भारतीय लोक-स्मृति में घोड़ा, शौर्य का सांस्कृतिक प्रतीक
कठघोड़ा या कठघोड़वा नृत्य भारतीय लोक–जीवन के उन्हीं जीवित रूपों में से एक है, जहाँ संस्कृति काग़ज़ पर दर्ज होकर नहीं, लोगों की चाल–ढाल, त्यौहार, स्मृति और स्वभाव में बहती है। यह दरबारी सौंदर्य का उत्पाद नहीं, बल्कि चौपाल, आँगन और खेत–खलिहान की वह चलती-फिरती पाठशाला है, जिसमें कला और जीवन अलग नहीं हैं। मध्य भारत, राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के लोकक्षेत्रों में इसकी भिन्न-भिन्न छवियाँ मिलती हैं, पर इसकी आत्मा एक है — घोड़े के शौर्य, गति और स्वाभिमान को सामूहिक उत्सव की देह देना। नर्तक कमर में कृत्रिम घोड़ा बाँधते हैं, जिसका ढाँचा भीतर से हल्का और ऊपर से गोटा–पत्ती, शीशा, काढ़ी और रंग-बिरंगे कपड़ों से सजा होता है। नीचे पैर छिप जाते हैं, ऊपर से ताल पर घूमता “घोड़ा” ऐसा भ्रम रचता है मानो सचमुच उड़ान भर रहा हो। ढोलक, झांझ, नगाड़ा और बांसुरी की धुन पर यह प्रदर्शन कभी वीरभाव में, कभी हास्य–ठिठोली में, तो कभी श्रृंगार–रस में प्रस्तुत होता है और गाँव के त्यौहार, बारात, फसल–उत्सव या ग्रामदेवता से जुड़े अनुष्ठानों का अभिन्न हिस्सा बन जाता है।
भारतीय स्मृति में घोड़ा केवल सवारी का पशु नहीं — वह युद्ध, यात्रा, विवाह, शक्ति और प्रतिष्ठा का सांकेतिक योग रहा है। कठघोड़ा नृत्य इसी दीर्घ स्मृति को नए समय में फिर से जगा देता है। लोकमान्यता यह रही कि ऐसे उत्सव अशुभता को काटते हैं, गाँव की रक्षा-चेतना और कृषि-चक्र की निरंतरता को बल देते हैं। यह विश्वास तर्क की प्रयोगशाला में नहीं, पीढ़ियों के अनुभव की कसौटी पर खरा उतरकर बचा है। इस नृत्य की तैयारी में पूरा समुदाय कंधे से कंधा मिलाता है — कोई ढाँचा बनाता है, कोई सजावट करता है, कोई ताल साधता है, कोई गीत भरता है। लोक में सच ही कहा गया है — “एक और एक ग्यारह”; यह नृत्य उसी सामुदायिक शक्ति का जीवित उदाहरण है।
दिलचस्प यह है कि यह सांस्कृतिक मुहावरा भारत तक सीमित नहीं। जापान के उमा-ओडोरी में घोड़े का प्रतीक समृद्धि का संकेत है, स्पेन के हॉबी हॉर्स पर्व में यह वीरता और सत्ता-स्मृति का ध्वज है, ब्रिटेन का ओबी-ऑस डांस वसंत और उर्वरता का लोक-पर्व है, जबकि चीन का माशांग पितृपरंपरा और सामुदायिक एकता से जुड़ा रूप है। भाषा, भूगोल, देवता और विधि भले बदल जाएँ, पर प्रतीक वहीं लौटकर आता है — घोड़ा शक्ति, प्रतिष्ठा और लोक–उत्सव का सार्वभौम सांस्कृतिक संकेतक बनकर। यह सिद्ध करता है कि “रूप बदलता है, रस नहीं”; मनुष्य की सामूहिक स्मृति कुछ मूल प्रतीकों पर बार-बार लौटती है।
अब संकट यह नहीं कि कठघोड़ा रहेगा या मिटेगा; असली प्रश्न यह है कि वह अपनी लोक-मर्यादा और मिट्टी के मिज़ाज में बचेगा या मंचीय–व्यावसायिक चमक में अपना स्वभाव खो देगा। लोककला किसी समाज की सजावट नहीं, उसकी स्मृति–आत्मा है। जिस दिन स्मृति टूटती है, उसी दिन संस्कृति भीतर से मृत होने लगती है, चाहे ऊपर से जीवन का शोर कितना ही क्यों न हो। कठघोड़वा नृत्य हमें यह याद दिलाता है कि समुदाय केवल लोगों का समूह नहीं, बल्कि उनकी निरंतर स्मृतियों और प्रतीकों का साझा घर होता है। यही कारण है कि यह नृत्य आज भी उतना ही अर्थवान है — क्योंकि यह बीते समय को वर्तमान में और वर्तमान को परंपरा में इस सहजता से जोड़ देता है कि समाज बिना इतिहास का बोझ उठाए, इतिहास से जुड़ा रहता है।
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