स्त्रियाँ: फूल नहीं, वे तो समाज की जड़ें हैं
यह वाक्य एक गहरे सामाजिक भ्रम को उजागर करता है। आम तौर पर स्त्रियों को कोमलांगी, सौंदर्य और स्नेह की मूर्ति मानते हुए उन्हें 'फूल' कहा जाता है। लेकिन यह उपमा उन्हें सतही और सजावटी बना देती है — जैसे वे केवल घर की शोभा बढ़ाने वाली कोई वस्तु हों। परंतु वास्तविकता यह है कि वे उस वृक्ष की 'जड़ें' हैं, जिसकी छांव में हमारा समूचा समाज सांस लेता है।
मीडिया, फिल्म और विज्ञापन में नारी की छवि: सजावट से परे
आजकल के मीडिया, टीवी शो, फिल्में और विज्ञापन स्त्रियों की छवि को केवल सजावट और सौंदर्य तक सीमित कर देते हैं। वहाँ महिलाओं को दिखाया जाता है जैसे वे महज आंखों को भाने के लिए हों। एक वक्त था जब विज्ञापनों और फिल्मों में नारी को केवल घरेलू भूमिका तक सीमित किया जाता था, लेकिन अब यह छवि बदल रही है।
परंतु, इसके बावजूद समाज में स्त्रियाँ उन कथित 'सजावटी' भूमिकाओं से कहीं अधिक हैं। मीडिया में दिखने वाली नारी अब केवल आकर्षण का केंद्र नहीं है, बल्कि वह वास्तविकता में हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही है।
स्त्री: कोमलांगी नहीं, शक्ति की परिभाषा
समाज में स्त्री को लेकर जो छवि बनाई गई है, वह बहुत हद तक पुरातन सोच से प्रेरित है। परंतु महर्षि अरविंद कहते हैं, "The future belongs to women. She is the mother of the new creation." — अर्थात्, स्त्री भविष्य की निर्माता है, वह जो जन्म देती है, वह जो संस्कृति को पालती है।
पौराणिक स्त्रियाँ: सजावट नहीं, संरचना की नींव
रामायण की सीता हों या महाभारत की द्रौपदी — उन्होंने सिर्फ परिवार को नहीं, पूरे युग को प्रभावित किया। सीता की सहनशीलता और द्रौपदी की न्यायप्रियता आज भी समाज के लिए आदर्श हैं। सावित्री, जिसने यमराज से अपने पति का जीवन वापस लिया, क्या वह केवल कोमलांगी थी? नहीं, वह आत्मबल और धैर्य की सजीव प्रतिमा थी।
आधुनिक संदर्भ: स्त्री केवल नहीं, स्तंभ है
आज की स्त्री न केवल घर चलाती है, बल्कि देश भी। कल्पना चावला, किरण बेदी, कल्पना सरोज, मैरी कॉम या सुधा मूर्ति — ये सभी महिलाएं समाज की जड़ों में गहराई से जुड़ी हुई हैं। वे निर्णय लेती हैं, पीढ़ियाँ गढ़ती हैं और मूल्यों को जीती हैं।
मीडिया और विज्ञापन में स्त्री की सही पहचान:
अब जब हम मीडिया की छवि की बात करते हैं, तो यह ध्यान देने योग्य है कि कई फिल्मों और विज्ञापनों में स्त्री को अब केवल सजावट नहीं, बल्कि प्रगति और आत्मनिर्भरता का प्रतीक दिखाया जाता है। उदाहरण के तौर पर, फिल्में जैसे "पीकू" और "तुम्हारी सुलु" ने स्त्रियों को सशक्त रूप में दर्शाया है।
परिवार: स्त्री का गढ़ और समाज का आधार
कभी-कभी यह पूछा जाता है — "घर को कौन संभालता है?" उत्तर सीधा है — वह स्त्री, जो घर को सिर्फ ईंटों से नहीं, संस्कारों से जोड़ती है। दादी की कहानियों से लेकर माँ की ममता तक, घर की हर दीवार स्त्री के स्पर्श से सींची जाती है।
भावनाओं की मिट्टी में बसी जड़ें
स्त्री के मन में हजारों भावनाएँ होती हैं — त्याग, ममता, साहस, समर्पण और सहिष्णुता। पर वह कोई कोमलांगी फूल नहीं, जो एक झोंके में झर जाए — वह जड़ है, जो तूफान में भी टिके रहती है।
निष्कर्ष: जड़ों को फूल बनाकर मत आंकिए
स्त्रियाँ फूल से कहीं अधिक हैं। वे उस वृक्ष की जड़ें हैं जो पीढ़ियों को थामे हुए है। वे दिखती नहीं, पर उनका अस्तित्व सबसे गहरा होता है। अगर जड़ें न हों, तो कोई फूल, कोई फल, कोई पत्ता नहीं रह पाएगा। अतः स्त्रियों को फूल नहीं, जड़ कहिए — वह आधार जिन पर परिवार, समाज और सभ्यता टिकी है।
संदर्भ:
[1]: Aurobindo, Sri. "The Human Cycle" (1916), Arya Publishing.
[2]: Chattopadhyaya, Kamaladevi. "Indian Women's Movement" – National Book Trust.
[3]: Kapila Vatsyayan, "Women and Culture", ICCR Lectures Series.