भारत में शिक्षा को व्यापार नहीं, अधिकार बनाना होगा
🎯 भूमिका
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21(क) कहता है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है[1]। लेकिन आज शिक्षा एक मौलिक अधिकार नहीं, बल्कि महंगे बाजार का उत्पाद बनती जा रही है। निजी स्कूलों की बढ़ती फीस, महंगी किताबें, अलग-अलग सिलेबस और शिक्षा के नाम पर दिखावा — ये सब मिलकर एक गहरी सामाजिक खाई पैदा कर रहे हैं। यह समय की पुकार है कि हम शिक्षा को व्यवसाय नहीं, लोकाधिकार के रूप में पुनःस्थापित करें।
📊 वर्तमान स्थिति की विडंबना
हर साल जब नया सत्र शुरू होता है, तब हजारों माता-पिता के चेहरों पर तनाव की रेखाएं स्पष्ट दिखती हैं। निजी स्कूलों की किताबें न केवल महंगी होती हैं, बल्कि वे स्कूलों द्वारा थोपे गए विशेष प्रकाशनों से भी जुड़ी होती हैं[2]। इसके साथ ही, हर निजी स्कूल का अपना 'पाठ्यक्रम' होता है जो NCERT से भिन्न होता है। यह 'पाठ्यक्रम विविधता' वास्तव में शैक्षिक असमानता को बढ़ावा देती है।
⚖️ विभेदकारी शिक्षा प्रणाली का सामाजिक असर
एक ही देश में एक ही उम्र के बच्चे, अलग-अलग स्तर का ज्ञान प्राप्त करते हैं — यह असमानता सामाजिक स्तर पर खतरनाक साबित हो सकती है। सरकारी स्कूलों के छात्र जहाँ बुनियादी संसाधनों से वंचित रहते हैं, वहीं निजी स्कूलों में विद्यार्थियों को अत्याधुनिक सुविधाएं मिलती हैं। यह ज्ञान आधारित वर्ग संघर्ष की नींव है।
🇮🇳 एक देश, एक पाठ्यक्रम — शिक्षा सुधार की आधारशिला
"एक राष्ट्र, एक पाठ्यक्रम" की अवधारणा केवल नारा नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक समाधान है।
यदि पूरे देश में एक समान पाठ्यक्रम और मूल्य निर्धारण प्रणाली अपनाई जाए, तो इससे शैक्षिक समानता, गुणवत्ता सुधार, और सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलेगा[3]।
🎓 विद्वानों के विचार
डॉ. कृष्ण कुमार के अनुसार, "शिक्षा में भिन्नता का स्थान विविधता में हो सकता है, परंतु मूलभूत ज्ञान और मूल्यों में एकरूपता होना आवश्यक है, अन्यथा शिक्षा सामाजिक विभाजन का औज़ार बन जाएगी।"[4]
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इस बात पर बल देती है कि सभी बच्चों को मूलभूत साक्षरता और समान अवसर मिलें, चाहे वे किसी भी पृष्ठभूमि से हों[5]।
🔧 क्या हो सुधार?
- निजी स्कूलों के किताबों और यूनिफॉर्म बेचने पर सख्त नियमन।
- शासकीय स्कूलों में निवेश बढ़ाना ताकि वे निजी विकल्प का समतुल्य बन सकें।
- सभी स्कूलों में NCERT या राज्य बोर्ड की पुस्तकें अनिवार्य करना।
🎯 निष्कर्ष
शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्रियाँ बाँटना नहीं, बल्कि नागरिक तैयार करना है। यदि हम चाहते हैं कि भारत आत्मनिर्भर, समावेशी और प्रगतिशील बने, तो हमें शिक्षा को बाज़ार की गिरफ़्त से मुक्त कर, एक समान और मानवीय स्वरूप देना होगा। शिक्षा यदि अधिकार नहीं बनी, तो वह अवसरवादियों के लिए सिर्फ़ एक 'सेवा' नहीं, 'सेल' बनकर रह जाएगी।
📚 फुटनोट्स:
- संविधान (86वां संशोधन), 2002 — अनुच्छेद 21A
- Indian Express, 2019: "Parents protest against high cost of school books"
- नीति आयोग, 2020 — School Education Quality Index
- डॉ. कृष्ण कुमार, पूर्व निदेशक, NCERT – व्याख्यान, 2017
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, भारत सरकार