस नई पीढ़ी की?
डॉ. सविता: आपने जरूर सुने होगे कि —
'संघर्षों के साये में इतिहास हमारा पलता है,
जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर ज़माना चलता है।'
तो यह बदलाव की शुरुआत है — आज की जवानी वाकई में परिवर्तन की वाहक बन रही है। लड़कियाँ निडर होकर अपने अधिकारों के लिए बोल रही हैं, और लड़के उनके साथ मजबूती से खड़े हैं। मुझे संतोष होता है जब मैं देखती हूँ कि छात्र-छात्राएं लैंगिक समानता को एक मुद्दा नहीं, बल्कि अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझते हैं।
वाणी: क्या आपको लगता है कि सच्ची समानता एक दिन पूरी तरह संभव है?
डॉ. सविता: मैं आशावादी हूँ। समानता की राह लंबी है, लेकिन असंभव नहीं। हमें शिक्षा को और अधिक समावेशी बनाना होगा, परिवारों को लड़कियों के सपनों का समर्थन करना होगा, और पुरुषों को समानता का सहभागी बनाना होगा, केवल पर्यवेक्षक नहीं।
वाणी: अत्यंत सुंदर विचारहैं आपके! एक अंतिम प्रश्न — आप इस संदर्भ में आज की युवा पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगी?
डॉ. सविता: मैं केवल यही कहूँगी —
समानता केवल पाने की चीज़ नहीं, निभाने की ज़िम्मेदारी भी है।
जब तक आप अपने चारों ओर भेदभाव देख कर चुप रहेंगे, तब तक समाज बदलेगा नहीं। चुप्पी तोड़िए, आवाज़ उठाइए, साथ दीजिए, और बदलाव का हिस्सा बनिए।
वाणी: डॉ. सविता देशमुख, आपके विचारों ने न केवल हमारी समझ को समृद्ध किया है, बल्कि हमें सोचने पर भी विवश किया है। धन्यवाद आपका, हमारे साथ जुड़ने के लिए।
यह साक्षात्कार दर्शाता है कि भारत ने कानूनों और पहलों के माध्यम से बदलाव की नींव रखी है, परंतु स्थायी परिवर्तन के लिए मानसिकता में क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता है। युवा वर्ग इस बदलाव की चाबी है — और उनके हाथ में है वह शक्ति जिससे समानता केवल विचार नहीं, यथार्थ बन सके।