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वनों की कटाई से व्यथित पशु-पक्षी |
विकास की चकाचौंध में मनुष्य अपने कदम तेजी से आगे बढ़ा रहा है, लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि इस तथाकथित प्रगति की कीमत कौन चुका रहा है? ऊँची इमारतें, चौड़ी सड़कें और फैले हुए उद्योगों के लिए हम वन्य जीवन का बलिदान दे रहे हैं। हमारे विकास की होड़ में प्रकृति और उसके निःशब्द निवासियों के अस्तित्व पर गंभीर संकट मंडरा रहा है।
प्रस्तुत चित्र में हृदय को झकझोर देने वाला दृश्य है — घने जंगल को समतल करती विशाल मशीनें, धूल से भरा वातावरण और भयभीत पशु-पक्षी, जो अपने बसेरे से बेघर हो गए हैं। नन्हें चीतल, डर से भागते मोर और आकाश में फड़फड़ाते पक्षी — इन सबकी आँखों में वही असहायता झलक रही है, जो किसी मनुष्य को तब महसूस होती है जब उसका घर उजड़ जाता है। जरा सोचिए, हम जब प्राकृतिक आपदाओं—भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, तूफान या सुनामी—का शिकार होते हैं, तब हमें अपने घर और अपनों को खोने का दर्द सालता है। लेकिन क्या हम उसी वेदना को तब भी महसूस कर पाते हैं जब निर्दोष वन्य प्राणियों के घर हमारी ही वजह से उजड़ते हैं?
हाल ही में, हैदराबाद विश्वविद्यालय की 400 एकड़ वन्य भूमि को विकास परियोजनाओं के नाम पर उजाड़ दिया गया। यह क्षेत्र सिर्फ एक भूखंड नहीं था, बल्कि वहाँ हजारों पशु-पक्षियों का बसेरा था। सैकड़ों वर्षों से यह स्थान उनके प्राकृतिक आवास के रूप में रहा था, लेकिन आधुनिक मानव ने इसे अपने स्वार्थ के लिए कुचल दिया। यह सिर्फ एक उदाहरण नहीं है, बल्कि देशभर में ऐसे अनेकों जंगलों को समतल किया जा रहा है, जिससे वन्य जीव विस्थापित हो रहे हैं और कुछ तो विलुप्ति के कगार पर पहुँच गए हैं।
वन्य प्राणियों का यह दर्द असहनीय है। पेड़ कटने के साथ ही न केवल उनका आश्रय नष्ट हो जाता है, बल्कि उनके भोजन और पानी के स्रोत खत्म हो जाने से दरबदर भटकता पड़ता है। बेघर प्राणी मजबूरी में रिहायशी इलाकों की ओर रुख करते हैं, जहाँ उन्हें अतिक्रमणकारी समझकर मार दिया जाता है। कई बार ये भटके हुए जीव वाहनों के नीचे आ जाते हैं, या फिर भूख-प्यास से तड़पकर दम तोड़ देते हैं। लेकिन हम, तथाकथित बुद्धिमान मनुष्य, इस त्रासदी को देखकर भी मौन बने रहते हैं।
विकास आवश्यक है, लेकिन अगर यह किसी के अस्तित्व को मिटाकर हासिल किया जाए, तो यह विनाश है; विकास नहीं। क्या गगनचुंबी इमारतें और चौड़ी सड़कें उन मासूम प्राणियों के जीवन से अधिक मूल्यवान हैं? हम आज इतने विकसित होने के बावजूद भी क्या हम उनके लिए सह-अस्तित्व की कोई व्यवस्था नहीं कर सकते? क्या कोई ऐसा संतुलन अथवा समायोजन संभव नहीं है, जिससे हमारे विकास और प्रकृति के संरक्षण, दोनों की जरूरतें एक साथ पूरी हो सकें?
हममें से प्रत्येक को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि हम विकास को टिकाऊ बनाएं। वृक्षारोपण को बढ़ावा दें, शहरी नियोजन में वन्य जीवन के लिए भी स्थान सुनिश्चित करें और प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करें। सरकारी और निजी संस्थान भी अपने प्रकल्प को लागू करने से पहले पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करें और वन्यजीवों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।
अगर हम इस विनाशकारी मार्ग पर चलने से नहीं रुके, तो वह दिन दूर नहीं जब ये पशु-पक्षी केवल किताबों और तस्वीरों में ही देखने को मिलेंगे। क्या हम सच में ऐसे भविष्य की ओर बढ़ना चाहते हैं? यह समय है जब हमें विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि हमारी अगली पीढ़ी भी इन खूबसूरत प्राणियों को उनके प्राकृतिक आवास में देख सके, न कि सिर्फ इतिहास में पढ़कर उनकी कल्पना करे।
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