भारतीय पारिस्थितिकी के अनुरूप वृक्षारोपण हो
सुबह की ताज़ी हवा में गाँव का रास्ता मानो किसी पुराने गीत की धुन-सा गुनगुना रहा हो। तालाब किनारे खड़ा विशाल पीपलपीपल — Ficus religiosa; पारंपरिक रूप से "वृक्षराज" माना जाता है। अपनी हज़ारों पत्तियों से मंद फुसफुसा रहा है। बाबा बच्चों को कहते हैं — "जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तब हर घर के आँगन में नीमनीम — Azadirachta indica; कीटनाशक व औषधीय गुणों से समृद्ध।, बेल और आंवला होते थे..."
हज़ारों वर्ष पुराना शास्त्रीय संदेश आज विज्ञान के साथ मिलकर कहता है कि हमारे पारंपरिक वृक्ष — पीपल, नीम, वट, इमली, बेल, आंवला और आम — न केवल धार्मिक मान्यताओं का हिस्सा हैं, बल्कि पर्यावरण की रीढ़ भी हैं।
अश्वत्थमेकम् पिचुमन्दमेकम् न्यग्रोधमेकम् दश चिञ्चिणीकान्।
कपित्थबिल्वाऽऽमलकत्रयञ्च पञ्चाऽऽम्रमुप्त्वा नरकन्न पश्येत्॥— स्कन्दपुराण
प्राचीन श्लोक बताता है: जो कोई इन वृक्षों के पौधे लगाएगा और उनकी सेवा करेगा, उसे जीवन में कष्ट कम भुगतने पड़ेंगे। आधुनिक शोध भी पुष्टि करता है कि ये पेड़ वायुमंडल से बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं — पीपल ~100%, नीम/वट/इमली/कविट लगभग 80%, बेल ~85%, आंवला ~74% और आम ~70% तक।[1]
पारंपरिक ज्ञान और पर्यावरणीय प्रभाव
हमारी परंपरा में पेड़ों को देवताओं का निवास मानकर पूजा की जाती थी — यह केवल आस्था नहीं, बल्कि पर्यावरण संबंधी समझ भी थी। पीपल के पत्तों और शाखाओं से जुड़े रीति-रिवाजों के पीछे संरक्षण का सन्देश छिपा है।
गलत विकल्प: नीलगिरी और गुलमोहर
पश्चिमी देशों के मॉडल का अंधानुकरण करते हुए हमने कुछ विदेशी प्रजातियाँ जैसे नीलगिरीनीलगिरी — Eucalyptus; तेज़ी से बढ़ता है पर नीचे की मिट्टी और भूजल पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। और गुलमोहर सड़कों पर लगाए — ये दिखने में आकर्षक हैं पर पारिस्थितिकी पर हानिकारक प्रभाव छोड़ते हैं। नीलगिरी जल-स्तर घटाता है और दलदली जमीन को सुखा सकता है।[2]
हम क्या कर सकते हैं — एक व्यवहारिक योजना
निचे दिए आसान कदम IGCSE छात्रों के समूह, स्कूलों और मोहल्लों के लिए उपयुक्त हैं:
- प्रत्येक 500 मीटर पर कम-से-कम एक पारंपरिक वृक्ष (पीपल/नीम/बड़/आंवला/आम) लगवाना।
- स्कूलों में 'वृक्ष-पालन क्लब' बनाकर छात्रों को पौधरोपण और देखभाल की ज़िम्मेदारी देना।
- घर-घर तुलसी के पौधे लगाना — घरेलू ऑक्सीजन और औषधीय लाभ।
- स्थानीय जल-संकट वाले क्षेत्रों में नीलगिरी के स्थान पर स्थानिक प्रजातियाँ लगाना।
कहानी का अंत — परेडाइस लौटेगा
कल्पना कीजिए: कुछ वर्षों में वही गाँव जहाँ बच्चे अब सवाल करते थे — वही गली अब नीम की छाँव, तालाब भरता पानी और पीपल की ठंडक से भरा होगा। यह परिवर्तन सम्भव है — पर समर्पण और धैर्य चाहिये।
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भारतीय पारिस्थितिकी के अनुरूप वृक्षारोपण हो
A. भारत की पारिस्थितिकी विविधता और समृद्ध प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण है, जिसमें हिमालय की ऊँची चोटियों से लेकर दक्षिण के समुद्रतटों तक, हर क्षेत्र की अपनी विशिष्ट जलवायु और मिट्टी की परिस्थितियाँ हैं। ऐसे में वृक्षारोपण केवल हरित आवरण बढ़ाने का साधन नहीं, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण का महत्वपूर्ण उपाय भी है। यदि हम बिना सोचे-समझे विदेशी प्रजातियों के पौधे लगाएँ तो वे स्थानीय जैव विविधता को नुकसान पहुँचा सकते हैं और जल संसाधनों पर अनावश्यक दबाव डाल सकते हैं। इसीलिए वृक्षारोपण योजना बनाते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पौधों की प्रजाति उसी क्षेत्र की जलवायु, मिट्टी और वर्षा के अनुकूल हो।
B. स्थानीय और स्वदेशी वृक्ष प्रजातियों का चयन न केवल पर्यावरण संतुलन बनाए रखता है, बल्कि पक्षियों, कीटों और अन्य जीवों को उनका प्राकृतिक आवास भी प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में खेजड़ी, बबूल और नीम जैसे वृक्ष पानी की कमी में भी फलते-फूलते हैं, जबकि उत्तर-पूर्वी भारत में बांस और साल के वृक्ष वर्षा की अधिकता में उपयुक्त रहते हैं। इस प्रकार, क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं के अनुसार वृक्षारोपण करने से प्रकृति और मानव दोनों को समान रूप से लाभ मिलता है।
C. वृक्षारोपण केवल पर्यावरण सुधार का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण का साधन भी बन सकता है। यदि हम ऐसे पौधे लगाएँ जो फल, औषधि या ईंधन के रूप में उपयोगी हों, तो ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में लोगों की आजीविका के नए अवसर पैदा हो सकते हैं। इसके अलावा, वृक्षों की जड़ें मिट्टी के कटाव को रोकती हैं, भूजल स्तर को बनाए रखती हैं और वायु प्रदूषण को भी कम करती हैं। यह सब भारतीय पारिस्थितिकी के अनुकूल वृक्षारोपण के महत्व को और अधिक स्पष्ट करता है।
D. आज जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट बढ़ते जा रहे हैं, तो हमें वृक्षारोपण को केवल एक प्रतीकात्मक गतिविधि नहीं, बल्कि दीर्घकालिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपनाना होगा। सरकार, गैर-सरकारी संस्थाएँ, विद्यालय और आम नागरिक मिलकर ऐसी योजना बना सकते हैं, जिसमें प्रत्येक क्षेत्र की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर पौधे लगाए जाएँ। यही सच अर्थों में ‘भारतीय पारिस्थितिकी के अनुरूप वृक्षारोपण’ होगा, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ, हरित और संतुलित वातावरण सुनिश्चित करेगा।
📚 अभ्यास (IGCSE)
- पाठ का सार 100 शब्दों में लिखिए।
- स्कंदपुराण के श्लोक का क्या अर्थ निकला? 2-3 वाक्यों में समझाइए।
- नीलगिरी लगाने के क्या नकारात्मक प्रभाव बताए गए? तर्क सहित एक नोटलिखिए।
🌳 पेड़ की जड़ों का संरक्षण - अभ्यास प्रश्न 🌳
- *स्कन्दपुराण*, श्लोक (उदाहरण के लिए प्रस्तुत)।
- शोध-लेख: नीलगिरी और भूजल पर प्रभाव — पर्यावरण अध्ययन (संदर्भ सार्वजनिक शोध)।
- पर्यावरण मंत्रालय/स्थानीय पारिस्थितिकी रिपोर्ट्स — कार्बन अवशोषण संबंधी आँकड़े (संदर्भ सारांश)।
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