सोशल मीडिया – संवाद का वरदान या आत्मीयता का संकट?
आज जब हम संवाद के बदलते स्वरूपों की चर्चा करते हैं, तो सबसे पहले जिस माध्यम का नाम सामने आता है, वह है – सोशल मीडिया। यह वह आधुनिक मंच है, जिसने हमारे संचार तंत्र को न केवल तीव्र और वैश्विक बनाया है, बल्कि हमारी सोच, जीवनशैली और संबंधों को भी गहराई से प्रभावित किया है। किंतु प्रश्न यह है कि क्या इसने हमारे संवाद को सजीव बनाया है या आत्मीयता को निगल लिया है?
एक समय था जब संवाद केवल शब्दों तक सीमित नहीं होता था, बल्कि उसमें चेहरे की मुस्कान, आँखों की भाषा, मौन की गरिमा और स्पर्श की ऊष्मा शामिल होती थी। किसी के पास बैठकर बात करना ही रिश्तों की जड़ें मजबूत करता था। परंतु आज यह परिदृश्य तेजी से बदल गया है। अब अधिकतर बातें वॉट्सएप, इंस्टाग्राम, फेसबुक या टेलीग्राम जैसे माध्यमों पर होती हैं, जहाँ अभिव्यक्ति होती तो है, पर उसमें संवेदना की ऊष्मा अक्सर अनुपस्थित होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सोशल मीडिया ने हमें अनेक लाभ दिए हैं। दूरी की सीमाएँ समाप्त हो गई हैं, जिससे हम विश्व के किसी भी कोने में अपने प्रियजनों से तुरंत संपर्क कर सकते हैं। सूचना और ज्ञान का त्वरित आदान-प्रदान संभव हुआ है, जो शिक्षा और व्यवसाय के क्षेत्र में एक क्रांति जैसा है। विशेष रूप से महामारी के दौरान जब विश्व लॉकडाउन में था, तब सोशल मीडिया ने ऑनलाइन कक्षाओं, वर्चुअल मीटिंग्स और डिजिटल इवेंट्स के माध्यम से मानवता को जोड़कर रखा।
परंतु दूसरी ओर इसका नकारात्मक प्रभाव भी गहराता जा रहा है। सोशल मीडिया के कारण प्रत्यक्ष संवाद की आदत में कमी आई है। आज घरों में सभी सदस्य एक साथ बैठते ज़रूर हैं, परंतु हर कोई अपने मोबाइल में खोया होता है। भावनात्मक जुड़ाव जो रिश्तों की आत्मा होते हैं, वे धीरे-धीरे डिजिटल लाइक्स, इमोजी और रिएक्शन्स के नीचे दबते जा रहे हैं।
"मौन भी एक संवाद है, जब हृदय से होता है।" - महात्मा गांधी
आज की डिजिटल दुनिया में संवाद इतना तेज हो गया है कि हम मौन की शक्ति को भूल चुके हैं। हमें यह समझना होगा कि संवाद केवल शब्दों का आदान-प्रदान नहीं, बल्कि यह एक गहरी मानवीय प्रक्रिया है जो एक-दूसरे की उपस्थिति, सहानुभूति और विश्वास से फलती-फूलती है।
"हर नई तकनीक कुछ देती है, लेकिन साथ ही कुछ छीन भी लेती है।" - नैल पोस्टमैन
सोशल मीडिया ने संवाद को गति दी, परंतु उसने उसे स्थायित्व और आत्मीयता से भी दूर किया। बच्चों की भाषा में बदलाव, युवाओं का आत्म-केन्द्रित व्यवहार और रिश्तों की सतही परिभाषाएँ इस माध्यम के दुष्परिणाम हैं।
आज आवश्यकता है संतुलन और विवेक की। हमें सोशल मीडिया का उपयोग इस प्रकार करना होगा कि वह हमारे जीवन को सूचना, संवाद और जुड़ाव का साधन बनाए, न कि अकेलेपन और रिश्तों के ह्रास का कारण। परिजनों के साथ एक cup चाय पर की गई बात, मित्रों के साथ बैठकर हुई हँसी-मज़ाक, और बुजुर्गों के अनुभवों को सुनना – ये सभी ऐसी 'वास्तविक' बातें हैं जो किसी भी डिजिटल संवाद से कहीं अधिक पोषक और स्मरणीय होती हैं।
संक्षेप में, सोशल मीडिया एक शक्ति है, एक अवसर है, परंतु यह तभी तक वरदान है जब तक हम उसे मनुष्यता की गरिमा और संबंधों की आत्मीयता के साथ संतुलित रूप से अपनाते हैं। वरना यही शक्ति धीरे-धीरे हमें मशीनों की तरह बोलता हुआ पर समझता नहीं, जोड़ता हुआ पर जुड़ता नहीं, और बताता हुआ पर सुनता नहीं – ऐसा एक 'आभासी मानव' बना देगी।
📎 फुटनोट्स (संदर्भ):
[1] Neil Postman. Technopoly: The Surrender of Culture to Technology, 1992.
[2] महात्मा गांधी का उद्धरण: "Silence is a great language when it comes from the heart."
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